पुस्‍तक समीक्षा/‘बुद्धिजीवियों’ की मुश्किल

पूरन चंद जोशी की नयी किताब ‘यादों से रची यात्रा’ किसी उपन्यास की तरह एक सांस में पढ़ गया। सभ्यता के भविष्य को लेकर गहरे सात्विक आवेग से भरी यह एक बेहद विचारोत्तेजक किताब है। मनुष्यता का भविष्य समाजवाद में है, इसमें उन्हें कोई शक नहीं है। पूंजीवाद उन्हें कत्तई काम्य नहीं है। ‘समाजवाद या बर्बरता’ के सत्य को वे पूरे मन से स्वीकारते हैं। वे समाज में समता चाहते हैं और साथ ही मूलभूत मानवतावादी मूल्यों की भी प्राणपण से रक्षा करना चाहते हैं। समाजवाद और मानव–अधिकारों में कोई अन्तर्विरोध नहीं, बनिश्बत एक दूसरे के पूरक है, इसीलिये दोनों के एक साथ निर्वाह को ही स्वाभाविक भी मानते हैं। सभ्यता का रास्ता समाजवाद की ओर जाता है, इसमें उनका पूरा विश्वास है। ‘इतिहास का अंतिम पड़ाव’ होने के दावे के साथ अमेरिका की धरती से जो उदार जनतंत्र के झंडाबरदार निकलें, उनका तो दो कदम चलते ही दम फूलने लगा है। यह उदार जनतंत्र कुछ जरूरी प्रश्नों को उठाने के बावजूद पूंजीवाद के क्षितिज के बाहर सोचने में असमर्थ है और इसीलिये सभ्यता की मूलभूत समस्याओं का समाधान नहीं दे सकता, इसे वे भलीभांति समझते हैं।

त्रासदी यह है कि समाजवाद भी अपने प्रयोग की पहली भूमि पर विफल हो गया। रूस की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक पार्टी) के नेतृत्व में वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा के आधार पर रूस में जिस समाजवाद की स्थापना हुई, वह ‘अर्थनीतिशास्त्र’ और मानवतावाद की कई कसौटियों पर खरा न उतर पाने के कारण टिक नहीं पाया, नाना प्रकार की विकृतियों का शिकार हुआ। और, इसमें सबसे बड़ी परेशानी का सबब यह है कि सोवियत संघ में पनपने वाली विकृतियों को समय रहते पहचानने में बुद्धिजीवियों का एक खास, माक्र्सवाद की वैज्ञानिक विचारधारा से लैस कम्युनिस्ट तबका क्यों बुरी तरह चूक गया? माक्र्सवादी बुद्धिजीवियों की इस कमी का कारण क्या था और इससे उबरने का उपाय क्या हो सकता है, श्री जोशी की पुस्तक की बेचैनी का सबसे प्रमुख विषय यही है। अपनी इसी तलाश को वे ‘विकल्प की तलाश’ कहते हैं।

जोशीजी ने इस सिलसिले में खास तौर पर हिंदी के मार्क्‍सवादी लेखकों और बुद्धिजीवियों को, जिन्हें सोवियत जमाने में रूस जाने और वहां रहने तक के अवसर मिले, अनेक प्रश्नों से बींधा है और साथ ही जिन चंद लोगों ने अपनी अंतर्दृष्टि का परिचय देते हुए सोवियत समाज में पनप रही विद्रूपताओं को देखा, अपने परिचय के ऐसे कम्युनिस्ट और गैर–कम्युनिस्ट लोगों के अनुभवों का जीवंत चित्र खींचते हुए उनकी भरपूर सराहना भी की है।

