मेरी ज़ड़ों को काट छाँट के,
मुछे बौना बना दिया,
अपनी ख़ुशी और
सजावट के लिये मुझे,
कमरे में रख दिया।
मेरा भी हक था,
किसी बाग़ मे रहूँ,
ऊँचा उठू ,
और फल फूल से लदूँ।
फल फूल तो अब भी लगेंगे,
मगर मै घुटूगाँ यहीं तुम्हारी,
सजावट के शौक के लिये,
जिसको तुमने कला का
नाम भी दे दिया।
क्यों करते हो खिलवाड़,
हम अभी भी ज़िन्दा हैं,
घर के कि सी कोने में ,
मेज़पर पर पड़े हुए!
हर आने जाने वाला,
तारीफ तुमहारी ही करता है,
कितने जतन से तुमने ,
हमे संजोया है!
पर आज तक किसी को
ना हमारा दर्द दिखा है
हमें बौना बनाके,
तुम कलाकार बन गये,
और हम एक कोने पड़े,
फिर भी फूलों से लद गये।
बोन्साई
पेड़ों को गहरी धरती चाहिए होती है ; पेड़ों को प्रशस्त आकाश चाहिए
आज के संपन्न, सभ्य आदमी के पास न धरती है, न आकाश
पर पेड़ उसे चाहिए।
वह पेड़ को बोन्साई बना लेता है गमलों में पेड़ उगाए जाते हैं
पेड़ बौना हो जाता है, पर पूर्ण रूप से उपयोगी रहता है;
बिना धरती के, बिना सम्भावनाओं की भूख के ।
चतुर आदमी अपनी सन्तान को बोन्साई बना लेता है ।