संविधान की नेपाल में बम-बम

● श्याम सुंदर भाटिया
नेपाल में अंततः नकारात्मक सियासत हार गई, संविधान जीत गया। वहां की शीर्ष अदालत के संसद बहाली के सुप्रीम आदेश के बाद लोकतंत्र मुस्करा उठा है। नेपाल की बड़ी अदालत ने प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को बड़ा झटका देते हुए प्रतिनिधि सभा को फिर से बहाल कर दिया है। मुख्य न्यायाधीश चोलेंद्र शमशेर जेबीआर के नेतृत्व में पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने ओली के फैसले को असंवैधानिक करार देते हुए सरकार को अगले 13 दिनों के भीतर सदन सत्र बुलाने का भी आदेश दिया है। नेपाली सुप्रीम कोर्ट ने 20 दिसंबर, 2020 को संसद भंग होने के बाद प्रधानमंत्री केपी ओली के विभिन्न संवैधानिक निकायों में की गई सभी नियुक्तियों को रद्द कर दिया है। इसके अलावा कोर्ट ने उस अध्यादेश को भी रद्द कर दिया है, जिसे ओली ने इन नियुक्तियों के लिए पारित किया था। दरअसल किसी भी संवैधानिक निकाय में नियुक्ति करने के लिए एक बैठक होती है, जिसे बाइपास करने के लिए ओली ने यह अध्यादेश पारित किया था। 20 दिसंबर, 2020 को राष्ट्रपति विद्या देव भंडारी ने प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की सिफारिश पर संसद को भंग करके चुनावों की तरीखों का भी ऐलान कर दिया था। ओली के इस तानाशाही फैसले के विरोध में सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्य सचेतक देव प्रसाद गुरुंग सहित 13 रिट याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की थीं। इन सभी याचिकाओं ने नेपाली संसद के निचले सदन की बहाली की मांग की गई थी। इन्हीं याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए नेपाली सुप्रीम कोर्ट ने यह ऐतिहासिक फैसला सुनाया। संसद भंग किए जाने के बाद से सबकी नजर सुप्रीम कोर्ट पर टिकी थी। ओली को अब संसद में बहुमत सिद्ध करना होगा, लेकिन अब उनके पास बहुमत नहीं है। यदि वह बहुमत साबित नहीं कर पाए तो उन्हें इस्तीफा देना होगा। नेपाल का अगला प्रधानमंत्री कौन होगा, यह सुप्रीम कोर्ट की ओर से तय समय में पता चल जाएगा अन्यथा नेपाल को नए चुनाव का सामना करना होगा।

नेपाल में प्रतिनिधि सभा और राष्ट्रीय सभा दो सदन हैं। सरकार बनाने के प्रतिनिधि सभा में बहुमत जरुरी होता है। प्रतिनिधि सभा के 275 में से 170 सदस्य सत्तारुढ़ एनसीपी- नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के पास हैं। नेपाल में 2015 में नया संविधान बना था। 2017 में अस्तित्व में आई संसद का कार्यकाल 2022 तक का था। 2018 में ओली के नेतृत्व वाली सीपीएन -यूएमएल और पुष्प कमल दहल प्रचंड के नेतृत्व वाली सीपीएन (माओवादी केंद्रित) का विलय होकर नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी -एनसीपी का गठन हुआ था। विलय के समय तय हुआ था, ढाई वर्ष ओली पीएम रहेंगे तो ढाई वर्ष प्रचंड पीएम रहेंगे। प्रचंड चाहते थे, एक पद-एक व्यक्ति के सिद्धांत पर एनपीसी को चलाया जाए, इसीलिए प्रचंड ओली पर पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ने का दबाव डालते रहे, लेकिन ओली टस से मस नहीं हुए थे। इसके उलट जब प्रचंड को पीएम का पद सौंपने का वक्त आया तो उन्होंने संसद भंग करने की सिफारिश कर दी थी। उल्लेखनीय है, 44 सदस्यों वाली स्टैंडिंग कमेटी में भी ओली अल्पमत में थे। प्रचंड के पास 17, ओली के पास 14 और नेपाल के साथ 13 सदस्य हैं। प्रतिनिधि सभा भंग करने से पूर्व भी दिलचस्प सियासी कहानी है। एनसीपी के असंतुष्ट प्रचंड गुट ने 20 दिसंबर की सुबह पीएम ओली के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पत्र का नोटिस दिया था। प्रचंड खेमे ने राष्ट्रपति से विशेष सत्र बुलाने का आग्रह भी किया था, लेकिन ओली समर्थकों को इसकी भनक लग गई थी। साथ ही साथ ओली अपने खिलाफ राजशाही वापसी को लेकर देश में हो रहे धरने और प्रदर्शन से भी खासे तनाव में थे। नतीजन प्रधानमंत्री ओली ने आनन-फानन में संसद भंग करने की सिफारिश कर दी थी। बताते हैं, इस अविश्वास प्रस्ताव को प्रचंड खेमे के मंत्रियों और 50 सांसदों का समर्थन प्राप्त था।

