बुर्क़े की क़ैद से आज़ादी : वो सुबह कभी तो आएगी

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-फ़िरदौस ख़ान

दुनियाभर में मुस्लिम महिलाओं को बुर्क़े से निजात दिलाने की मुहिम शुरू चुकी है. हाल ही में इटली के उत्तरी इलाक़े में बसे शहर नोवारा में बुर्क़ा पहनने पर एक महिला से जुर्माना वसूले जाने के मामले से तो यही साबित होता है. टयूनिशिया की रहने वाली बुर्क़ाधारी यह महिला अपने पति के साथ शुक्रवार को मस्जिद से आ रही थी, तभी रास्ते में पुलिस ने उस पर जुर्माना लगा दिया. इस तीस वर्षीय महिला को बुर्क़ा पहनने के इलज़ाम में पांच सौ यूरो का जुर्माना भरने का आदेश दिया. गौरतलब है कि इटली के क़ानून के मुताबिक़ ऐसे कपड़े पहनने पर मनाही है जिससे पुलिस को पहचान करने में परेशानी हो. हाल ही में बुल्गारिया की संसद के निचले सदन ने भी ऐसे क़ानून को प्रारंभिक स्तर की अनुमति दी है. इसके मुताबिक़ चेहरे को पूरी तरह से ढकने वाले कपड़े पहनने पर 15 से बीस यूरो का जुर्माना या सात दिन तक की जेल हो सकती है.

बुर्के को लेकर फ्रांस में बनने वाले क़ानून से कट्टरपंथियों की नींद हराम हो सकती है, लेकिन महिलाओं के हक़ में इसे बेहतर ही कहा जा सकता है. ख़ासकर उन महिलाओं के लिए, जिन्हें जबरन बुर्क़े में क़ैद रहने के लिए मजबूर किया जाता है. दरअसल, फ्रांस की सरकार बुर्क़े जैसी कुप्रथा के ख़िलाफ़ सख्त क़ानून बनाने जा रही है, जिसके तहत सार्वजनिक स्थानों पर बुर्का पहनने वाली महिलाओं को 700 पाउंड यानि करीब 51 हज़ार रुपए से ज़्यादा का जुर्माना देना पड़ेगा. ब्रिटिश के अखबार ‘डेली मेल’ में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक़ यह जुर्माना राशि उन मुस्लिम पुरुषों के लिए दोगुनी हो सकती है, जो महिलाओं को बुर्का पहनने के लिए मजबूर करते हैं.

फ्रांसीसी संसद में राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी की सत्तारूढ़ पार्टी यूएमपी के अध्यक्ष जीन फ्रांकोइस कोप का कहना है कि यह कानून महिलाओं का सम्मान और अधिकार बचाने के लिए लाया जा रहा है. वे जल्द ही नेशनल असेंबली में कानून का मसौदा पेश करने वाले हैं. इस बारे में उन्होंने यह भी तर्क दिया कि सार्वजनिक इमारतों और सड़कों पर बुर्क़ा पहनने की इजाज़त नहीं होगी, क्योंकि इससे आतंकवाद को बढ़ावा मिलता है.

गौरतलब है कि इससे पहले मिस्र की राजधानी काहिरा स्थित अल-अज़हर विश्वविद्यालय के इमाम शेख़ मोहम्मद सैयद तांतवई ने कक्षा में छात्राओं और शिक्षिकाओं के बुर्क़ा पहनने पर रोक लगाकर एक साहसिक क़दम उठाया था. इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ कई इस्लामी सांसदों ने शेख़ तांतवई के इस्तीफ़े की मांग करते हुए इसे इस्लाम पर हमला क़रार दिया था. हालांकि बुर्क़े पर पाबंदी लगाने का ऐलान करने के बाद इमाम शेख़ मोहम्मद सैयद तांतवई ने क़ुरान का हवाला देते हुए कहा है कि नक़ाब इस्लाम में लाज़िमी (अनिवार्य) नहीं है, बल्कि यह एक रिवाज है.

