काली राख और जहरीली हवा का हब बनता प्रदेश और इसकी राजधानी

kali rakh मध्य प्रदेश से अलग होने के पूर्व तक छत्तीसगढ़ में कोरबा तथा रायगढ़ ऐसे इलाके थे, जहां काली राख की बारिश हुआ करती थी। लगभग एक दशक पहले रायगढ़ में एक युवती की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हुई। पोस्टमार्टम होने पर युवती के फेफड़ों पर लगभग दो मिलीमीटर कार्बन की तह पाई गई| इन इलाकों में खखारने पर कफ के साथ काला बलगम निकलना तब भी आम बात थी और आज भी आम बात है। जो बात आम नहीं बल्कि ख़ास है, वह है की छत्तीसगढ़ में औद्योगीकरण केवल किसानों से जमीन छीनकर, आदिवासियों को बेदखल करके, जंगलों की वैध और अवैध कटाई करके या छत्तीसगढ़ की नदियों और जल स्त्रोतों को ओने-पोने दामों में उद्योगों के हवाले करके ही नहीं हो रहा है, बल्कि इसकी बहुत बड़ी कीमत अपने स्वास्थय को खोकर प्रदेश की जनता को चुकानी पड़ रही है।

लगभग एक माह पूर्व अमरीका बेस स्वास्थ्य संगठन सेन्टर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट ने भारत में वायु प्रदूषण पर एक अध्यन रिपोर्ट जारी की है, जिसमें छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर को देश के पांच सर्वाधिक प्रदूषित क्षेत्रों में से एक बताया गया है। ऐसा नहीं है कि यह रिपोर्ट अचानक सामने आई है। सात वर्ष पूर्व भी केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने वर्ष 2005 में रायपुर को देश का सर्वाधिक प्रदूषित शहर करार दिया था। अफ़सोस तो यह है कि छत्तीसगढ़ जब मध्य प्रदेश में था, तब भी उद्योगों के ऊपर कारखानों से निकलने वाले धुँए को साफ़ करने तथा धुँए के साथ निकलने वाले सूक्ष्म कणों को वायुमंडल में फैलने से रोकने के लिए जो उपकरण लगाने चाहिए, उन्हें लगाने का कोई दबाव नहीं था और आज भी, जब छत्तीसगढ़ स्वयं एक राज्य बन गया है, उद्योगों के ऊपर उन उपकरणों को लगाने का कोई दबाव नहीं है। क्षेत्र के प्रख्यात पर्यावरणविद डॉक्टर. ए. आर दल्ला कहते हैं कि जो स्थिति छत्तीसगढ़ की है, वह दुनिया के किसी भी इलाके की नहीं है। आप जब रायपुर के बाहर स्पंज आयरन की फैक्ट्रिओं से निकलने वाले काले धुँए को देखेंगे तो डर जाएँगे| यहाँ आसमान से कोयला बरस रहा है| निजी कंपनियाँ बिजली बचाने के लिए अपने ईएसपी बंद कर देती हैं| हमने पहले सुझाव दिया था कि इनके लिए मीटर लगाओ, पर ऐसा नहीं किया गया| ऐसा नहीं है कि सरकार कर नहीं सकती, मगर वो करती नहीं| गौरतलब है कि भिलाई-रायपुर मार्ग पर किये गए एक अन्य शोध में मनुष्यों के रक्त में खतरनाक हद तक सीसा घुला पाया गया।अकेले रायपुर शहर में वर्ष 2005 में पीएम-10 का औसत 203 था, जो की 2010 में बदलकर 289 माईक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर हो गया। छत्तीसगढ़ में अगर आम आदमी के स्वास्थ्य की रक्षा करनी है तो इसके बढ़ते स्तर पर लगाम लगाना जरूरी है।

छत्तीसगढ़ में प्रदूषण की विकालता को जानने के लिए किसी तकनीक, विज्ञान, आकड़ों या रिपोर्ट कीजरुरत नहीं है। बस, आपको करना यह है कि आप किसी भी दिशा से छत्तीसगढ़ में घुसें तो आसमान की और देखें तो आपको धुँए की एक मोटी परत से हवा का रंग बदला हुआ दिखाई देगा।एक सफ़ेद कपड़ा रात में छत पर फैला दीजिये, सुबह आपको उसके ऊपर एक काली परत जमी दिखाई देगी। दिन हो या रात, आप छत्तीसगढ़ के किसी भी शहर में सिर्फ दो घंटे बाहर घूमकर आईये और चेहरे को धोकर टावेल या रुमाल से पोंछिये, टावेल या रुमाल काला हो जाएगा। ये सारी कालिख प्रदेशवासी सांस के जरिये रोज पीने मजबूर हैं।

