बरकत

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कल शाम देहरादून से जितेन्द्र का फोन आया, ‘‘20 अक्तूबर को तुम्हारे भतीजे का विवाह है। कार्ड तो जब छपेगा, तब भेज दूंगा; पर तारीख लिख लो। भाभी जी और बच्चों को भी आना है।’’

 

मैंने कहा, ‘‘हां भाई, ऐसे खुशी के मौके बार-बार थोड़े ही आते हैं। हम सब जरूर आएंगे। कोई चीज यहां से मंगानी हो, तो बता देना। वह भी साथ ले आएंगे।’’

 

जितेन्द्र यानी जीतू मेरा पुराना साथी है। छात्रावास में हम दोनों कई साल साथ-साथ रहे। तब जो दोस्ती हुई, आज 40 साल बाद भी वैसी ही है। एक-दूसरे के सुख-दुख में शामिल होने से हमारे घर वाले भी आपस में परिचित हो गये।

 

जीतू की देहरादून में घंटाघर पर ‘प्रकाश फोटो लैब’ के नाम से काफी बड़ी चार मंजिला दुकान है। हर मंजिल पर अलग-अलग तरह का काम होता है। उसके पिता प्रकाश जी 1947 में विभाजन के बाद भटकते हुए पहले दिल्ली पहुंचे और वहां से देहरादून। उस समय वे 15 साल के नवयुवक थे। विभाजन की मारकाट में उनकी मां और पिताजी जान गंवा चुके थे। साथ में बस 12 साल का छोटा भाई सुभाष था। इसके अलावा न हाथ में पैसा था और न रहने का कोई ठिकाना।

 

उन दिनों प्रकाश जी दिन भर बाजार में घूमते थे कि शायद कहीं कुछ काम मिल जाए। एक दिन वे पल्टन बाजार में फोटो फ्रेम करने वाली एक दुकान के सामने खड़े थे। जब काफी देर हो गयी, तो दुकानदार ने खड़े होने का कारण पूछा। उन्होंने अपनी परिस्थिति बता दी। उन दिनों लोगों के मन में पंजाब से आये विस्थापितों के प्रति सहानुभूति थी। दुकानदार को भी काम करने वाले एक लड़के की जरूरत थी। उसने 75 रु. महीने पर उन्हें रख लिया। इससे घर में रोटी का प्रबंध हो गया। प्रकाश जी के पढ़ने का तो अब कोई प्रश्न ही नहीं था; पर सुभाष को उन्होंने एक स्कूल में भर्ती करा दिया। साल भर में प्रकाश जी ने सब काम बहुत अच्छे से सीख लिया। खुश होकर मालिक ने उनका वेतन 100 रु. कर दिया।

 

लेकिन प्रकाश जी तो अपना खुद का काम करना चाहते थे। उनकी इच्छा नौकर नहीं, मालिक बनकर जीने की थी। जब सरकार ने पंजाब से आये शरणार्थियों को मकान और दुकान आवंटित किये, तो प्रकाश जी को भी घंटाघर के पास एक दुकान मिल गयी। यों तो दुकान के नाम पर तो वहां एक टीन शेड ही था; पर जगह मौके की थी। अतः उन्होंने वहीं एक तख्त डालकर ‘प्रकाश फोटो फ्रेमिंग स्टोर’ के नाम से काम शुरू कर दिया। उनका पुराना मालिक भी अच्छा आदमी था। उसने आशीर्वाद तो दिया ही, अपनी ओर से आरी, रन्दा और हथौड़ी जैसे कुछ जरूरी उपकरण भी खरीदवा दिये।

 

फिर क्या था, काम तो प्रकाश जी को सब आता ही था। शरीर में दम और मन में उत्साह की कोई कमी न थी। अतः कुछ ही साल में ‘प्रकाश स्टोर’ का सब तरफ नाम हो गया। स्कूल के बाद सुभाष भी दुकान पर आ जाता था। इसलिए वह भी सब काम सीख गया। उसके बारहवीं पास करते ही प्रकाश जी ने उसे पूरी तरह दुकान पर लगा लिया। इस प्रकार एक और एक ग्यारह होने से वे तेजी से उन्नति करने लगे। यद्यपि आगे पढ़ने की इच्छा होने के कारण सुभाष साथ में प्राइवेट बी.ए. भी करता रहा।

