विवेक सक्सेना
समय सचमुच में बहुत बलवान होता है। मजबूत से मजबूत इंसान को ये ऐसे दिन दिखा देता है जिसकी उसने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की होती हैं। अपने नेताजी मुलायम सिंह यादव को ही ले लीजिए। आज कल वे परिवार में चल रही राजनीतिक उत्तराधिकार की लड़ाई से बेहद दुखी है। पूरा परिवार दो खेमों और दो बेटो के बीच बंट गया है। एक ओर बड़ा बेटा अखिलेश यादव व उसके चचेरे चाचा रामगोपाल यादव है तो दूसरी ओर छोटा बेटा प्रतीक यादव, छोटे चाचा शिवपाल यादव हैं। जहां एक ओर अखिलेश-रामगोपाल गुट अमर सिंह का कट्टर विरोधी रहा है वहीं प्रतीक व शिवपाल यादव उनके समर्थकों में गिने जाते हैं।
मुलायम परिवार में हाल के दिनों में जो कुछ घटा है उसने शनि शिंगनापुर मंदिर में महिलाओं को प्रवेश की जंग जीतने वाली कृतिका देसाई की याद ताजा करवा दी है। महिला आरक्षण बिल के कट्टर विरोधी और संसद में उसे पारित करवाने के सबसे ज्यादा रोड़े अटकाने वाले मुलायम सिंह यादव को इस मामले में अपने घर में ही मात खानी पड़ी है। उन्हें न चाहते हुए अपनी छोटी बहू व प्रतीक की पत्नी अपर्णा यादव को न चाहते हुए भी लखनऊ (छावनी) से उम्मीदवार घोषित करना पड़ा है। हालांकि वे वहां से जीत पाएगी या नहीं यह एक यक्ष प्रश्न है क्योंकि इस सीट से कांग्रेस की रीता बहुगुणा जोशी विधायक हैं जिनकी वहां अच्छी पकड़ बतायी जाती है और वे अपने इलाके में काफी लोकप्रिय रही है। हालांकि वहीं कुछ लोगों का यह भी कहना है कि नेताजी कांग्रेस व उनके साथ मधुर संबंधों के चलते इस सीट से उनकी जीत सुनिश्चित करते आए हैं।
अगर हम अपना इतिहास उठा कर देखें तो पता चलेगा कि जब कोई महाशक्तिवान हो जाता है तो उसे असली चुनौती व खतरा अपने ही परिवार से पैदा होता है। इंदिरा गांधी को मेनका गांधी ने चुनौती दी। बेनजीर भुट्टो को उनकी मां व भाई ने चुनौती दी। रावण के लिए विभीषण व प्रमोद महाजन के लिए उनका अपना छोटा भाई जानलेवा साबित हुए और तो और राजा दशरथ के घर की बरबादी में उनकी अपनी छोटी पत्नी कैकेयी की अहम भूमिका रही।
वैसे बताते हैं कि कैकेयी उनकी जाति व कुल की नहीं थी। वह काकेशस (अविभाजित रुस) की रहने वाली थी और उसने अपने पुत्र को राजा बनाने के लिए जो कुछ किया वह सबके सामने हैं। हालांकि भगवान राम और मुलायम सिंह का छत्तीस का आंकड़ा रहा। उन्होंने तो बाबरी मस्जिद को बचाने के लिए कार सेवकों की लाशें बिछवा दी थी फिर भी इसे समय का ही फेर कहा जाएगा कि जिन हालात का कभी दशरथ ने सामना किया वही हालत उन्हें देखने पड़ रहे हैं।
हालांकि इस पहलवान ने राजनीति के अखाड़े में अच्छे-अच्छो को चित कर डाला पर सपा के ही नेताओं का मानना है कि उन्हें अब अपने ही परिवार के अंदर चुनौती मिलती दिख रही है। बड़े बेटे अखिलेश का राज्यभिषेक कर देने के बावजूद छोटे बेटे प्रतीक को लगता है कि उसका हक मारा जा रहा है और वह चुप बैठने के लिए तैयार नहीं है। खासतौर से अपनी उत्साही और महत्वकांक्षी पत्नी के कहने पर चल रहे हैं जिससे इस परिवार की दिक्कतें बढ़ना स्वभाविक है।
समाजवादी नेता मुलायम सिंह की एक खासियत यह है कि वे अपनों की हर तरह से मदद करते हैं। उनकी पहली पत्नी मालती से उनका बड़ा बेटा अखिलेश है जो कि मुख्यमंत्री हैं। अखिलेश का जन्म 1973 में हुआ था। अखिलेश की मां का 2003 में निधन हो गया। लोग बताते हैं कि पत्नी के न रहने के बाद नेताजी खुद को बेहद अकेला महसूस करने लगे इसलिए उन्होंने साधना गुप्ता से विवाह कर लिया। उनसे उन्हें 1988 में दूसरा पुत्र प्रतीक हुआ। इस मामले में वर्ष और तारीखों को लेकर तमाम मत भिन्नताएं हैं। सपा के वरिष्ठतम नेता भी यह बता पाने में असफल रहे कि दूसरा विवाह कब व कैसे हुआ?
