लोकतंत्र में धनकुबेर बनते नौकरशाह

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मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में तीन आईएएस अफसरों सहित कई अन्य सरकारी मुलाज़िमों के ठिकानों पर इन्कम टैक्स के छापों में अब तक करीब 500 करोड़ की बेनामी संपत्ति का पता चला है। इसमें 7.7 करोड़ की नकदी और ज़ेवरात भी शामिल है। कुबेर का खज़ाना साबित हो रहीं इन अफ़सरों की तिजोरियाँ महज़ एक बानगी हैं। प्रदेश ही क्यों समूचे देश में भ्रष्टाचार की गंगा में डुबकी लगाकर इहलोक की वैतरिणी पार करने वालों की फ़ेहरिस्त दिन ब दिन लम्बी होती जा रही है। प्रशासनिक पारदर्शिता और नियम कायदों से कामकाज का ढ़ोल पीटने वाली सरकार की ऎन नाक के नीचे नौकरशाहों के सरकारी बंगलों से करोड़ों के नोट मिलना साफ़ बताता है कि किस तरह आम जनता की गाढ़ी कमाई से नये दौर के “धनकुबेर” तैयार हो रहे हैं।

 

प्रमुख सचिव स्तर के दोनों अफसरों अरविंद जोशी तथा टीनू जोशी और उनकी काली कमाई ठिकाने लगाने में मददगार लोगों के घरों पर आयकर विभाग के छापे में काली कमाई के ढेर सारे सबूतों के अलावा नकदी ही इतनी मिली कि नोट गिनने की मशीन लगाना पड़ी जो कई घंटे चलती रही। आयकर के शिकंजे में फ़ँसे आईएएस दंपति अहम विभागों की जिम्मेदारियाँ निभा रहे थे। सवाल यह उठता है कि अफसरों के पास इतनी संपत्ति कहाँ से आई कि नोट गिनने के लिए मशीन बुलाना पड़ी।

 

प्रदेश के आला अफसरों की काली कमाई आयकर विभाग के हत्थे चढ़ने का यह कोई पहला मामला नहीं है। पहले भी एक आला अफ़सर और मंत्री के परिवार के ठिकानों पर ऎसी ही कार्रवाई की गई थी। तब मंत्री को तो कुछ महीनों के लिए ही सही कुर्सी छोड़ना पड़ी, लेकिन अफसर का कुछ नहीं बिगड़ा। ये घटनाएँ बताती हैं प्रदेश में भ्रष्टाचार चरम पर है। लेकिन राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी के कारण भ्रष्टाचार पर काबू पाना नामुमकिन हो गया है।

 

मुख्यमंत्री स्वर्णिम मध्यप्रदेश बनाने के अभियान में जुटे हैं। उधर वे ग्रामीण इलाकों में जा-जाकर आम जनता को भ्रष्टाचार मुक्त समाज बनाने की शपथ दिलाते घूम रहे हैं। इधर नौकरशाह सूबे के हुक्मरानों के हमजोली बनकर सरकारी खज़ाने को अपनी मिल्कियत में तब्दील करने के खेल में मशगूल हैं। सरकारी सामान की खरीद फ़रोख्त नौकरशाहों का सबसे पसंदीदा शगल बन गया है। नियमों को ताक पर रखकर आला अफ़सर सप्लायर और निर्माताओं से गठजोड़ कर जमकर कमीशनखोरी में जुटे हैं।

 

मध्यप्रदेश लघु उद्योग निगम की आड़ लेकर करोड़ों रुपए का गड़बड़झाला किया जाता है। इसके अलावा प्रदेश में 700 करोड़ के पोषाहार की योजना में भी बंदरबाँट का सिलसिला बदस्तूर जारी है। पोषण आहार आपूर्ति का काम ठेकेदारों से छीनने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद “नाम तेरा, दाम मेरा” की तर्ज़ पर एमपी एग्रो की आड़ में ठेकेदार ही पोषाहार सप्लाई कर रहे हैं। सरकारी खज़ाने की खुली लूट में अफ़सर, नेताओं और ठेकेदारों की तिजोरियाँ भर रही हैं और सूबे के नौनिहालों के पेट खाली हैं।

 

आईएएस अरविंद जोशी के घर अकूत दौलत मिलने के बाद अब जल संसाधन से जुड़ी 600 करोड़ रुपए की सामग्री की खरीदी भी शक के घेरे में है। जोशी जल संसाधन महकमे के प्रमुख सचिव थे। दरअसल पिछले पाँच वर्षों में प्रदेश का सिंचाई रकबा और विभाग में भ्रष्टाचार बढ़ने की रफ़्तार काफ़ी तेज़ रही। भाजपा सरकार के सत्ता में आते ही जल संसाधन विभाग में पैसे की बाढ़ आ गई। विभाग का बजट तीन हजार करोड़ रुपए से अधिक का हो गया, विश्व बैंक तथा अन्य स्त्रोतों से सिचाई का रकबा बढ़ाने के लिए राज्य सरकार ने पैसा लिया। राज्य में विभिन्न योजनाओं में दस हजार करोड़ रुपए से अधिक खर्च किए गए। जाँच एजेंसियों को मिली शिकायतों का पुलिंदा एक हजार करोड़ रुपए से अधिक धनराशि घोटाले की भेंट चढ़ जाने की बात कहता है। इसका प्रमाण है हाल के महीनों में विभाग के सौ से अधिक इंजीनियरों का निलंबन।

 