तथापि, यह भी साफ जाहिर है कि समाजवाद पर आस्था के बावजूद श्री जोशी कम्युनिस्ट नहीं है। वे मूलत: एक मानवतावादी है। कम्युनिस्ट वर्ग संघर्ष को इतिहास की चालिका शक्ति मानते हैं। कम्युनिस्टों के लिये वर्ग संघर्ष इतिहास का एक अन्तर्निहित नियम होने के बावजूद सर्वहारा के वर्ग संघर्ष का अर्थ इस सत्य के आगे की चीज है। वह कोई ऐतिहासिक परिघटना अथवा इतिहास का ब्यौरा भर नहीं है। यह ऐसा वर्ग संघर्ष है जिसका लक्ष्य वर्ग संघर्ष का ही अंत और एक ऐसी समाज–व्यवस्था का उदय है जो किसी भी प्रकार के शोषण को नहीं जानती। वे सर्वहारा क्रांति से निर्मित उत्पीड़कों और उत्पीडि़तों से रहित समाज–व्यवस्था में ही मनुष्य की गरिमा देखते है। आर्थिक परनिर्भरता मानव गरिमा के विरुद्ध है और इसीलिये माक्र्स की शब्दावली में ‘आर्थिक ताकतों की अंधशक्ति’ को तोड़ कर वे ऐसी उच्चतर शक्ति को समाज का नियामक बनाना चाहते हैं जो मानव गरिमा के अनुरूप हो। जबकि मानवतावादी जोशीजी के लिये वर्ग संघर्ष नहीं, मनुष्य की मुक्ति और गरिमा का रास्ता सभ्यता द्वारा अर्जित कुछ सार्वदेशिक मानव मूल्यों के संचय का, भारत में गांधी और नेहरू का समन्वयवाद का रास्ता है।

समाजवाद की स्थापना के मामले में कम्युनिस्ट किसी ऐतिहासिक नियतिवाद पर विश्वास नहीं करते। वे यह मानते हैं कि समाजवाद सभ्यता के इतिहास की एक अनिवार्यता होने पर भी अपने आप अवतरित होने वाली सच्चाई नहीं है। इसे लाने के लिये मजदूर वर्ग के नेतृत्व में समाजवादी क्रांति जरूरी है। कम्युनिस्ट पार्टी इसी मजदूर वर्ग के सबसे सचेत हिस्से, इसके हरावल दस्ते का प्रतिनिधित्व करती है, क्रांति के लिये जरूरी सम्यक रणनीति और कार्यनीति को निर्धारित करती है। इसीलिये पार्टी की अधीनता, उसका अनुशासन किसी भी कम्युनिस्ट की मजबूरी नहीं, उसका आत्म–चयन है।

कम्युनिस्ट पार्टी, उसका समूचा ढांचा, उसका अनुशासन और खास तौर पर ‘बुद्धिजीवियों’ द्वारा स्वीकार ली जाने वाली उसकी अधीनता – यही वे बिंदु है, जो जोशी जी की इस पुस्तक की सारी परेशानियों के मूल में है।

पाठकों को अपनी इन्हीं परेशानियों के घेरे में लेते हुए जोशी जी उन्हें अपने निजी अनुभवों और विचारों की एक लंबी ‘चित्ताकर्षक’ यात्रा पर ले चलते हैं। सोवियत संघ की यात्राओं के समृद्ध अनुभवों, सभ्यता के संकट के बरक्स समाजवादी विकल्प के पहले प्रयोग की भूमि के प्रति रवीन्द्रनाथ, बर्टेंड रसेल, जवाहरलाल नेहरू आदि की तरह के कई मनीषियों के आंतरिक आग्रह, विस्मय और संशय की रोशनी में सोवियत संघ के बारे में अपने जमाने में सामने आये ख्रुश्चेव–उद्घाटनों, बे्रजनेव काल के गतिरोध संबंधी तथ्यों का ब्यौरा देते हुए जोशी जी कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों पर अनेक सवालों की बौछार करते हैं कि आखिर किस गरज से उन्होंने समाजवाद के इस पहले प्रयोग के अंदर की कमजोरियों और विकृतियों को देख कर भी नहीं देखा; क्यों समाजवाद की विकृतियों की निर्मम आलोचना करने का अपना ‘बौद्धिक धर्म’ निभाने के बजाय उन विकृतियों के लिये ही लगभग बचकाने प्रकार के तर्कों को जुटाते रहे?

