यारो जग बौराया…

संजय बिन्नाणी

साथियो! आप मानें या न मानें, समझें या न समझें, लेकिन यह सच है कि इन दिनों भारत और भारतीय मन-मिजाज वैसे ही बौराया हुआ है, जैसे आम का पेड़। कारण है, ऋतुवसन्त में फगुनई हवा; जिसके असर के चलते मन- मधुकर हुआ, मधु-पान की लालसा लिए डोलता फिर रहा है। रसपान की कल्पना मात्र से ही मदमस्त हो रहा है। इसीलिए हर बात भी कविता या गीत की शैली में निकल रही है। बिन पीए ही नशे का सुरूर सा छा रहा है। गाना आए या ना आए, मनवा झूम-झूम के गा रहा है। उंगलियाँ अनचाहे ही डफ और चंग की ताल पर चल रही हैं। पैर थिरक-थिरक रहे हैं, शरीर लहर-लहर लहरा रहा है।

आपको यदि ऐसा अनुभव नहीं हो रहा है अथवा मेरी बातें समझ में नहीं आ रही हैं तो इतना समझ लीजिये कि आप मनुष्य होते हुए भी मशीन बन गए हैं, धरती और प्रकृति से एकदम कट गए हैं। तभी तो मौसम और मधुमास आप से ‘कनेक्ट’ नहीं हो पा रहे हैं।

क्या आपको कोयल की कूक सुनाई दे रही है? क्या आपको अपने भीतर दहकता सा किसी अगन का ताप और बजता सा लगन का राग महसूस हो रहा है? क्या आपकी आँखें, खिलती कलियों और मिस वर्ल्ड, मिस युनिवर्स या मिस अर्थ जैसी गल्स (मि.वर्ल्ड, मि. युनिवर्स जैसे मेल्स) को देखने के लिए बेचैन हो रही हैं? क्या आपकी त्वचा किसी खास स्पर्श के लिए तरस रही है? क्या आपकी बाहें किसी का आलिंगन करने के लिए ललक रही हैं? क्या आपका मन उड़ा-उड़ा जा रहा है? क्या आपके पैर बेमतलब ही भटकने को मचल रहे हैं? यदि हाँ तो समझिये कि आप पर फागुनी हवा का असर हो गया है। यदि नहीं तो यह निश्चित है कि आप प्रकृति के अनमोल उपहारों के योग्य नहीं हैं। आपने अपने दरवाज़े पर कुदरत के लिए ‘नोएंट्री’ का बोर्ड लगा लिया है। आप अपने आप से ही अजनबी बन गए हैं। आपने खुदको बहुत ही छोटे से दायरे में क़ैद कर लिया है।

वसन्त के पीछे-पीछे आए फागुन ने आपके दरवाजे पर दस्तक तो दी थी, पर आप ही समझ नहीं पाए। कुछ ही दिनों बाद, ऋतुराज वसन्त और मधुमास फागुन के रस – रंगभरा त्योहार होली है। अब भी थोड़ा समय है कि आप अपने लिए थोड़ा सा समय निकालें और प्रकृति के साथ कुछ देर टहलें। अपने दिलो-दिमाग़ के सारे दरवाज़े खोल दें और फिर देखें कि कुदरत ने अपने अद्भुत खजाने में आपके आनन्द के लिए क्या-क्या भर रक्खा है!

मित्रो! आनन्द, उमंग, उत्साह, उल्लास, स्नेह, प्यार और हँसी-ठिठोली का पर्व होली अपनी सांस्कृतिक विरासत का अनुपम त्योहार है। पूरे विश्व में ऐसा कोई दूसरा पर्व नहीं है, जो आपको किसी के भी प्रति अपने मन की भड़ास निकाल कर, उसे गले लगाने का, आपको उसके रंग में और उसे अपने रंग में रंगने का अवसर प्रदान करता हो; शराब के सड़ेले नशे के बजाय भंग संग बादाम-पिस्ते-पोस्ते-गुलकन्द से बनी ठण्डाई की ‘कूल-कूल’ तरंगों में बहने-बहकने की प्रेरणा देता हो; वैर-भाव को नष्ट कर, प्रेम दीवाना बना देता हो। हमारे हाथों से यह धरोहर आपके हाथों में है। अब यह आप पर है कि आप इसे किस रूप में, कितनी दूर तक ले जा सकते हैं।

 

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