 

अगले दस साल में उनके जीवन में कई परिवर्तन हुए। दोनों भाइयों का विवाह हो गया। जो दुकान उन्हें मिली थी, वह बहुत छोटी थी; पर उन्होंने उसके पास की एक दुकान और उसके पीछे की जमीन खरीद ली। इससे दुकान आगे से काफी बड़ी हो गयी। पिछले हिस्से में उन्होंने दो कमरे बनाकर रहना शुरू कर दिया। इस प्रकार घर और दुकान दोनों की व्यवस्था हो गयी।

 

देहरादून शिक्षा का एक बड़ा केन्द्र है। कई धनपतियों तथा नेताओं के बच्चे आज भी वहां पढ़ते हैं। नेहरू परिवार के बच्चों की पढ़ाई के कारण ‘दून स्कूल’ प्रसिद्ध हो गया था। मसूरी में भी मिशन द्वारा संचालित कई प्रसिद्ध स्कूल हैं। सर्वे ऑफ इंडिया, फोरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट (एफ.आर.आई.) जैसे केन्द्र सरकार के कई संस्थान, सेना की छावनी और नये सैन्य अफसरों के प्रशिक्षण का केन्द्र इंडियन मिलट्री एकेडेमी (आई.एम.ए.) भी देहरादून में है। तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग (ओ.एन.जी.सी.) जैसे कई नये संस्थान भी वहां खुल रहे थे। बड़ी संख्या में छात्र और कर्मचारी अपने पहचान पत्र बनवाने के लिए पासपोर्ट आकार के फोटो खिंचवाते थे। कई लोग इसके लिए ‘प्रकाश स्टोर’ पर भी आते थे; पर वहां फोटो खींचने का काम नहीं होता था। इस काम में गुंजाइश देखकर प्रकाश जी ने सुभाष को दो महीने के लिए दिल्ली भेज दिया। वहां रहकर उसने फोटोग्राफी का काम सीखा और दो कैमरे भी खरीद लिये। अब ‘प्रकाश स्टोर’ पर फोटो खींचने का काम भी शुरू हो गया।

 

फोटोग्राफी के क्षेत्र में उतरते ही उनका काम दिन दोगुना और रात चौगुना बढ़ने लगा। प्रायः सभी सरकारी कार्यक्रमों में सुभाष को ही फोटो लेने के लिए बुलाया जाता था। दिल्ली और मुंबई से छपने वाले हिन्दी और अंग्रेजी के कई बड़े अखबार और पत्रिकाओं ने उसे अपने अधिकृत फोटोग्राफर के रूप में अनुबंधित कर लिया। इससे उसका महत्व काफी बढ़ गया। अब वह केवल फोटोग्राफर ही नहीं, फोटो पत्रकार भी बन गया। सभी बड़े नेताओं और सरकारी अधिकारियों से उसकी भेंट होने लगी। कभी-कभी सुभाष अपने स्वचालित कैमरे से उनके साथ एक फोटो अपना भी खींच लेता था। ऐसे सैकड़ों फोटो की उसने एक अच्छी फाइल बना ली। कई फोटो उसने घर और दुकान पर भी लगा लिये।

 

देहरादून के पास स्थित मसूरी एक प्रसिद्ध पर्यटक स्थल है। वहां देश-विदेश के बड़े-बड़े लोग घूमने आते हैं। यों तो मसूरी में भी कई फोटोग्राफर हैं; पर ऐसे लोग सुभाष को देहरादून से ही अपनी गाड़ी में बैठाकर साथ ले जाते थे। इससे उन्हें रास्ते में फोटो खिंचवाने में सुविधा हो जाती थी। सुभाष को हर जगह की अच्छी जानकारी थी ही। अतः वह इन हस्तियों के लिए गाइड का भी काम कर देता था। कई विदेशी पर्यटकों से सुभाष की अच्छी मित्रता हो गयी। उनके माध्यम से उसने कई अच्छे कैमरे विदेश से मंगा लिये।

