हरिराम चौरसिया
छत्तीसगढ़ में आसन्न विधानसभा चुनाव के ठीक पहले झारखंड प्रदेश की सीमा से लगे जशपुर जिले में औचक रूप में सामने आई आदिवासियों की पत्थलगड़ी आंदोलन ने सरकार के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी है. जशपुर से शुरू हुई इस मुहिम की आंच सरगुजा व कोरबा के रास्ते से होते हुए अब प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के गृह निर्वाचन क्षेत्र राजनांदगांव जिले के आदिवासी अंचल तक पसर चुकी है. इस मुहिम को चलाने का अंदाज भी लगभग वही है, जैसे चार दशक पहले डीएसफोर के माध्यम से अनुसूचित जाति के लोगों को एकसूत्र में पिरोने के लिए देश भर में चलाया गया था. एक खास वर्ग से आने वाले लोगों को संगठित करने के उद्देश्य से चलाये गए उस अभियान का असर यह रहा कि दक्षिण के राज्यों को छोड़कर पूरे देश में यह समाज आज राजनीतिक लिहाज से किसी भी सियासी दल को अपने हितों के अनुरूप साधने में सक्षम है. करीब चालीस साल बाद अब जाकर यह समाज अपनी सियासी ताकत को पहचानते हुए अंगड़ाई लेता दिख रहा है.
प्रदेश के सरगुजा और जशपुर जिले के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में फैल चुका जनजातीय समाज का ‘स्वशासन’ वाला यह आंदोलन छत्तीसगढ़ के अन्य जिलों में चुपके-चुपके ही सही पर भी तेजी से फैल रहा है. इस आंदोलन से सीधे तौर पर जुड़े आदिवासी नेताओं और उनके समर्थकों के खिलाफ हाल में ही की गई कड़ी कार्रवाई के बाद भी आंदोलन की सुगबुगाहट लगातार बनी हुई है.
अप्रैल महीने की शुरूआत में जशपुर जिले में केंद्रीय राज्यमंत्री विष्णुदेव साय और सांसद रणविजय सिंह जूदेव की अगुवाई में निकाली गई सद्भावना यात्रा में शामिल एक महिला नेत्री द्वारा मंच से की गई पत्थलगड़ी तोड़ने की अप्रत्याशित घोषणा ने भी आग में घी का काम किया. इस घोषणा के बाद सद्भावना यात्रा में भीड़ की शक्ल में शामिल क्रुद्ध लोगों ने आदिवासियों द्वारा लगाए गए बहुसंख्य पत्थरों को क्षतिग्रस्त कर दिया था. इससे बुरी तरह नाराज प्रदेश के आदिवासी विभिन्न जिलों में आयोजित ग्राम सभाओं के जरिए गोलबंद हो अब खुले तौर पर ‘स्वशासन’ की मांग करने लगे हैं.कई गांव ऐसे भी हैं जहां आदिवासी पत्थलगड़ी कर ‘अपना शासन- अपनी हुकूमत’ की मुनादी कर रहे हैं.
पत्थलगड़ी मुहिम के जरिये प्रदेश का आदिवासी समुदाय जिस तरीक़े से हुंकार भरता हुआ आंदोलन की राह पर चल निकला है, उससे लगता तो यही है कि पत्थलगड़ी के मुहिमकार छिपे तौर पर किसी बड़े और गुप्त एजेंडे पर कार्य कर रहे हैं. यह एजेंडा केवल जल,जंगल और जमीन बचाने का नहीं बल्कि सियासी तौर पर स्वयं को मजबूत कर सत्ता केंद्र में निर्णायक रूप में स्थापित करने का भी है. ऐसा माना जा रहा है कि आदिवासी समाज का एक बड़ा बौद्धिक तबका अपनी बहुलता के आधार पर छत्तीसगढ़ में किसी और की नही बल्कि सिर्फ और सिर्फ आदिवासी समाज की ही अगुवाई वाली सत्ता की चाहत रखता है.कुछ इसी तरह की बात लगभग डेढ़ दशक पहले छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार में कैबिनेट मंत्री रह चुके एक वरिष्ठ आदिवासी नेता के जरिये भी सामने आ चुकी है. एकजुटता के साथ संघर्ष में विश्वास रखने वाला प्रदेश के विभिन्न इलाकों में निवासरत आदिवासी समाज का यह बौद्धिक तबका भले ही पत्थलगड़ी की आड़ में जल, जंगल और जमीन के साथ आदिवासी समाज के रीति-रिवाजों को बचाये रखने का हवाला दे रहा हो, लेकिन सच्चाई इसके बिल्कुल उलट है.
