कालाधन : यथा राजा तथा प्रजा

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 प्रमोद भार्गव 

चाणक्य ने कहा था, किसी भी देश में न्यूनतम र्इमानदार और न्यूनतम ही बेर्इमान होते हैं किंतु जब बेर्इमानों पर नकेल कसने में शासन-प्रशासन कमजोर पड़ते हैं अथवा वे खुद बेर्इमान हो जाते हैं तो देश के ज्यादातर लोग बेर्इमानी का अनुसरण करने लग जाते हैं। इसी सच्चार्इ का पर्याय यह लोकोकित है, जिसे केंद्रीय अनुसंधान ब्यूरो के प्रधान अमरप्रताप सिंह ने अपने उदबोधन में प्रयोग में लाते हुए कहा, ‘यथा राजा तथा प्रजा। मसलन जैसा राजा होगा वैसी ही प्रजा होगी। तय है यदि व्यवस्था अपारदर्शी, जटिल, केंद्रीयकृत और भेदभाव के चलते अमल में लार्इ जाने वाली हो तो भ्रष्टाचार को फलने-फूलने का अवसर मिलेगा ही। सिंह ने यह उदाहरण भ्रष्टाचार का विरोध और अवैध संपत्ति की वसूली पर दिल्ली में आयोजित इंटरपोल के प्रथम वैशिवक कार्यक्रम में बोलते हुए दिया। इसी दौरान उन्होंने साफ किया कि भारत के लोगों ने दोहरे कराधान से बचने के लिए विदेशी बैंकों में 24.5 लाख करोड़ रूपए जमा किए हुए हैं। विदेशी बैंकों में जमा यह धन भारत का सबसे ज्यादा है। यह तथ्य उजागर करके सीबीआर्इ निदेशक ने इस बात की पुषिट कर दी है कि भारतीयों का बड़ी तादात में कालाधन दुनिया के बैंको में जमा है। केन्द्र की जो संप्रग सरकार बार-बार इस हकीकत से मुकरती रही है कि विदेशों में कितना काला धन जमा है इसका कोर्इ पुख्ता प्रमाण नहीं है। अब इसके स्रोत तलाशने की बजाए ऐसे उपाय अमल में लाने की जरूरत है, जिससे गैर कानूनी धन देश में वापिस लाए जाने का रास्ता प्रशस्त हो।

सीबीआर्इ निदेशक कुछ कह रहे हैं तो वे कुछ दस्तावेजी साक्ष्यों के आधार पर ही सार्वजनिक करने का साहस जुटा पाए होंगे। इसीलिए उन्होंने बड़े भरोसे के साथ विश्व बैंक के अनुमानों का हवाला देते हुए कहा कि सीमा पार आपराधिक और कर चोरी के रूप में काले धन का प्रवाह लगभग 1500 अरब डालर है। इसमें से 40 अरब डालर रिश्वत का है, जो विकासशील देशों के अधिकारियों को विकसित देशों ने अपने हितों के लिए नीतियां परिवर्तन के लिए दिए। इसमें 2जी स्पेक्ट्रम और राष्ट्र मण्डल खेलों में हुए घोटालों की राशि भी शामिल है। सीबीआर्इ को पता चला है कि बड़ी मा़त्रा में यह धन राशि दुबर्इ, सिंगापुर और मारीशिस ले जार्इ गर्इ, वहां से स्विटजरलैण्ड और अन्य ऐसे टैक्स हैवन (जहां काले धन को सुरक्षित रखने की वैधानिक सुविधा है।) देशों में भेजी गर्इ। इन देशों की अर्थव्यवस्थाएं इसी धन पर टिकी हैं, इसलिए इन देशों की सरकारें जांचों को नजरअंदाज करती हैं। मसलन वहां से धन वापिसी आसान नहीं है। इन्हीं वजहों से पिछले 15 साल के भीतर तमाम दबावों के बावजूद महज 5 अरब डालर धन राशि की वापिसी मूल देशों को हो पार्इ है। हमारे देश के राजनेताओं में इच्छाशक्ति कमजोर होने के कारण काले धन की वापिसी और जटिल बनी हुर्इ है जबकि इसके उलट वित्तीय प्रवाह के नए तरीकों और संचार प्रौद्योगिकी का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बैंकों में इस्तेमाल शुरू हो जाने से दूर देशों में धन भेजना और आसान हो गया है। अलबत्ता बैंक गोपनीयता कानून लागू होने के कारण, इस धन के वास्तविक आंकड़ों का ठीक पता लगाना पहले से ही कठिन बना हुआ है। इस धन के साथ एक विडंबना यह भी जुड़ी है कि अंतरराष्ट्रीय पारदर्शिता संस्था ने जिस देश को सबसे कम भ्रष्ट देश माना है उस देश में उतना ही ज्यादा काला धन जमा है। न्यूजीलैण्ड, सिंगापुर और स्विटजरलैण्ड सबसे कम भ्रष्ट देश हैं, लेकिन भ्रष्टाचारियों का धन जमा करने में ये अब्बल देश हैं। यह अजीब विरोधाभास है कि इन देशों में भारत का 500 अरब डालर से 1400 अरब डालर धन जमा होने का अनुमान है, जो देश के सालाना सकल घरेलू उत्पाद के बराबर है।