उनका निष्कर्ष यह है कि बुद्धिजीवियों की ऐसी दुर्दशा और किसी वजह से नहीं, कम्युनिस्ट पार्टी की अधीनता को स्वीकारने की वजह से हुई। धूर्जटि प्रसाद मुखर्जी के हवाले से कहते हैं : क्या बुद्धिजीवी के राजनीति में प्रवेश और हस्तक्षेप की यह जरूरी शर्त है कि वह किसी राजनैतिक पार्टी का सदस्य बने और उसका अनुशासन स्वीकार करे। ऐसा भी तो संभव है कि वह सदस्य न बने या उसके अनुशासन में न बंध कर भी उसके बुनियादी सिद्धांतों को ही नहीं उसके कार्यक्रम और नीतियों को स्वीकार करे।

अनुभव बताता है कि पार्टीबद्ध, अनुशासनबद्ध बुद्धिजीवी अंत में एक स्वतंत्र बुद्धिजीवी नहीं पार्टी का प्रवचनकार और व्याख्याता बन कर बुद्धिजीवी के रूप में समाप्त हो जाता है। कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और उसका अनुशसान तो और भी कठोर है, जो बुद्धिजीवी को स्वतंत्र चिंतन की दिशा में नहीं, कम्प्लायेंस और कन्फॉर्मिटी और अंत में ‘सबमिशन’ के रास्ते पर धकेलता है।

आज की तमाम परिस्थितियों में जोशी जी के इस कथन ने कितने ‘स्वतंत्रजनों’ को गदगद किया होगा, इसे आसानी से समझा जा सकता है। कोलकाता से निकलने वाली पत्रिका ‘वागर्थ’ ने तो अपने ताजा अंक के द्वितीय मुखपृष्ठ पर इस उद्धरण को किसी आप्तकथन की तरह प्रकाशित किया है।

इस बारे में जोशी जी से हमारा एक छोटा सा अनुरोध है कि वे सिर्फ यह बतायें कि एक शोषण–विहीन समाज की स्थापना के लिये कम्युनिस्ट पार्टी की जरूरत भी है या नहीं? इसी एक प्रश्न के जवाब से स्वत: बाकी सारे सवालों का जवाब मिल जायेगा। ध्यान देने की बात है कि अपनी इसी पुस्तक में उन्होंने ऐतिहासिक नियतिवाद की तरह के किसी भी विचार से खुद को सचेत रूप में अलग किया है।

जहां तक कम्युनिस्ट पार्टी के सांगठनिक ढांचे, समय–समय पर तय होने वाली उसकी कार्यनीतियों का सवाल है, वे किसी ईश्वरीय विधान से तय नहीं हुए हैं; यह एक लगातार विकासमान प्रक्रिया है; और इसीलिये बहस और विवादों से परे नहीं है।

और जहां तक इतिहास की गति को पकड़ने में बुद्धिजीवियों की असमर्थता का सवाल है, इसका ठेका अकेले कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों ने ही नहीं ले रखा है। बौद्धिक कर्म का पूरा इतिहास ऐसी तमाम कमजोरियों, भूलों और असंख्य मूर्खताओं से ही तो पटा हुआ है! इतिहास और वर्तमान, दोनों में ही किसे ग्रहण करे और किसे त्यागे, इसकी स्वतंत्रता सबके पास है और सभी अपनी–अपनी जरूरतों और प्राथमिकताओं (सही कहे तो अपने स्वार्थों) के अनुरूप यह काम करते रहते हैं। देखने की बात यह है कि किसका स्वार्थ किस बात से जुड़ा है?