सूबे में जल, जंगल और जमीन को बचाये रखने की बात अब पूरी तरह से बेमानी हो हासिये पर चला गया है. आदिवासियों के हिस्से की हजारों- लाखों एकड़ जमीन को बड़े कारोबार से जुड़े बड़े लोग करीब चार दशक पहले ही हथिया चुके हैं. तब की स्थिति में शासकीय सेवा से जुड़े आदिवासी अफसरान आरक्षण के सहारे अपनी जमीन को तो सुरक्षित तरीक़े से बचा ले गये लेकिन उन्होंने मजरा- टोला व वनांचल क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों की तरफ मुड़कर भी नहीं देखा. नतीजतन, ये आदिवासी कालचक्र में उलझकर उसी समय से भूमिहीन हो चुके हैं. यदि देखा जाये तो छत्तीसगढ़ के कोरबा, बिलासपुर और रायगढ़ जिले में बड़े पैमाने मौजूद रहे जल, जंगल और जमीन काफी समय पूर्व ही बड़े स्तर पर क्षरित हो चुके हैं. इन सबके बीच लोग यह जानना चाहते हैं कि पत्थलगड़ी मुहीम की अगुवाई करने वाले प्रदेश के बौद्धिक आदिवासी नेता उस समय कहां थे,जब रायगढ़
जिले के बहुसंख्यक आदिवासी गांवों को निजी क्षेत्र के लौह अयस्क उद्योग की स्थापना के लिए एक झटके में ही उजाड़ने की प्रक्रिया शुरू की गई. तब की मौजूदा स्थिति के ये सभी लोग बड़े सरकारी पदों पर आसीन होते हुए भी अपने मुंह पर पट्टी क्यों बांधे हुए थे? इन सभी बातों के पीछे की वास्तविकता यह है कि उस समय न केवल ‘वे’ जमीन की सरकारी फाईलों में दस्तखत कर ‘बेदखली’ के मूक साझीदार बने हुए थे बल्कि आदिवासियों की जमीन इन्हीं अफसरों के माध्यम से अधिग्रहित भी की गई. इसी दरमियान कोरबा जिले का हरा- भरा जंगल भी कोयला उत्पादकों व माफियाओं की भेंट चढ़ गया. इस जिले के सैकडों आदिवासी गांवों की हजारों- लाखों एकड़ जमीन अब सिर्फ मृत कोयला खदान और राख के ढ़ेर में तब्दील होकर रह गया है.
जंगल और कंदराओं में अठखेलियां कर निर्झर बहा करती छोटी नदियों का जल भी अब सूखने की कगार पर है. इसे राज्य सरकार के सिंचाई विभाग ने ‘एनीकट’ बनाकर पूरी तरह से बर्बाद कर दिया है. इस काम में आदिवासी समाज के रिटायर्ड कुछ बड़े शासकीय अधिकारी भी शामिल हैं, जो अब जल- जंगल और जमीन को बचाने का बेसुरा राग अलापने निकले हैं. बहरहाल! बात जहां तक आदिवासी संस्कृति व उनके रीति- रिवाजों को अक्षुण्ण बनाये रखने की है, बड़े सरकारी पदों पर पदस्थ रहने के दौरान ही ‘वे’ इसे वर्षों पहले मटियामेट कर चुके हैं.
छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में संविधान की गलत व्याख्या कर आदिवासियों को भड़काने ,सौहार्द बिगाड़ने और पत्थलगड़ी मुहिम को नये अंदाज में विषाक्त हवा देने के आरोप में रिटायर्ड आईएएस हेरमोन किंडो और ओएनजीसी के पूर्व अधिकारी जोसेफ तिग्गा समेत उनके 6 सहयोगियों को अलग- अलग तारीखों पर गिरफ्तार कर जेल दाखिल किया जा चुका है. उनकी गिरफ्तारी के बाद राज्य सरकार यह मानकर बैठ गई थी कि मामला अब खत्म हो गया है, लेकिन वास्तव में ऐसा हुआ नहीं। कुछ समय की चुप्पी के बाद छत्तीसगढ़ सर्व आदिवासी समाज द्वारा गिरफ्तार नेताओं की रिहाई के लिए राज्य स्तर पर अब जेल भरो अभियान शुरू करने की घोषणा की गई है.