 

कारोबार में दोनों भाइयों के बीच बहुत सुंदर तालमेल था। प्रकाश जी दुकान का काम संभालते थे, तो सुभाष बाहर का। इधर उनका काम बढ़ रहा था, तो उधर उनके परिवार भी बढ़ रहे थे। राजपुर रोड पर अंग्रेजों द्वारा निर्मित कई बड़ी कोठियां थीं। उनमें से कुछ में तो सरकारी कार्यालय खुल गये थे; पर कई खाली थीं। सरकारी फोटोग्राफर होने के कारण सुभाष का प्रशासन के लोगों से अच्छा सम्पर्क था। उसने एक अधिकारी से बात कर एक कोठी अपने नाम आवंटित करा ली। काफी बड़ी कोठी थी वह। दो-ढाई बीघे से कम जगह नहीं होगी उसमें। अगले हिस्से में लीची के कई पेड़ लगे थे। पीछे कुछ कमरे बने हुए थे। उन्हें ही ठीक करा लिया गया और फिर पूरा परिवार वहीं रहने लगा।

 

क्रमशः प्रकाश जी और सुभाष के बच्चे भी उनके साथ काम में लगते गये। पहले ब्लैक एंड वाइट फोटो चलते थे, फिर रंगीन फोटो का जमाना आया। इसके बाद वीडियोग्राफी होने लगी। अब तो सब कुछ मोबाइल में ही समा गया है। सुभाष का दिमाग काफी तेज था। वह देश-विदेश के लोगों से मिलता रहता था। फोटो के क्षेत्र में क्या नयी चीज और तकनीक आ रही है, इसका वह ध्यान रखता था। उसने अपने परिवार के सब बच्चों को प्रशिक्षण के लिए दिल्ली और मुंबई भेजा। एक लड़का तो जर्मनी भी हो आया। इससे उनका काम देहरादून ही नहीं, पूरे गढ़वाल में नंबर एक पर हो गया। सहारनपुर और मेरठ तक के लोग उनके पास काम लेकर आने लगे। पहाड़ों पर डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाने वालों को वहां सब आधारभूत जानकारी और सामग्री मिल जाती थी। देहरादून के कई युवक इन लोगों के साथ गाइड और सहयोगी के रूप में चले जाते थे। इससे घुमक्कड़ी के साथ ही उन्हें कुछ आय भी हो जाती थी। ऐसे लड़कों की सूची सुभाष के पास रहती थी। पर्यटकों को वे कैमरे किराये पर भी देते थे। इस कारण ‘प्रकाश स्टोर’ पर देशी और विदेशी पर्यटकों की भीड़ लगी रहती थी।

 

काम को बढ़ता देख उन्होंने क्रमशः तीन दुकानें और खोलीं। एक दुकान सहारनपुर रोड पर, तो दूसरी हरिद्वार रोड पर। तीसरी डी.ए.वी. और डी.बी.एस. डिग्री कॉलिज के पास है। यह क्षेत्र छात्रों का गढ़ है। हजारों छात्र वहां छात्रावासों में तथा कमरे किराये पर लेकर रहते हैं। अतः वहां रात के बारह बजे तक काम होता रहता है। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते गये, उनके लिए वे अलग दुकान खोलते गये। आज ‘प्रकाश स्टोर’ की देहरादून में छह शाखाएं हैं। उनके बेटे ही नहीं, दामाद और अधिकांश नाती-पोते भी इसी काम में हैं। वहां फोटो बनाने से लेकर नये कैमरों की बिक्री और पुरानों की मरम्मत भी होती है। यों तो देहरादून में चीन में बने सस्ते कैमरे, फिल्म, मोबाइल फोन, टेबलेट, पैन ड्राइव और डाटा कार्ड आदि खूब मिलते हैं; पर असली माल के लिए लोग ‘प्रकाश स्टोर’ पर ही आते हैं।