हमारे देश में जितने भी गैर कानूनी काम हैं, उन्हें कानूनी जटिलताएं संरक्षण का काम करती हैं। कालेधन की वापिसी की प्रक्रिया केंद्र सरकार के स्तर पर ऐसे ही हश्र का शिकार होती रही है। सरकार इस धन को कर चोरियों का मामला मानते हुए संधियों की ओट में को गुप्त बने रहने देना चाहती थी। जबकि विदेशी बैंकों में जमा काला धन केवल करचोरी का धन नहीं है, भ्रष्टाचार से अर्जित काली-कमार्इ भी उसमें शामिल है। जिसमें बड़ा हिस्सा राजनेताओं और नौकरशाहों का है। बोफोर्स दलाली, 2जी स्पेक्ट्रम और राष्ट्रमण्डल खेलों के माध्यम से विदेशी बैंकों में जमा हुए कालेधन का भला कर चोरी से क्या वास्ता। अब सीबीआर्इ निदेशक ने भी इस तथ्य की पुष्टि कर दी है। यहां सवाल यह भी उठता है कि सभी सांसद, विधायक और मंत्री, कोर्इ ऐसे उद्योगपति नहीं हैं जिन्हें आयकर से बचने के लिए, कर चोरी के समस्या के चलते विदेशी बैंकों में कालाधन जमा करने की मजबूरी का सामना करना पड़े। यह सीधे-सीधे घूसखोरी से जुड़ा आर्थिक अपराध है। इसलिए प्रधानमंत्री और उनके रहनुमा दरअसल कर चोरी के बहाने कालेधन की वापिसी की कोशिशों को इसलिए पलीता लगाते रहे हैं जिससे कि नकाब हटने पर कांग्रेस को फजीहत का सामना ना करना पड़े। वरना स्विटजरलैंड सरकार तो न केवल सहयोग के लिए तैयार है, अलबत्ता वहां की संसदीय समिति ने तो इस मामले में दोनों देशों के बीच हुए समझौते को मंजूरी भी दे दी है। यही नहीं काला धन जमा करने वाले दक्षिण पूर्व एशिया से लेकर अफ्रीका तक के कर्इ देशों ने भी भारत को सहयोग करने का भरोसा जताया है। स्विस सरकार ने कुछ नाम उजागर कर अपनी कथनी को करनी में भी बदल दिया है।

