इन्तिहां-पेशावर की मासूमियत

peshawar 2घने कोहरे और ठण्ड़ के चलते रज्जाक अभी रजाई में ही दुबका पड़ा था। मन ही मन अपनी आंखें मूंदे शायद यह सोच रहा था कि आज स्कूल न जाना पड़े और छुट्टी का कोई बहाना मिल जाये। मगर अम्मीजान के बनाए परांठों की महक आते ही तपाक से उठ खड़ा हुआ। अब कोई बहाना नहीं था..देर सबेर अपना बस्ता तैयार करता रज्जाक फिर भी न जाने कितने बहाने कर रहा होगा स्कूल न जाने के। कभी अब्बूजान के चक्कर लगाता तो कभी बहन नज़मा के इर्द गिर्द मिन्नतें करता रहा कि कैसे भी हो कोई बहाना मिल जाए उसे, आज तो अल्लाह से भी कई बार दुआ कर चुका था। अपने स्कूल के दिनों शायद हर कोई ऐसे ही नाटक करता है। जैसे ही 7.15 हुए आर्मी स्कूल की वैन की चीखती पों पों की आवाज रज्जाक को उस अप्रिय चिल्लाहट की तरह लगी जो जबरन उसे अलसुबह रोज सुननी ही पड़ती थी। रज्जाक की अम्मी बड़े दुलार से उसकी नांक पोंछते हुए सूती रूमाल उसकी जेब में रखती हैं और टोपा पहनाते हुए लंच बॉक्स को बड़े करीने से उसके गले में लटकाती हैं। रज्जाक बड़ी तसल्ली से अम्मी जान के गले लगता है और अपनी बहन नज़मा और अब्बूजान को खुदा हाफ़िज कहता हुआ आगे बढ़ता है। नज़मां उसे ठेंगा दिखाते हुए चिढ़ाती है मगर रज्जाक के चेहरे पर कोई भाव दिखाई नहीं देता। मन मसोसकर आगे बढ़ते बढ़ते भी रज्जाक के कदम न जाने क्यों उसे रोक रहे थे। शायद ये उसका आलसपन था। वैन तक आते-आते रज्जाक की अम्मी एक बार फिर उसका माथा चूमती है और उसे सीट पर बिठाकर वापस घर की ओर बढती है। वैन चल पड़ती है तो उसमें बैठे रज्जाक के दोस्त उसका टोपा उतारकर उसे चिढ़ाने लगते हैं…रज्जाक आज भी नहाया नहीं था। आवाज गूंजती है शेम-शेम-शेम-शेम ऑन रज्जाक। रज्जाक अपने दोस्तों की खिलखिलाहट पर ध्यान न देते हुए अपने हाथों को ब्लेज़र की जेब में डालकर सर्दी से बचाता हुआ चुपचाप बैठ जाता है, स्कूल वैन की रफ्तार तेज़ होती हुई स्कूल की तरफ बढ़ती है। रज्जाक की अम्मी रसोई में जाते हुए बाकी के बचे परांठे अपने शोहर को चाय के साथ नाश्ते में परोसती है। रज्जाक के अब्बू सलीम खान नहा धोकर अलाव तापते हुए कहता है-‘आज पेशावर में ठंड़ कुछ ज्यादा ही है, कुदरत कहर बरपा रही है।’ सलीम खान पेशावर की कैंट में ही एक बैंक शाखा में गार्ड की नौकरी करता है। अपनी लाईसेंसी बंदूक को संभालते हुए सलीम एक बार अपनी आर्मी की नौकरी की यादों के गलियारे से गुजरता है कि कैसे उसने एक बार लाहौर में तालीबानी आतंकियों से लोहा लिया था। उसे अपने पर गर्व महसूस होता है जब वो सोचता है कि उसने अपनी उसी बंदूक से कैसे एक आतंकी को मार गिराया था और न जाने कितनों की जानें बचाई थीं। वहां से ध्यान हटाते हुए सलीम अपनी बंदूक ताने अपनी नौकरी पर रवाना हो जाता है। घड़ी में सुबह के 10.30 बज चुके हैं। रज्जाक की अम्मी घर का सारा काम निपटा कर फुरसत में सौच रही थी कि उसका रज्जाक अभी लंच ब्रेक पर होगा और उसके हाथों से बनाये परांठे बड़े चाव से खा रहा होगा। रज्जाक की बहन नज़मा उससे बड़ी थी और रोज मदरसा जाती थी तो उसका भी जाने का समय हो आया था मगर रज्जाक ही उसे स्कूल से लौटकर गणित समझाता था। भले ही रज्जाक 5वीं जमात में था मगर घर वालों को रज्जाक के हुनर पर बहुत नाज़ था और वे उसे बड़ा होकर इंजीनियर बनता हुआ देखना चाहते थे। अभी सुबह के 