 

‘प्रकाश स्टोर’ पर सैकड़ों लड़के और लड़कियों ने काम सीखा। उनमें से कई ने फिर अपनी अलग दुकान शुरू कर दी। देहरादून से लेकर हरिद्वार, ऋषिकेश, विकासनगर, डोइवाला, रायपुर, रुड़की, रायवाला, श्रीनगर, टिहरी, उत्तरकाशी आदि में फोटो की अधिकांश दुकानें प्रकाश जी के शिष्यों की ही हैं। वे ऐसे उत्साही और परिश्रमी युवकों को सदा प्रोत्साहित करते थे। वे लोग भी उन्हें अपने पिता जैसा आदर देते थे। जब भी उनका कोई शिष्य अपनी दुकान के मुहूर्त या अपने किसी घरेलू कार्यक्रम में उन्हें बुलाता, वे सहर्ष वहां जाते थे। कई लोगों ने कहा कि इससे तो उनका अपना काम घट जाएगा; पर प्रकाश जी का मानना था कि हर कोई अपना भाग्य साथ लेकर आया है। जो हमारे भाग्य में लिखा है, वह हमें जरूर मिलेगा। वे कहते थे कि मैंने जिस दुकान पर फोटो मढ़ना सीखा, यदि उसके मालिक ने मेरी सहायता न की होती, तो शायद मैं इतना आगे न जा पाता। उसका मेरे ऊपर जो कर्ज है, वह मैं इन बच्चों को आगे बढ़ाकर उतार रहा हूं।

 

प्रकाश जी और सुभाष की इस सफल जीवन यात्रा के कई पहलू हैं। यद्यपि इस यात्रा में कई बार परेशानी और संकट भी आये; पर दोनों भाइयों ने प्रेम से उसे सुलझा लिया। आगे चलकर उन्होंने राजेन्द्र नगर में एक बड़ी जगह लेकर उसमें मकान बनाया। पूरा परिवार उसमें एक साथ रहता है। राजपुर रोड पर जो कोठी उन्हें मिली थी, वहां उन्होंने वातानुकूलित बहुमंजिला ‘प्रकाश होटल’ बना लिया। उसमें आगे की ओर होटल का कार्यालय है, तो पीछे की ओर फोटो लैब। डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की एडिटिंग हो या रंगीन कार्डों की छपाई; पत्र-पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ बनने हों या विज्ञापन सामग्री; फोटोग्राफी से सम्बन्धित हर काम वहां होता है। 20-25 युवा दिन भर वहां कम्प्यूटरों पर डटे रहते हैं। पिछले साल से वहां छोटी विज्ञापन फिल्में भी बनने लगी हैं।

 

होटल की दूसरी मंजिल पर 250 कुर्सियों वाला एक सभाकक्ष है। उत्तराखंड राज्य और उसकी राजधानी देहरादून बनने से इस होटल का महत्व काफी बढ़ गया। राज्य और केन्द्र के बड़े नेता यहीं प्रेस वार्ता करना पंसद करते हैं। विभिन्न सरकारी और निजी संस्थाओं के कार्यक्रम भी यहां होते ही रहते हैं। बाकी सभी मंजिलों पर आवासीय कमरे बने हैं। लगभग 50 गाड़ियों के खड़े होने की जगह भी है। होटल में साफ-सफाई और खानपान की व्यवस्था इतनी अच्छी है कि कमरे सदा भरे रहते हैं। भारत की एक बड़ी होटल शंृखला से उनका अनुबंध है। इसलिए कमरों की बुकिंग सीधे दिल्ली और मुंबई से ही होती है। उनके परिवार और कारोबार पर हर तरह से भगवान की कृपा है।

 