प्रदेश के आदिवासी इलाकों में गहरे हरे रंग से पोते गये काले या भूरे रंग के पत्थरों के बड़े और चौकोर पटों पर ग्रामसभा को ही सर्वोच्च घोषित किया गया है। प्रदेश के आदिवासी बहुलता वाले अनेक इलाकों में बहुसंख्य स्थल ऐसे हैं जहां गाड़े गये पटों पर अशोक स्तंभ की आकृति भी उकेरी गई है, जिसमें बिना इजाजत बाहरी लोगों को क्षेत्र या गांव में नहीं आने देने की चेतावनी दी गई है।
राज्य के जशपुर,रायगढ़, राजनांदगांव और सरगुजा जिले के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में फैल चुका जनजातीय समुदाय का स्वशासन वाला पत्थलगड़ी आंदोलन छत्तीसगढ़ के अन्य जिलों में भी अपनी जड़ें तेजी से जमा रहा है. सूत्रों की मानें तो आदिवासी बहुल अंदरूनी इलाकों में आदिवासी और जनजातीय नेताओं को वहां के निवासियों का पूरा समर्थन हासिल है. ‘जल, जंगल और जमीन’ की मांग को लेकर आदिवासी समुदाय का एक बड़ा हिस्सा बड़ी तेजी के साथ इस मुहिम से जुड़ते हुए दिख रहा है.
पत्थलगड़ी आंदोलन से जुड़े प्रदेश के आदिवासियों ने सरकार के खिलाफ अपना अभियान ऐसे वक्त पर शुरू किया है जब राज्य के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह अपने सरकार की उपलब्धियों को बताने के लिए दो किश्तों वाली विकास यात्रा पर निकले हुए हैं.
छत्तीसगढ़ में इस वर्ष के नवंबर- दिसंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए सत्तारूढ़ भाजपा इस मामले को लेकर बेहद संजीदा है. सरकार यह बिल्कुल भी नहीं चाहती है कि इस बात या मसले को लेकर सामने कोई बड़ा बखेड़ा खड़ा हो. शायद यही कारण भी है कि सत्तारूढ़ दल इस पूरे मसले पर पूरी सावधानी के साथ सतर्किया निगाह से ‘डील’ कर रही है.
इस पूरे मसले पर प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह साफ तौर पर कहते हैं कि,’ पत्थलगड़ी का कोई विरोध नही है. विरोध है तो सिर्फ विषवमन करने वाली उन ताकतों का, जो पत्थलगड़ी के नाम से लोगों के बीच विभाजन की लकीरें खींच रहे हैं.’ उन्होंने यह भी कहा कि,’आंदोलन लोकतांत्रिक प्रक्रिया में चलता रहे तब तक ठीक है लेकिन अलोकतांत्रिक रुप अख्तियार करने पर उनके विरुद्ध सख्त कार्रवाई की जायेगी.” बहरहाल! पुलिस- प्रशासन ने एहतियातन पत्थलगड़ी आंदोलन से जुड़े अनेक नेताओं को गिरफ्तार कर अपनी कार्रवाई शुरू कर दी है.
इसी मसले पर कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भूपेश बघेल का पलटवार बयान भी सामने आया, जिसमें उन्होंने कहा कि, ‘भाजपा सरकार के फ्लाप विकास मॉडल की देन है पत्थलगड़ी. उनका यह आंदोलन आदिवासियों के शोषण और दमन के खिलाफ जन आक्रोश के रूप में सामने आया है.’ श्री बघेल आदिवासियों द्वारा चलाए जा रहे इस अभियान को पूरी तरह से संवैधानिक मानते हुए आगे कहते हैं कि,’विकास के सरकारी दावों के बीच प्रदेश के आदिवासी इलाकों के हालात बेहद खस्ताहाल और चिंताजनक स्थिति में है.’
पुलिस की कार्रवाई को गलत बताते हुए समाज के महासचिव नवल मांडवी कहते हैं कि, ‘पत्थलगड़ी आंदोलन को देश विरोधी करार दिये जाने की कोशिश की जा रही है, जबकि इसका मकसद सिर्फ ग्राम सभा की ताकत और संविधान में आदिवासियों के अधिकारों का उल्लेख कराना है।’ पिछले दिनों जिला भाजपा के कार्यक्रम में शिरकत करने कोरबा पहुंचे प्रदेश के गृहमंत्री रामसेवक पैकरा ने चर्चा के दौरान पत्थलगड़ी पर कटाक्ष करते हुए कहा कि,’पत्थलगड़ी आंदोलन की आड़ में देश विरोधी शक्तियां एकजुट हो सक्रिय हो रही हैं. इन्हें सरकार कुचल कर रख देगी.” उन्होंने यह भी कहा कि – “पत्थलगड़ी आदिवासियों की परंपरा हो सकती है लेकिन भोले- भाले आदिवासियों को बरगलाने के लिए अपनाये जा रहे तरीक़े असंवैधानिक है.