भारत और नेपाल कोई नए नवेले दोस्त नहीं हैं। सदियों से दोनों देशों के बीच बेटी-रोटी का रिश्ता है और रहेगा। नेपाल हमेशा भारत को बिग ब्रदर मानता रहा है, लेकिन कोविड के दौरान नेपाल के प्रधानमंत्री ओली की बोली जहरीली ही रही तो रीति और नीति भी एकदम जुदा रही। ओली अपने आका ड्रैगन के इशारे पर साम, दाम, दंड और भेद की नीति का अंधभक्त की मानिंद अनुसरण करते रहे। भारत को उकसाने, उस पर सांस्कृतिक हमले और सम्प्रभुता से छेड़छाड़ करने में नेपाल ने ओली के वक्त कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। ऐसा करके भारत के संग-संग नेपाल की अवाम और विरोधी नेताओं के बार-बार निशाने पर ओली रहे थे। ओली की सरकार ने भारत के तीन अटूट हिस्सों -कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा को नेपाल का बताया था। यह ही नहीं, भारत के प्रबल विरोध के बावजूद नेपाल की संसद में इस विवादित नक़्शे में संशोधन का प्रस्ताव भी पारित कर दिया था। भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया नेपाल के इस बगावती रुख के पीछे चीन की हिमाकत को मानती रही है। ओली ने यह भी दावा किया था, भगवान राम नेपाल में जन्मे थे, इसीलिए भगवान राम भारतीय नहीं बल्कि नेपाली हैं। वह यह कहना भी नहीं चूके थे, असली अयोध्या भारत में नहीं, नेपाल में है। बावजूद इसके भारत अपने फर्ज से नहीं डिगा और डिगेगा। वह हमेशा परिपक्वता का परिचय देते हुए बड़े भाई की भूमिका निभा रहा है। इसमें कोई शक नहीं, नेपाली डेमोक्रेसी फिर कड़े इम्तिहान से गुजर रही है। संत कबीर दास ने ठीक ही कहा था, बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होए… सरीखा कथन मौजूदा वक्त में नेपाल के प्रधानमंत्री श्री केपी शर्मा ओली पर शत-प्रतिशत चरितार्थ हो रहा है।

काठमांडू के वरिष्ठ पत्रकार श्री युवराज घिमिरे कहते हैं, अब ओली के पास दो विकल्प हैं। या तो वे ख़ुद कुर्सी छोड़ें या संसद में अविश्वास प्रस्ताव का सामना करें। यह फ़ैसला नेपाल की स्वतंत्र न्यायपालिका के हक़ में है, लेकिन इससे कोई समाधान नहीं निकलने जा रहा है। अभी नेपाल राजनीतिक अस्थिरता के दौर में रहेगा। अब या तो कोई नई सरकार बनेगी या फिर से संसद भंग कर चुनाव में जाना होगा। नेपाली अख़बार नया पत्रिका के संपादक भी उमेश चौहान कहते हैं, सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला नेपाल के लोकतंत्र के भविष्य की उम्मीद और अपेक्षा की जीत है। श्री चौहान कहते हैं, यह बहुत ही साहसिक फ़ैसला है। यह उन तानाशाहों के लिए संदेश है जो जनमत की उपेक्षा कर मनमानी करने की मंशा रखते हैं। यह किसी व्यक्ति की जीत और हार का फ़ैसला नहीं है, लेकिन नेपाल के लोकतंत्र के हक़ में है। श्री चौहान कहते हैं, अब नेपाल में फिर से कोई सरकार बनने की पूरी उम्मीद है। नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी में प्रचंड बनाम ओली की दूरी कम हो सकती है और दोनों खेमा मिलकर कोई नया नेता चुन सकते हैं। या तो फिर कांग्रेस के समर्थन से कोई सरकार बन सकती है। नेपाल की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने भी सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का स्वागत किया है। नेपाली कांग्रेस ने अपने बयान में कहा है, जब पीएम ओली ने संसद को भंग किया था तभी हमने इस फ़ैसले को असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक कहा था। सुप्रीम कोर्ट ने भी हमारी बात पर मुहर लगा दी है। भारत में नेपाल के राजदूत रहे श्री लोकराज बराल कहते हैं, सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला संविधान की जीत है।

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