10.50 बजे थे घर के अंदर एक कोठरी में बैठे सलीम के बूढे अब्बूजान आज भी हमेशा की तरह रेड़ियो पर समाचार सुन रहे थे और सलीम भी अक्सर गार्ड की नौकरी के दौरान रेड़ियो पर ही अपना मनोरंजन करता था। इसी दौरान रेड़ियो की आवाज कुछ तेज़ होती है। पाकिस्तान रेड़ियो के समाचार उद्घोषक जोर जोर से किसी स्कूल में तालिबान आतंकियों के कब्जे की खबर दे रहे थे। तभी रज्जाक की अम्मी को पेशावर शब्द सुनाई देता है तो वो तपाक से टीवी ऑन करती है। जियो न्यूज समाचार चैनल पर साफ-साफ तस्वीरों में पेशावर के एक आर्मी स्कूल में आतंकियों के होने की खबर चल रही है। स्कूल के अंदर से अंधाधुंध गोलियों और धमाकों की आवाजें साफ सुनाई दे रही हैं। पाकिस्तान आर्मी, स्कूल के बाहर मौर्चा संभाले हुए है और दर्जनों एंबुलेंस की गाड़ियों की आवाजें कैमरे में बंद तस्वीरों के साथ साफ सुनाई दे रही हैं। रज्जाक की अम्मी को पहले यकीन नहीं होता। वह दौड़कर घर से बाहर निकलती है। पूरे मौहल्ले में अफरा-तफरी का माहौल देखकर वह सन्न रह जाती है। रज्जाक उसी आर्मी स्कूल में पढता है जिसमें आतंकीयों के होने की खबर वह टीवी पर देख रही है। गश खाकर रज्जाक की अम्मी अपने घर के दरवाजे पर ही बेहोश हो जाती है। उधर सलीम खान जिसकी नौकरी उसी स्कूल के आसपास कैंट में ही है, घटना की जानकारी मिलते ही दौड़ता हुआ स्कूल की तरफ बढ़ता है। स्कूल से आती गोलियों की आवाजें उसे और विचलित कर देती हैं। पाक सेना के जवान स्कूल के अंदर मौर्चे पर डटे हैं तो बाहर स्थानीय पुलिस अफरा-तफरी के माहौल से निपट रही है। लोगों की भीड़ को खदेड़ा जा रहा है और उन्हें बार बार वहां से हटने की हिदायत दी जा रही थी। साथ ही घायलों को अस्पताल पहुचायें जाने की जानकारी दी जा रही थी। हर तरफ हाय-तौबा के माहौल के बीच सलीम को कुछ नहीं सूझ रहा था। स्कूल से दो किलोमीटर दूर खड़ी भीड़ में शामिल सलीम की आंखों में रज्जाक की तस्वीर दौड़ रही थी तो कानों में गोलियों की धांय धांय करती आवाजें। अपने कंधे पर रखी बंदूक को सलीम भूल चुका था। तभी उसी रस्ते से गुजर रही एक एंबुलेंस पर सलीम की नजर पड़ती है तो वह अचानक उसका पीछा करता है। न जाने उस एंबुलेंस में ऐसी कौनसी चुंबक थी जो उसे अपनी और खींचते हुए दौड़ा रही थी। आस-पास खड़ी भीड़ भी ये सब समझ नहीं पा रही थी। तेज़ रफ्तार से चलती हुई एंबुलेंस पास ही के लेड़ी रीडिंग अस्पताल पहुंचती है जहां स्कूल में घायल और मृत बच्चों की लाशें उतारी जा रही थी। सलीम उन लाशों का मंजर देखकर अपने होश खो बैठा था। किसी लश्कर की तरहं पड़ी तमाम लाशों के बीच सलीम चिल्लाता हुआ अपने रज्जाक को ढूंढ रहा था। उसके आंसू रूकने का नाम नहीं ले रहे थे और बेसुध होकर वह लाशों को टटोल रहा था। उस अस्पताल में छाये मातमी आलम में न जाने कितने सलीम अपने रज्जाक को ढूंढ रहे थे। अपने घर की दहलीज पर बेहोश पड़ी न जाने कितने मांएं अपने-अपने रज्जाक की घर वापसी का इंतजार कर रही थीं। शैतान कैसे सपनों और कलियों को कुचल देते हैं, उसका भयावह मंजर सामने था। पेशावर में आज मौत का एसा मंजर देख उस देश का भविष्य रो पड़ा होगा। मासूमों की मौत पर मेरे अल्फाजों ने भी आंसू बहाना शुरू कर दिया है। शब्द रो रहे हैं। और करें भी क्या?

-विक्रम‘विशेष’

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