इतना स्पष्ट है कि पहली पत्नी 2003 तक जीवित थी व प्रतीक 1988 में पैदा हुआ। पूरा मामला रहस्य, रोमांच और किवंदतियों से भरपूर हैं। पहली बार अधिकारिक रुप से लोगों को साधना गुप्ता के उनकी पत्नी होने का तब पता चला जब कि आय के ज्ञात स्त्रोतों से ज्यादा संपत्ति के मामले में मुलायम सिंह यादव ने फरवरी 2007 में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर उन्हें अपनी पत्नी बताया।
पता नहीं कि ठाकुर अमरसिंह से मुलायम सिंह के रिश्तों का असर था या कुछ और दोनों ही बेटों ने पहाड़ की ठाकुर लड़कियों को अपनी पत्नी बनाना पसंद किया। अखिलेश की पत्नी डिंपल उनके साथ सैनिक सकूल में पढ़ती थी और वे कर्नल रावत की बेटी है। जबकि अपर्णा के पिता अरविंदर सिंह बिष्ट पत्रकार हैं। अपर्णा भी प्रतीक के बचपन की दोस्त है। मैनचेस्टर यूनीवर्सटी से अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में डिग्री हासिल करने वाली राजनीतिक परिवार की बहू भला राजनीति से दूर कैसे रह सकती थी? बताते हैं कि पहले उसने जिम का शौक रखने वाले अपने पति प्रतीक यादव को राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया। उनके समर्थकों ने 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हें आजमगढ़ से टिकट दिए जाने की मांग को लेकर प्रदर्शन किया। हालांकि इस सीट से मुलायम सिंह यादव खुद चुनाव लड़े और जीते।
बहू काफी तेज है। उसकी समझ में आया है कि दबाव की राजनीति किए बिना काम नहीं बनेगा। भातखंडे संगीत महाविद्यालय में शास्त्रीय संगीत सीख चुकी यह बहू हर्ष फाउंडेशन नाम के एनजीओ से जुड़ी हुई है। उसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छता अभियान की तारीफ की। जब प्रधानमंत्री उत्तरप्रदेश के दौरे पर आए तो उनके साथ अपनी सेल्फी खिंचवायी। नरेंद्र मोदी ने भी उसके विचारों को अपनी साइट पर डाला। उसने मुलायम सिंह के करीबी आमिर खान को हाल के विवादास्पद बयान की जमकर आलोचना की। गोहत्या पर कड़ी पाबंदी लगाए जाने की मांग की।
जब मंहत अवैद्यनाथ का निधन हुआ तो गोरखपुर जाकर योगी आदित्यनाथ से मुलाकात की। जब किसी ने मोदी की तारीफ करने के बारे में पूछा तो छूटते ही कह दिया कि यह तो मेरे दिल से निकले उदगार है। मैंने यह कहते समय अपने दिमाग का नहीं बल्कि दिल का इस्तेमाल किया है। शायद यह सब बातें ससुरजी को यह संकेत देने के लिए काफी थी कि घर में ‘वीर तुम बढ़े चलो, सामने पहाड़ हो, सिंह की ललकार हो,’ शुरु हो गया। इसलिए उन्होंने उसे उत्तरप्रदेश से विधानसभा का चुनाव लड़वाने का फैसला कर लिया। वैसे भी दूसरी पत्नी का दबाव था। जब बड़ी बहू सांसद हो तो छोटी विधायक भी न बने यह कैसे हो सकता है। बताते हैं कि अमर सिंह ने भी साधना गुप्ता से मुलायम सिंह यादव की शादी करवाने में अहम भूमिका अदा की थी और दोनों ठाकुर बहुओं को घर में लाने के लिए उन्होंने ही तमाम बाधाएं दूर करने में अहम भूमिका अदा की थी।
इस समय छोटी बहू, प्रतीक व शिवपाल यादव एक खेमे में हैं तो रामगोपाल-अखिलेश यादव दूसरे खेमे में हैं। असली दिक्कत तो मुलायम सिंह यादव की है। जब उन्होंने अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया था तो बताते हैं कि शिवपाल ने उनसे पूछा था कि जिसे हमने अपनी गोद में खिलाया वह हमसे बड़ा कैसे हो सकता है? एक तरह नेताजी का बड़ा बेटा है तो दूसरी तरफ उनकी बुढ़ापे की औलाद है। बुढ़ापे की औलाद कितनी प्यारी होती है यह उनके मित्र नारायण दत्त तिवारी साबित कर ही चुके हैं।