लेकिन इस सारी कहानी में एक महत्वपूर्ण विषय छूट रहा है। घंटाघर पर जो उनकी चार मंजिल वाली मुख्य दुकान है, उसकी हर मंजिल पर अलग तरह का काम होता है। पहली मंजिल पर बच्चों का विभाग है। वहां बच्चों के झूले, खिलौने, रंग-बिरंगे कपड़े तथा उनके मनबहलाव के कई उपकरण रखे हैं। बच्चे वहां खेलते हुए तरह-तरह के चित्र खिंचवाते हैं। दूसरी मंजिल पर विवाह योग्य युवतियों तथा नवयुगलों के फोटो खींचे जाते हैं। वहां भी साज-सज्जा और शृंगार का पूरा सामान उपलब्ध रहता है; पर सबसे ऊपर की मंजिल पर आज भी फोटो मढ़ने का काम होता है। यद्यपि अब यह काम बहुत कम हो गया है। अब अधिकांश लोग फोटो को लैमिनेट कराते हैं। अब प्लास्टिक के बने बनाये बहुरंगी फ्रेम आते हैं, उसमें ही लोग फोटो जड़वा लेते हैं। फिर भी यदि कोई लकड़ी के फ्रेम का काम लेकर आता है, तो उसे मना नहीं किया जाता। काम भले ही 50 रु. का हो; पर उसे भी उतने ही आदर से स्वीकार किया जाता है, जैसे शादी-विवाह या किसी पार्टी के वीडियो बनाने वाले एक लाख रु. के काम को।

 

लगभग दस साल पुरानी बात है। एक बार मैं प्रकाश जी के पास दुकान पर बैठा था। काम तो सारा बच्चों ने संभाल लिया था; पर शाम के समय वे नियमित रूप से वहां आते थे। इससे उनका मन भी लग जाता था और काम पर नजर भी बनी रहती थी। तभी एक लड़का एक छोटा सा फोटो फ्रेम कराने आया। उसके जाने के बाद मैंने उनसे पूछा कि अब तो आपका काम बहुत बढ़ गया है। फिर आप यह फोटो मढ़ने वाला पुराना काम छोड़ क्यों नहीं देते ? इसने दुकान की पूरी एक मंजिल घेर रखी है।

 

प्रकाश जी हंसकर बोले, ‘‘बेटा, इस काम में ‘बरकत’ है; और व्यापार में ‘बरकत’ बहुत बड़ी चीज होती है। आज हम जहां हैं, इस काम से ही हैं। यह हमारे काम की नींव है। यदि किसी मकान की नींव खिसक जाए, तो वह मकान बच नहीं सकता। मैंने काम की शुरुआत फोटो मढ़ने से ही की थी। तुमने ऊपरी मंजिल पर अल्मारी में रखी आरी, रन्दा और हथौड़ी देखी होगी, जिससे मैंने अपना काम शुरू किया था। ये चीजें मुझे मेरे गुरु ने दी थीं। सुबह दुकान खोलते समय और रात को बंद करते समय हम देवी-देवताओं के साथ उन्हें भी धूप-बत्ती दिखाते हैं। अब तो मैं कमजोर हो गया हूं; पर आज भी मेरे हाथ का मढ़ा हुआ फोटो अलग ही नजर आता है। फोटो मढ़ने के इस काम में जो ‘बरकत’ है, उसी से हम आज नंबर एक पर हैं। मेरे बाद क्या होगा, पता नहीं; पर मेरे रहते तो ये काम बंद नहीं हो सकता।

 

अब न प्रकाश जी हैं और न सुभाष जी; पर ‘प्रकाश स्टोर’ में फोटो मढ़ने का काम आज भी होता है। उनके बच्चे अपने बुजुर्गों के आशीर्वाद से खूब फल-फूल रहे हैं। भगवान करे, उनके परिवार और कारोबार पर ऐसी ही ‘बरकत’ बनी रहे।

 

विजय कुमार

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  1. श्री विजय कुमार जी को “बरकत” लेख लिखने के लिये बधाई| बहुत ही सुंदर ढंग से चित्रण किया है | आप अपना सम्पर्क लिखे मेरा सम्पर्क नवम्बर ९९७१००६४२५ है मैं भी देहरादून रहा हूँ पढ़ कर देहरदून का चित्रण मस्तिष्क में उभर आया

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