ग्वालियर और शिवपुरी जिले के हर्षी प्रोजेक्ट में ईओडब्ल्यू की जाँच में लगभग दो सौ करोड़ का भ्रष्टाचार सामने आया है। शायद यह पहली परियोजना होगी, जिसके 306 करोड़ रुपए के बजट में 269 करोड़ के पाइप खरीद लिए गए। इस मामले में दो दर्जन से अधिक इंजीनियरों को निलंबित किया गया है, लेकिन अभी तक किसी के खिलाफ आपराधिक प्रकरण दर्ज नही कराया गया। इसी तरह बाणसागर परियोजना में लगभग सौ करोड़ रुपए के भ्रष्टाचार का मामला सामने आया है।

 

रिश्वत के पैसे से “जीवन की सुरक्षा” का चलन अब आम हो चला है। प्राइवेट बैंकों की बीमा पॉलिसियों का काली कमाई को उजला बनाने की कारगर तरकीब के तौर पर इस्तेमाल भी तेज़ी से बढ़ा है। आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल की शाखा प्रबंधक सीमा जायसवाल के पास मिले दस्तावेज़ों में प्रदेश के नौकरशाहों और कई नेताओं के निवेश का ज़िक्र इसी ट्रेंड का पुख्ता सबूत हैं। आयकर विभाग के मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ सर्किल के सूत्रों के अनुसार, सीमा जायसवाल के यहां छापे के दौरान मिले दस्तावेजों की जाँच के आधार पर छापे की कार्यवाही को फ़िलहाल खत्म नहीं कहा जा सकता। सीमा द्वारा अन्य अफसरों के नाम से की गई पॉलिसियों का विवरण बीमा कंपनी से मंगाया जायेगा, जिसके आधार पर आगे की कार्रवाई तय होगी।

 

 

प्रमुख सचिव स्तर के दोनों अफसरों अरविंद जोशी और टीनू जोशी को आनन फ़ानन में निलंबित कर राज्य सरकार ने यह संकेत देने का प्रयास किया है कि भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। सरकार की मंशा पर संदेह का कोई प्रश्न भी नहीं है, लेकिन एक सच यह भी है कि दागदार अफसरों की फेहरिस्त खासी लम्बी है। इनमें से आधा दर्जन के खिलाफ़ लोकायुक्त में जाँच लंबित है। कई मामले विभिन्न अदालतों में चल रहे हैं, मगर सरकार ने इनके खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं की। इनमें से ज्यादातर ऎसे हैं जिनके दामन पर लगे दाग ही उनकी खूबी बन गये हैं। “फ़ंड का फ़ंडा” बखूबी जानने वाले ये अफ़सर नेताओं की आँखॊं के तारे बने हुए हैं। यही वजह है कि इन्हें हमेशा ही मलाईदार विभागों की जिम्मेदारी मिलती रही है। इनमें से कई अभी भी सरकार में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभा रहे हैं।

 

 

अफ़सरों के पास अकूत दौलत आने के महज़ दो ही ज़रिये हो सकते हैं – तबादले और मनमाफ़िक पोस्टिंग या फ़िर सरकारी खरीद में कमीशनखोरी। यहाँ यह तथ्य नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता कि दोनों तरह के काम विभागीय मंत्री की सहमति या नेताओं के दखल के बिना नहीं हो सकते। साठ दशक पार कर चुकी लोकशाही में अब यह बात ध्रुव सत्य सी आम जनता के ज़ेहन में बैठ चुकी है कि भ्रष्टाचार की बुनियादी जड़ तो नेता ही हैं। नेता के इशारे या इजाजत के बगैर अफसरों, माफियाओं की हालत कटे हुए पंख वाले पंछी की तरह होती है। सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्टाचार को पालने-पोसने वाले इस गठजोड़ पर कई बार चिंता ज़ाहिर की है।

 

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जनता के बीच हमेशा कहते हैं कि मैं ईमानदार हूं और भ्रष्टाचारी को प्रदेश में नहीं रहने दूंगा। यदि वास्तव में मुख्यमंत्री ऐसा चाहते हैं तो उन्हें मंत्रियों को “भ्रष्टाचार मुक्त समाज” के लिये जवाबदेह बनाना होगा। आयकर, लोकायुक्त, ईओडब्ल्यू और भ्रष्टाचार रोकने के लिए अन्य एजेंसियों द्वारा की जाने वाली हर कार्रवाई में राजनेता तथा बड़े अफ़सर बच जाते हैं। प्रदेश स्तर की एजेंसियाँ भ्रष्ट अफसर को पकड़ भी लें तो उसके खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति हासिल करना टेढ़ी खीर होता है। अधिकारियों के खिलाफ विभागीय कार्रवाई के बाद मामला समाप्त हो जाता है, जबकि सरकार की सारी तत्परता पटवारी, तहसीलदार,सब इंजीनियर और लिपिक वर्गीय सरकारी मुलाज़िमों को सज़ा दिलाने में ही दिखाई देती है।

 

हाल ही के आयकर छापों से साबित हो गया है कि अरबों रूपयों की केन्द्रीय मदद का लाभ जनता को पहुंचने की बजाय भ्रष्ट अफसरों की तिजोरियों में जा रहा है। तमाम अफसरों व कारोबारियों के ठिकानों पर आयकर, लोकायुक्त व ईओडब्ल्यू ने कार्रवाई कर अकूत संपत्ति का पता लगाया है। सुप्रीमकोर्ट से लेकर प्रधानमंत्री तक की टिप्पणियों पर गौर करें तो पाते हैं कि भ्रष्टाचार की असली जड़ नेता, अफसर और किस्म- -किस्म के माफियाओं का गठजोड़ है। चूंकि लोकतंत्र में कड़ी की शुरूआत नेता से होती है, इसलिए भ्रष्टाचार के लिए वे सबसे पहले जिम्मेदार हैं।

 

– सरिता अरगरे

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