पिछले पांच वर्षों से वर्षा में अत्यधिक कमी के कारण समूचा बुंदेलखंड अकाल की चपेट में है। नदी, तालाब, नलकूप सभी सूख चुके हैं। भुखमरी से मौतें हो रही हैं। लोग खेत-खलिहान, पशु-पक्षी छोड़कर रोजी-रोटी की तलाश में महानगरों की ओर पलायन कर रहे हैं। बुंदेलखंड में पहले भी स्थितियां जीवन के अनुकूल नहीं थी लेकिन स्थानीय लोग इन विपरीत परिस्थितियों को अपने जज्बे के बल पर अनुकूल बना लेते थे, और घर-द्वार, खेत-खलिहान छोड़कर जाने की नौबत नहीं आती थी।दरअसल सूखा, विदर्भ में हो या बुंदेलखंड में, बिना बुलाए मेहमान की भांति नहीं आता। धरातल के चट्टानी स्वरूप का होने के कारण बुंदेलखंड की धरती पानी को सोख नहीं पाती है। इसीलिए प्राचीनकाल से कुंए, तालाब यहां की पारंपरिक संस्कृति के अभिन्न अंग रहे हैं। लोग अपनी श्रमनि¬ठा से वर्षा की बूंदों को सहेजकर अपना जीवन चलाते थे। इन बूंदों से ही तालाब भरते थे, ”सिमट-सिमट जल भरहिं तलाबा।” ये तालाब सबकी मदद से बनते थे और सबके काम आते थे। लेकिन आधुनिक विकास का रथ जैसे-जैसे आगे बढा वैसे-वैसे पारंपरिक लोक संस्कृति छिन्न-भिन्न हो गई।
आजादी के समय बुंदेलखंड का एक-तिहाई भाग वनाच्छादित था लेकिन कृषि, उद्योग, परिवहन, व्यापार, नगरीकरण जैसी गतिविधियों के कारण जंगल कटते गए और पहाड़ियां-पठार नंगे होते गए। इससे अपरदन की प्रक्रिया को बढावा मिला और तालाबों में गाद जमा होनी शुरू हुई व उनकी जलग्रहण क्षमता प्रभावित हुई। आधुनिक भारत के नए तीर्थ (बांध) बनाने की प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर पेड़ काटे गए। बांध बनने के बाद नहरों की खुदाई की गई और नलकूप-हैंडपंप संस्कृति को बढावा मिला। इससे जलापूर्ति के बारहमासी साधनों (तालाब, कुएं) को अनुपयोगी मान लिया गया। शुरू में तो मशीनी साधनों ने मनु¬य और खेती की प्यास बुझाई लेकिन शीघ्र ही वे थक गए। दूसरी ओर परंपरागत संस्कृति के छिन्न-भिन्न होने से पानी की खपत में तेजी आई। इससे अकाल को निमंत्रण मिला।
हरित क्रांति से पहले बुंदेलखंड की प्रमुख फसलें बाजरा, कोदों, चना, मकई थीं। ये फसले कम पानी पीती थीं और वहां की भौगोलिक दशाओं के अनुकूल भी थीं। इसके साथ पशुपालन, मुर्गी-बकरी-भेड़ पालन आदि गतिविधियां भी चलती रहती थी। हरित क्रांति के दौर में बुंदेलखंड में भी आधुनिक खेती का पदार्पण हुआ। परंपरागत फसलों की जगह नयी फसलों को बढावा मिला। इन बाहरी फसलों को उगाने के लिए सिंचाई, रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग बढा। इस प्रकार बुंदेलखंड की परंपरागत खेती व्यवसाय का रूप लेने लगी। इससे जल, जंगल और जमीन पर दबाव बढा। रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों के असंतुलित और अनियंत्रित प्रयोग से पानी की मांग बढी। ज़ैसे-जैसे पानी की मांग बढी वैसे-वैसे भूमिगत जल का शो¬षण भी बढा। इससे बचा खुचा भूमिगत जल भी समाप्त हो गया।
आजादी के बाद जो विकास रणनीति अपनाई गई उसमें सामुदायिक जीवन की घोर उपेक्षा हुई। पुल बनाना हो या सड़क, नहर की खुदाई हो या तालाब की सफाई सभी कार्य सरकार पर छोड़ दिया गया। इससे समाज पंगु बन गया। बुंदेलखंड की सदियों पुरानी जल प्रबंधन प्रणाली भुला कर दी गई। पहले तालाब सबकी मदद से बनते थे और सबके काम आते थे लेकिन अब पानी देना सरकार का काम हो गया। अब पानी न मिलने पर लोग अपनी व समाज की जिम्मेदारी को भूलकर सड़क जाम करने, जिला मुख्यालयों, राज्य की राजधानी में प्रदर्शन करने और सांसदों-विधायकों का घेराव करने लगे। यहां तक कि पानी के लिए हिंसक झड़पे भी होने लगी।
वनोन्मूलन, खेती की आधुनिक पद्धति, विकास की संकीर्ण धारा के साथ-साथ नगरीकरण, बढती जनसंख्या, भोगवादी जीवन पद्धति, बदलता मौसम चक्र ने भी बुंदेलखंड में अकाल की तीव्रता को बढाया। इसका समाधान पलायन, विरोध प्रदर्शन, अरबों-खरबों के निवेश आदि न होकर जल संरक्षण में निहित है। भारत में वर्षा से प्रतिवर्ष 4000 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी गिरता है जिसमें से हम औसतन 600 बीसीएम पानी का ही इस्तेमाल कर पाते हैं, शे¬ष पानी बरबाद हो जाता है। इससे स्प¬ष्ट है कि देश में पानी की कमी नहीं अपितु अधिकता है। पानी की अधिकता के बाद भी कभी विदर्भ तो कभी बुंदेलखंड में अकाल की पदचाप सुनाई देती रहती है। इसका कारण है कि देश में जल के उपयोग की प्रभावी नीति नहीं बन पाई है। जल की विविधता की उपेक्षा करके उसके साथ समान व्यवहार किया जाने लगा। जल के मिट्टी व फसलों के साथ जो परंपरागत संबंध था उसकी अनदेखी की गई और रेगिस्तान में भी गेहूं उगाया जाने लगा।
वस्तुत: बुंदेलखंड में जल संकट हरे-भरे जंगलों, पहाड़ों और नदियों वाले इस क्षेत्र में हरियाली के विनाश तथा भूमिगत जल के बेलगाम दोहन से उत्पन्न हुआ है। अत: इसका समाधान जल प्रबंधन से ही होगा। हमें समाज को जगाकर परंपरागत संसाधनों (कुआं, तालाब और छोटे-छोटे बांधों) की ओर लौटना होगा। उन फसलों का विकल्प ढूंढना होगा जो अधिक पानी पीती हैं। बरसाती नदियों व नालों की गहराई बढे तथा 2-5 किमी की दूरी पर छोटे-छोटे बांध बनाकर पानी रोकने के उपाय किए जाएं। तरूण भारत संघ ने राजस्थान के अलवर क्षेत्र में सामुदायिक प्रयासों से जल संभरण का कार्य सफलतापूर्वक किया जा रहा है। हमें इससे सीख लेनी होगी।
लेखक- रमेश कुमार दुबे
(लेखक पर्यावरण एवं कृषि विषयों पर कई पत्र-पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कार्य कर रहे हैं)
this is right but govt need to finds its solution.
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Because they just need to solve water problem in the bundelkhand region and all thing will be managed.
Thanks & Regards
Pramod Rawat
Tikamgarh