रविवार को आये बिहार विधानसभा चुनाव के नतीज़ों में महागठबंधन ने दो तिहाई सीटें जीत कर भाजपानीत एनडीए को करारी शिकस्त दे दी। सुबह आठ बजे आने शुरु हुए चुनावी रूझानों की शुरुआत में तो एनडीए हावी रहा लेकिन यह आंकड़ा घंटे भर ही बाद पूर्णतः पलट गया। दोपहर होते ही चुनावी नतीज़ों की यह तस्वीर पूरी साफ़ हो गयी और राजद, जदयू, कांग्रेस सरीखों के गठबंधन से बना महागठबंधन ने एक बड़ा उलटफेर करते हुए एनडीए को धूल चटा दी। चुनावी नतीजे आने के बाद से ही अब यह सवाल प्रासंगिक हो गया है कि लोकसभा चुनावों के महज डेढ़ साल बाद ही भाजपा का इतना बुरा हाल कैसे हो गया। यह सवाल इसलिए भी उठता है क्योंकि गत वर्ष हुए लोकसभा चुनावों में भाजपा ने मोदी लहर के बूते केंद्र की राजनीति के साथ ही बिहार में भी अप्रत्याशित नतीजों को प्राप्त किया था।
अब जब महीने भर से चल रहा बिहार चुनाव भाजपा की करारी शिकस्त के साथ समाप्त हो गया है तो यह जानना आवश्यक है कि आखिरकार इतने कम वक्त के भीतर ही भारतीय जनता पार्टी का यह हाल कैसे हो गया। विश्लेषण करते हुए सबसे पहली वजह जो दिखती है वह विधानसभा चुनावों के दौरान तमाम भाजपा नेताओं के द्वारा लगातार की गयी विशेष समुदाय, गाय, बीफ आदि जैसे मुद्दों पर बयानबाजी ही है। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से सांसद आदित्यनाथ, साक्षी महाराज जैसे नेताओं ने कमोबेश ऐसी कई बयानबाजी करते रहे जिससे मतदाताओं के मन में भाजपा का विकास एजेंडा दूर होता गया।
इन बयानबाजियो का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी विरोध न के बराबर ही किया। प्रधानमंत्री होने के नाते जनता का एक बड़ा तबका मोदी से उम्मीद कर रहा था कि वह जरूर ही इन बयान बहादुरों पर रोक लगाएंगे या इसका विरोध करेंगे लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। हालाँकि बीच-बीच में कई मीडिया रिपोर्ट्स आती रहीं कि इन नेताओं पर केंद्रीय नेताओं का डंडा चला है लेकिन ये तमाम अटकलें उस समय धरी की धरी रह गयी जब अन्य कई मुद्दों को इन्हीं नेताओं ने फिरसे विवादास्पद टिप्पणी की। यह बड़ी वजह रही जिससे मतदाताओं को प्रतीत होने लगा कि, लोकसभा चुनावों के वक्त विकास के एजेंडे पर सवार भाजपा भी अनर्गल बयानबाजी को तरजीह देने लगी है।
इसके इतर बिहार विधानसभा चुनावों की रैलियों के दौरान चुनिंदा भाजपा नेताओं ने जातिगत कार्ड खेलने का भी प्रयास किया। बिहार की जातीय राजनीति को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पिछड़ी जाति का नेता बनाने से भी भाजपा बाज नहीं आई। अध्यक्ष अमित शाह ने भी मोदी की जाति को जनता के सामने रखकर जाति कार्ड खेलने का प्रयत्न किया। जाति पर इन तमाम बयानों की वजह से यह तो तय है कि मोदी को पिछड़ी जाति का नेता बता कर भाजपा बिहार की जनता का मत हासिल करने की कोशिश कर रही थी लेकिन अंततः वो इसमें असफल ही रही।
महंगाई, भ्रष्टाचार आदि जैसे अहम मुद्दों पर लोकसभा चुनाव जीतने के बाद भाजपा इन मुद्दों को पूरी तरह ख़त्म नहीं कर सकी। गत साल भर से लगातार भाजपाई नेता, मंत्री कई भ्रष्टाचार के मुद्दों पर घिर चुके थे। चाहे वह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान हों या रमन सिंह , इन मुख्यमंत्रियों के क्रमशः व्यापम घोटाले, चावल घोटाले जैसे आरोप लगे थे। इसी वजह से विपक्ष भी भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व पर भ्रष्टाचार का साथ देने जैसे आरोप लगाता आ रहा था। बिहार के इस चुनाव में महंगाई का मुद्दा भी जम का भुनाया गया। मतदान तारीख नजदीक आते ही तुअर दाल के साथ साथ तमाम अन्य दालों के दामों में कई फीसद तक वृद्धि होने की वजह से भाजपा द्वारा की जाने वाली महंगाई रोकने की बात भी पूरी खोखली साबित हुई। देखा जाए तो भाजपा की यह हार एक विशेष समुदाय के खिलाफ लगातार बयानबाजी व रोष भरने की वजह से भी हुई है। इसका एक उदाहरण दादरी में अफवाह के नाम पर हुई इकलाख अहमद की हत्या ही है। हत्या के इस पूरे प्रकरण में भाजपाई नेता के बेटे का नाम आने से भारतीय जनता पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व पूरी तरह से कई दिनों तक घिरा रहा।
खैर, यह तो तय है कि बिहार विधानसभा चुनावों में महागठबंधन के एक तरफ़ा जीत दर्ज करने के बाद भाजपा का शीर्ष नेतृत्व अपनी हार के कारणों पर गंभीरता पूर्वक विचार करेगा। भाजपा के प्रवक्ताओं की मानें तो ग्राउंड रिपोर्ट से हार की वजहों को ढूंढकर भविष्य में दूर किया जायेगा। चुनावी नतीजों के आने के बाद इसमें कोई दो राय नहीं है कि भाजपा को अगर भविष्य में पार्टी की स्थिति को दुरुस्त करना है तो नेताओं से लेकर खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी गम्भीरतापूर्वक आत्ममंथन करना होगा। इसके साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खुद आगे बढ़ते हुए बीफ, गाय, धर्मों को बांटने वाले संवेदनशील मुद्दों पर अपनी राय देकर पार्टी को मुश्किल में डालने वाले पार्टी नेताओं पर कड़े से कड़े कदम उठाने ही होंगे जिससे भविष्य में आने वाले चुनावों में भाजपा की स्थिति में सुधार हो सके।
मदन तिवारी
सही बात है . भाजपा के लिए आत्ममंथन का समय आ गया है .ये बात सही है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव की हार , बिहार की हार से भी ज्यादा बड़ी थी . लेकिन पिछले १० महीनो में भाजपा नेताओं ने उससे कोई सबक नही सीखा , न खुद को बदला , न सुधारा . जब तक वे आत्मावलोकन नही करेंगे , हर जगह एक ही रणनीति को इस्तेमाल करना नही छोड़ेंगे , स्थानीय नेताओं को तवज्जो नहीं देंगे , तब तक उन्हें ऐसे ही नतीजे मिलते रहेंगे . लोकसभा चुनाव से पहले और बाद के ८-१० महीने तक उनकी रणनीति सही काम करती रही और वे जीतते रहे लेकिन दिल्ली का चुनाव हारने पर उन्हें अपना पैटर्न बदल लेना चाहिए था .लेकिन पहले इतना पता नही होता की आगे क्या होने वाला है और किस दिशा में आगे बढ़ा जाये . फिलहाल भाजपा नेता आम जनमानस को समझने में चूक कर रहे हैं …….