‘अलगाववाद का पुलिंदा’ होगी वार्ताकारों की रिपोर्ट / पवन अरविंद

पवन कुमार अरविंद

कश्मीर मसले पर केंद्र सरकार के त्रि-सदस्यीय वार्ताकार पैनल की रिपोर्ट सितम्बर में आने की संभावना है। इस रिपोर्ट के राजनीतिक या कूटनीतिक निहितार्थ क्या होंगे, यह तो समय ही बताएगा; लेकिन पैनल में शामिल दिलीप पडगांवकर और प्रो. राधा कुमार की गतिविधियों और बयानों ने इस रिपोर्ट को आने से पूर्व ही विवादित बना दिया है। वार्ताकार पैनल के तीसरे सदस्य पूर्व सूचना आयुक्त एम.एम. अंसारी हैं।

अफजल संसद पर 13 दिसम्बर 2011 को हुए हमले का मास्टरमाइंड है। इस हमले में 5 आतंकियों और 6 सुरक्षाकर्मियों समेत 12 लोगों की मौत हो गई थी। अफजल की दया याचिका को नामंजूर करने की सिफारिश करने वाली फाइल को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राष्ट्रपति के पास भेज दिया है। इस बात की पुष्टि करते हुए गृह राज्यमंत्री एम. रामचंद्रन ने विगत दिनों राज्यसभा में बताया कि अफजल की दया याचिका से संबंधित फाइल को 27 जुलाई 2011 को राष्ट्रपति के सचिवालय को भेजा जा चुका है। इसके तत्काल बाद पडगांवकर ने कहा कि अफजल की फांसी के संदर्भ में केंद्र सरकार ने गलत समय पर निर्णय लिया है। इसका सीधा असर कश्मीर के शांतिपूर्ण माहौल पर पड़ेगा। जबकि वार्ताकार पैनल की अन्य सदस्य प्रो. कुमार ने कहा कि वे अपनी निजी राय में अफजल की फांसी की सजा से सहमत नहीं हैं। उनका मानना है अफजल को फांसी देने से कश्मीर पर पड़ने वाले असर को इतनी जल्दी समझना मुमकिन नहीं है। इसके लिए इंतजार करना होगा।

वहीं, पैनल के तीसरे सदस्य अंसारी ने पडगांवकर और प्रो. कुमार के बयानों को सिरे से खारिज कर दिया। उन्होंने साफ कहा कि अफजल की फांसी का कश्मीर मामले से कोई संबंध नहीं है। ये सीधे तौर पर आतंकवाद से जुड़ा मसला है। अंसारी के मुताबिक, इस तरह की घटनाएं देश के दूसरे हिस्सों में भी घट रही हैं। इन आतंकी घटनाओं को कश्मीर मसले से जोड़ा जाना कतई सही नहीं होगा। विदित हो कि अफजल जम्मू-कश्मीर के सोपोर का रहने वाला है।

हालांकि इससे पहले कश्मीरी अलगाववादी गुलाम नबी फई प्रकरण के प्रकाश में आने के बाद उसके निमंत्रण पर जाने वाले वार्ताकारों की काफी किरकिरी हो चुकी है। इस कारण त्रि-सदस्यीय पैनल की देश के प्रति निष्ठा भी संदिग्ध मानी जाने लगी है। फई वॉशिंगटन स्थित कश्मीरी अमेरिकन कौंसिल (केएसी) का प्रमुख है। वह 1990 से अमेरिका में रह रहा है। उसको कश्मीर मसले पर लाबिंग और पाकिस्तान सरकार व उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई के लिए काम करने के आरोप में एफबीआई ने 19 जुलाई को वर्जीनिया में गिरफ्तार किया था। फिलहाल अमेरिकी अदालत ने फई को गहन निगरानी में रखने का आदेश सुनाते हुए 27 जुलाई को जमानत दे दी।

पडगांवकर और प्रो. कुमार पर आरोप लगा था कि उन्होंने फई द्वारा विदेशों में कश्मीर मसले पर आयोजित कई सम्मेलनों में हिस्सा लिया और पाकिस्तान के पक्ष में अपने विचार व्यक्त किये। हालांकि पडगांवकर और प्रो. कुमार के अलावा इस श्रेणी में कई और भारतीय बुद्धिजीवी भी हैं, जिन्होंने समय-समय पर भारत की कश्मीर नीति के खिलाफ बोला। कश्मीर मसले पर फई के सम्मेलनों में भागीदारी पर अंसारी ने पडगांवकर की तीखी आलोचना की थी। उन्होंने कहा था- “अगर पडगांवकर की जगह मैं होता तो वार्ताकार पैनल से इस्तीफा दे देता।” अंसारी ने प्रो. कुमार पर भी काफी तीखी टिप्पणी की थी। अंसारी की टिप्पणी से नाराज कुमार ने गृह मंत्रालय को अपना इस्तीफा सौंपते हुए दो टूक कह दिया था कि अंसारी के साथ काम करना उनके लिए आसान नहीं होगा। हालांकि उन्होंने मंत्रालय के काफी मान-मनौव्वल के बाद अपना इस्तीफा वापस ले लिया।

ध्यान देने वाली बात है कि अफजल मसले पर नेशनल कान्फ्रेंस, पीडीपी और अलगाववादी संगठन हुर्रियत कान्फ्रेंस ने भी पडगांवकर व प्रो. कुमार के सुर में सुर मिलाया है। पडगांवकर और कुमार का अफजल के संदर्भ में दिया गया यह बयान देश-विरोधी तो है ही; साथ ही आतंकियों के मनोबल को बढ़ाने वाला भी है। उनका बयान प्रत्येक भारतीय को यह सोचने के लिये मजबूर करता है कि क्या वे पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के एजेंट तो नहीं हैं?

अब प्रश्न उठता है कि क्या देश का जनमानस कश्मीरी अलगाववादी फई की मेहमाननवाजी का लुफ्त उठाने, अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में कश्मीर मसले पर कथित रूप से पाकिस्तान के पक्ष में बोलने, अलगाववादी संगठनों के सुर में सुर मिलाने और पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी अफजल पर बयान देने वाले पडगांवकर और राधा कुमार पर क्या विश्वास किया जा सकता है? कश्मीर समस्या का संभावित हल तलाशने के निमित्त सितम्बर में आने वाली उनकी रिपोर्ट पर क्या सहज ही विश्वास किया जा सकेगा? पडगांवकर व कुमार की गतिविधियों और बयानों से अभी से स्पष्ट होने लगा है कि उनकी कश्मीर मसले पर संभावित रिपोर्ट ‘अलगाववाद का पुलिंदा’ ही होगी!

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