पूरी दुनिया में कर चोरी और भ्रष्ट आचरण से कमाया धन सुरक्षित रखने की पहली पसंद सिवस बैंक रहे हैं। जिनेवा स्विटजरलैंड की राजधानी है। यहां खाताधारकों के नाम गोपनीय रखने संबंधी कानून का पालन कड़ार्इ से किया जाता है। यहां तक की बैंकों के बही खाते में खाताधारी का केवल नंबर रहता है, ताकि रोजमर्रा काम करने वाले बैंककर्मी भी खाताधारक के नाम से अंजान रहें। नाम की जानकारी बैंक के कुछ आला अधिकारियों को ही रहती है। ऐसे ही सिवस बैंक से सेवानिवृत एक अधिकारी रूडोल्फ ऐलल्मर ने दो हजार भारतीय खाताधारकों की सूची विकिलीक्स को पहले ही सौंप दी है। तय है जुलियन अंसाजे देर-सबेर इस सूची को इंटरनेट पर डाल देंगे। इसी तरह फ्रांस सरकार ने भी हर्व फेलिसयानी से मिली एचएसबीसी बैंक की सीडी ग्लोबल फाइनेंशल इंस्टिटयूट को हासिल करार्इ है, जिसमें अनेक भारतीयों के नाम दर्ज हैं।

स्विस बैंक एसोसिएशन की तीन साल पहले जारी एक रिपोर्ट के हवाले से सिवस बैंकों में भारतीयों का कुल जमा धन 66 हजार अरब रूपए हैं। खाता खोलने के लिए शुरूआती राशि ही 50 हजार करोड़ डालर होना जरूरी शर्त है। भारत के बाद काला धन जमा करने वाले देशों में रूस 470, ब्रिटेन 390 और यूक्रेन ने भी 390 बिलियन डालर जमा करके अपने ही देश की जनता से घात करने वालों की सूची में शामिल हैं। सिवस और जर्मनी के अलावा दुनिया में ऐसे 69 ठिकाने और हैं जहां काला धन जमा करने की आसान सुविधाएं हासिल है।

भ्रष्टाचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र ने एक संकल्प पारित किया है। जिसका मकसद है कि गैरकानूनी तरीके से विदेशों में जाम काला धन वापिस लाया जा सके। इस संकल्प पर भारत समेत 140 देशों ने हस्ताक्षर किए हैं। यही नहीं 126 देशों ने तो इसे लागू कर काला धन वसूलना भी शुरू कर दिया है। यह संकल्प 2003 में पारित हुआ था, लेकिन भारत सरकार इसे टालती रही। आखिरकार 2005 में उसे हस्ताक्षर करने पड़े। लेकिन इसके सत्यापन में अभी भी टालमटूली बरती जा रही है। स्विटजरलैंड कानून के अनुसार कोर्इ भी देश संकल्प को सत्यापित किए बिना विदेशों में जमा धन की वापिसी की कार्रवार्इ नहीं कर पाएगा। हालांकि इसके बावजूद स्विटजरलैंड सरकार की संसदीय समिति ने इस मामले में भारत सरकार के प्रति उदारता बरतते हुए दोनों देशों के बीच हुए समझौते को मंजूरी दे दी है। इससे जाहिर होता है कि स्विटजरलैंड सरकार भारत का सहयोग करने को तैयार है। लेकिन भारत सरकार ही कमजोर राजनीतिक इच्छाशकित के चलते पीछे हट रही है।

 

हालांकि दुनिया के तमाम देशों ने कालेधन की वापिसी का सिलसिला शुरू कर दिया है। इसकी पृष्ठभूमि में दुनिया में आर्इ वह आर्थिक मंदी थी, जिसने दुनिया की आर्थिक महाशकित माने जाने वाले देश अमेरिका की भी चूलें हिलाकर रख दी थीं। मंदी के काले पक्ष में छिपे इस उज्जवल पक्ष ने ही पश्चिचमी देशों को समझाइश दी कि काला धन ही उस आधुनिक पूंजीवाद की देन है जो विश्वव्यापी आर्थिक संकट का कारण बना। इस सुप्त पड़े मंत्र के जागने के बाद ही आधुनिक पूंजीवाद के स्वर्ग माने जाने वाले देश स्विटजरलैंड के बुरे दिन शुरू हो गए। नतीजतन पहले जर्मनी ने ‘वित्तीय गोपनीय कानून शिथिल कर काला धन जमा करने वाले खाताधारियों के नाम उजागर करने के लिए स्विटजरलैंड पर दबाव बनाया और फिर इस मकसद पूर्ति के लिए इटली, फ्रांस, अमेरिका एवं ब्रिटेन आगे आए। अमेरिका की बराक ओबामा सरकार ने स्विटजरलैंड पर इतना दबाव बनाया कि वहां के यूबीए बैंक ने कालाधन जमा करने वाले 17 हजार अमेरिकियों की सूची तो दी ही 78 करोड़ डालर काले धन की वापिसी भी कर दी।