इस संदर्भ में ‘पूंजी’ के पहले खंड की भूमिका में माक्र्स की यह बेहद सारगर्भित टिप्पणी देखने लायक है, जिसमें जर्मन अर्थशास्त्रियों की विडंबनां का चित्र खींचते हुए वे कहते हैं: जिस समय ये लोग राजनीतिक अर्थशास्त्र का वस्तुगत अध्ययन कर सकते थे, उस समय जर्मनी में आधुनिक आर्थिक परिस्थितियां वास्तव में मौजूद नहीं थीं। और जब ये परिस्थितियां वहां पैदा हुईं, तो हालत ऐसी थी कि पूंजीवादी क्षितिज की सीमाओं में रहते हुए उनकी वास्तविक ओर निष्पक्ष छानबीन करना असंभव होगया। जिस हद तक राजनीतिक अर्थशास्त्र इस क्षितिज की सीमाओं के भीतर रहता है, अर्थात् जिस हद तक पूंजीवादी व्यवस्था को सामाजिक उत्पादन के विकास की एक अस्थायी ऐतिहासिक मंजिल नहीं, बल्कि उसका एकदम अंतिम रूप समझा जाता है, उस हद तक राजनीतिक अर्थशास्त्र केवल उसी समय तक विज्ञान बना रह सकता है, जब तक कि वर्ग–संघर्ष सुषुप्तावस्था में है या जब तक कि वह केवल इक्की–दुक्की और अलग–अलग परिघटनाओं के रूप में प्रकट होता है।

फ्रांस और इंगलैंड में बुर्जुआ वर्ग ने राजनीतिक सत्ता पर अधिकार कर लिया था। उस समय से ही वर्ग–संघर्ष व्यावहारिक तथा सैद्धांतिक दोनों दृष्टियों से अधिकाधिक बेलाग और डरावना रूप धारण करता गया। इसने वैज्ञानिक बुर्जुआ अर्थशास्त्र की मौत की घंटी बजा दी। उस वक्त से ही सवाल यह नहीं रह गया कि अमुक प्रमेय सही है या नहीं, बल्कि सवाल यह हो गया कि वह पूंजी के लिए हितकर है या हानिकारक, उपयोगी है या अनुपयोगी, राजनीतिक दृष्टि से खतरनाक है या नहीं। निष्पक्ष छानबीन करने वालों की जगह किराये के पहलवानों ने ले ली; सच्ची वैज्ञानिक खोज का स्थान दुर्भावना तथा पक्षमंडन के कुत्सित इरादे ने ग्रहण कर लिया।

…जर्मनी में उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली उस वक्त सामने आयी, जब उसका विरोधी स्वरूप इंगलैंड और फ्रांस में वर्गों के भीषण संघर्ष में अपने को पहले ही प्रकट कर चुका था। इसके अलावा इसी बीच जर्मन सर्वहारा वर्ग ने जर्मन बुर्जु‍आ वर्ग की अपेक्षा कहीं अधिक स्पष्ट वर्ग–चेतना प्राप्त कर ली थी। इस प्रकार, जब आखिर वह घड़ी आयी कि जर्मनी में राजनीतिक अर्थशास्त्र का बुर्जु‍आ विज्ञान संभव प्रतीत हुआ, ठीक उसी समय वह वास्तव में फिर असंभव हो गया।

-अरुण माहेश्वरी

1 COMMENT

  1. Capitalism and Socialism CREATE enemies and are based on HATE. They set and escalate a perpetual hate cycle. Action-Reaction-reaction to raction— goes on and on —continue for ever. That is why Reactionary methods never find, long term peaceful solutions. SEE HISTORY OF USSR.
    The writer has not read or mentioned “Integral Humanism” of Upadhyay. He would have benifitted immensely by READING integaral Humanism. That is 3rd way a unique contribution of India and Deendayalji Upadhyay.

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