देश का औद्योगिक तीर्थ कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ के सभी औद्योगिक शहरों का एक जैसा हाल है। स्वयं राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कुछ वर्ष पूर्व अपनी एक रिपोर्ट में स्वीकार किया था कि राज्य में स्थापित औद्योगिक इकाईयों ने निर्माण के समय जरूरी कॉमन एफ़्फ़्लुएन्त ट्रीटमेंट प्लांट (CEPT) का निर्माण नहीं किया है जिसका बुरा असर वायुमंडल और जल स्त्रोतों दोनों पर पड़ रहा है।राज्य की 60% से अधिक छोटी-बड़ी औद्योगिक इकाईयां खतरनाक श्रेणी में हैं और इसका दुष्प्रभाव यह हो रहा है कि राज्य में न केवल लगातार साँस की बीमारियों से पीड़ित लोगों कि संख्या बढ़ रही है बल्कि मासूम बच्चों को भी साँस की बीमारियों और आँख के कैंसर जैसे रोगों का सामना करना पड़ रहा है। हाल ही में कैंसर रिसर्च सेंटर के विभाग प्रमुख डॉक्टर. विवेक चौधरी ने बताया था कि उनके विभाग में आँखों के कैंसर के 35 से ज्यादा मामले पहुँचे हैं| उनके अनुसार आई कैंसर ज्यादा इन्फैक्शन और प्रदूषण के कारण हो रहा है तथा माईन्स के क्षेत्रों में ये मामले बढ़ रहे हैं| ऊपर उल्लेखित राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रदेश में 26.1% के लगभग बच्चे साँस की बीमारियों से पीड़ित हैं।

हाल ही में ग्रीनपीस की एक रिपोर्ट आई है जिसमें बताया गया है कि केवल कोरबा-तालचेर-सिंगरोली थर्मल पॉवर काम्प्लेक्स में प्रदूषण से एक साल में 11 हजार लोग मरे हैं। छत्तीसगढ़ किस दुर्दशा की ओर जा रहा है, उसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि छत्तीसगढ़ में 8 बिजली घरों में एक साल में 44.5 लाख टन कोयले की खपत होती है। नयी नीति के तहत छत्तीसगढ़ सरकार ने 42 कम्पनियों से 30 हजार मेगावॉट की क्षमता के बिजली घर बनाने के लिए समझौता किया है। छत्तीसगढ़ की औद्योगिक नीति में जमीन पानी से लेकर हर तरह की छूट पॉवर प्लांटों के लिए देने का प्रावधान है, पर, कहीं भी प्रदेश के नागरिकों और मजदूरों की सुरक्षा और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए कोई चिंता न तो उस औद्योगिक नीति में दिखाई पड़ती है और न ही राज्य सरकार में। छत्तीसगढ़ यदि औद्योगिक हब बनता है तो बावजूद इसके कि प्रदेश के भ्रष्ट राजनेता, अधिकारी और उद्योगपति ही मालामाल होंगे, जनता उसका समर्थन कर सकती है यदि राज्य सरकार जिनकी जमीन छीनी जा रही है उन्हें उचित मुआवजा दे, जो विस्थापित हो रहे हैं, उनका पुनर्वास करे और वायु-जल प्रदूषण से प्रदेश के लोगों को सुरक्षा प्रदान करे। पर, ऐसा राज्य सरकार की चिंता में नहीं दिखता है, वरना प्रदेश के लिए बने मास्टर प्लानों में राज्य सरकार ने प्रदेश में ग्रीन बेल्ट बनाने के उचित प्रस्ताव किए होते| पूरे प्रदेश की बात छोड़ भी दी जाए तो राजधानी रायपुर ही ग्रीन बेल्ट से महरूम है। मास्टर प्लान 2011 के प्रस्तावित ग्रीन बेल्ट अभी तक तैयार नहीं हो पाए हैं और 2021 में उनकी संख्या घटाकर दो कर दी गई है। सवाल नीति का भी है और नियत का भी| जिस तरह सरकारी नीतियाँ हैं, उनसे तो यह प्रदूषण नहीं रुकने वाला है| छत्तीसगढ़ के शहरों का बढ़ रहा तापमान सबसे बड़ा उदाहरण है| हमें समझना होगा कि प्रदेश का विकास किसकी कीमत पर हो रहा है| प्रदेश औद्योगिक हब बनने की तरफ कम और काली राख और जहरीले धुंए का हब बनने की दिशा में तेजी से बढ़ रहा है।

 

अरुण कान्त शुक्ला

 

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अरुण कान्त शुक्ला
भारतीय जीवन बीमा निगम से सेवानिवृत्त। ट्रेड यूनियन में तीन दशक से अधिक कार्य करता रहा। अध्ययन व लेखन में रुचि। रायपुर से प्रकाशित स्थानीय दैनिक अख़बारों में नियमित लेखन। सामाजिक कार्यों में रुचि। सामाजिक एवं नागरिक संस्थाओं में कार्यरत। जागरण जंक्शन में दबंग आवाज़ के नाम से अपना स्वयं का ब्लॉग। कार्ल मार्क्स से प्रभावित। प्रिय कोट " नदी के बहाव के साथ तो शव भी दूर तक तेज़ी के साथ बह जाता है , इसका अर्थ यह तो नहीं होता कि शव एक अच्छा तैराक है।"

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