अब तो मुद्रा के नकदीकरण से जूझ रही पूरी दुनिया में बैंकों की गोपनीयता समाप्त करने का वातावरण बनना शुरू हो चुका है। इसी दबाव के चलते स्विटजरलैंड सरकार ने कालाधन जमा करने वाले देशों की सूची जारी की है। सिवस बैंक इस सूची को जारी करने में देर कर भी सकता था, लेकिन इसी बैंक से सेवा निवृत्त हुए रूडोल्फ ऐल्मर ने जो सूची विकिलीक्स के संपादक जूलियन अंसाजे को दी है, उसका जल्द इंटरनेट पर खुलासा होना तय है। इसी सूची में दो हजार भारतीय खाताधारियों के नाम बताए जा रहे हैं। इस अंतरराष्ट्रीय काले कानून को खत्म करने के दृष्टिगत अंतरराष्ट्रीय दबाव भी बन रहा है। सिवस बैंकों में गोपनीय तरीके से काला धन जमा करने का सिलसिला पिछली दो शताबिदयों से बरकरार है। लेकिन कभी किसी देश ने कोर्इ आपत्ति दर्ज नहीं करार्इ। आर्थिक मंदी का सामना करने पर पशिचमी देश चैतन्य हुए और कड़ार्इ से पेश आए। 2008 में जर्मनी की सरकार ने लिश्टेंस्टीन बैंक के उस कर्मचारी हर्व फेलिसयानी को धर दबोचा जिसके पास कर चोरी करने वाले जमाखोरों की लंबी सूची की सीडी थी। इस सीडी में जर्मन के अलावा कर्इ देशों के लोगों के खातों का ब्यौरा भी था। लिहाजा जर्मनी ने उन सभी देशों को सीडी देने का प्रस्ताव रखा जिनके नागरिकों के सीडी में नाम थे। अमेरिका, ब्रिटेन और इटली ने तत्परता से सीडी की प्रतिलिपि हासिल की और धन वसूलने की कार्रवार्इ शुरू कर दी। इस परिप्रेक्ष्य में सीबीआर्इ निदेशक यदि सरकार को नसीहत देते हुए कह रहे हैं कि राजनीतिकों में इच्छाशक्ति का अभाव है। इसी कमजोरी के चलते देश के ज्यादातर अधिकार संपन्न लोग सफेद धन को काला बनाने में लग गए हैं। तय है यथा राजा, तथा प्रजा की लोकोकित चरितार्थ होती रही है और सरकार इसी तरह अनदेखी करती रही तो आगे भी होती रहेगी।

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  1. ऐसे पहले से यह कहावत अवश्य चली आयीहै कि जैसा राजा वैसी प्रजा,पर प्रजातंत्र में यह कहावत उल्टी होनी चाहिए,जैसी प्रजा वैसा राजा.मै तो यही मानता हूँ कि हमलोगों ने वैसा ही सरकार पाया है या पाते रहे हैं,जिसके लायक हम हैं.अतः;मेरे विचार से इन सब बातों के लिए वास्तविक दोषी प्रजा ही है,जिसने ऐसा राजा चुना है या चुनते जा रहे हैं,जो भ्रष्टता की नयी नयी सीमायें बनाते जारहे हैं.

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