उनका यह भी कहना है कि 1996 में संवैधानिक कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था कि कोई भी सरकारी मदद हासिल करने वाले शिक्षण संस्था का अधिकारी स्कूलों में इस्लामिक पहनावे पर अपना फ़ैसला दे सकता है. बताया जा रहा है कि पिछले दिनों एक स्कूल के निरीक्षण के दौरान शेख़ मोहम्मद सैयद तांतवई ने एक छात्र से अपने चेहरे से नक़ाब हटाने को भी कहा था. गौरतलब है कि मिस्र के दानिश्वरों का एक बड़ा तबका बुर्क़े या नक़ाब को गैर ज़रूरी मानता है. उनके मुताबिक़ नक़ाब की प्रथा सदियों पुरानी है, जिसकी शुरूआत इस्लाम के उदय के साथ हुई थी. अल-अज़हर विश्वविद्यालय सरकार द्वारा इस्लामिक कार्यो के लिए स्थापित सुन्नी समुदाय की एक उदारवादी संस्था मानी जाती है, जो मुसलमानों की तरक्की को तरजीह देती है. इसलिए अल-अज़हर विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा छात्रों और शिक्षिकाओं के नक़ाब न पहनने को सरकार द्वारा सार्वजनिक संस्थानों में बुर्क़ा प्रथा पर रोक लगाने का एक हिस्सा माना जा रहा है. क़ाबिले-गौर है कि सऊदी अरब के दूसरे देशों के मुक़ाबले मिस्र काफ़ी उदारवादी देश है. अन्य मुस्लिम देशों की तरह यहां भी बुर्क़ा या नक़ाब पहनना एक आम बात है.

क़ाबिले-गौर है कि साल 2004 में फ़्रांस ने सरकारी स्कूलों और दफ़्तरों में हिजाब और अन्य धार्मिक चिन्हों के पहनने पर पाबंदी लगा दी थी. इस पर काफ़ी बवाल भी मचा था. फ्रांस के राष्ट्रपति निकोला सारकोज़ी ने कहा था कि फ्रांस में बुर्क़ा पहनना स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि बुर्क़ा पहनने वाली महिलाएं क़ैदी के समान हैं, जो आम सामाजिक जीवन जीने से महरूम रहती हैं और अपनी पहचान की मोहताज होती हैं. इसके कुछ वक़्त बाद ही फ़्रांस की महिला मुस्लिम मंत्री फ़देला अमारा ने फ्रांस में बुर्क़े पर पाबंदी का समर्थन करते हुए कहा था कि बुर्क़ा महिलाओं को क़ैदी की तरह बना देता है और फ़्रांस के मौलिक सिद्धांतों में से एक महिला-पुरुष के बीच समानता की अवहेलना करता है. बुर्क़ा एक पहनावा ही नहीं बल्कि एक धर्म के राजनीतिक दुरुपयोग का प्रतीक है. उनका कहना था कि बुर्क़े पर पाबंदी से महिलाओं का मनोबल बढ़ेगा. फ्रांस में मुस्लिम आबादी अन्य सभी यूरोपीय देशों के मुक़ाबले ज़्यादा है और कुछ अरसा पहले बुर्क़े पर प्रतिबंध के मुद्दे पर यहां की संसद ने एक 32 सदस्यीय आयोग का गठन किया है.

क़ाबिले- गौर यह भी है कि ‘क़ुरआन’ में सबसे पहले मुस्लिम पुरुषों को पर्दे का आदेश दिया गया है. पुरुषों से कहा गया है कि अपनी नज़र का पर्दा करो और दूसरी महिलाओं को मत देखो, अपने शरीर के व्यक्तिगत हिस्सों को अच्छी तरह ढक कर रखो. बाद में सूरह-अल-नूर और सूरह-अल-अहज़ाब में महिलाओं के लिए पर्दे का ज़िक्र आता है, लेकिन उसमें महिलाओं से कहा गया कि अपने सिर और जिस्म को अच्छी तरीके से ढको. ढकने की शर्त में चेहरा शामिल नहीं है. वैसे भी बुर्क़ा इस्लाम का हिस्सा नहीं है. इस्लाम के उदय के क़रीब 300 साल के बाद पहली बार महिलाओं को बुर्क़े जैसा लिबास पहने कपड़ा पहने हुए देखा गया. ये महिलाएं ठंड से बचने के लिए अतिरिक्त कपड़ों के रूप में बुर्क़े जैसे लिबास का इस्तेमाल करती थीं. मगर अफ़सोस की बात यह है कि बाद में मज़हब के ठेकेदारों ने महिलाओं को ‘क़ैद’ करने के लिए बुर्क़े का इस्तेमाल शुरू कर दिया. नतीजतन महिलाएं सिर्फ़ घर की चहारदीवारी तक ही सिमट कर रह गईं.

बहरहाल, यह एक ख़ुशनुमा बात है कि महिलाओं को बुर्क़े की क़ैद से आज़ादी दिलाने की मुहिम शुरू हो चुकी है और कभी न कभी वो वक़्त भी ज़रूर आएगा जब महिलाएं खुली फ़िज़ा में सांस ले सकेंगी.

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फ़िरदौस ख़ान
फ़िरदौस ख़ान युवा पत्रकार, शायरा और कहानीकार हैं. आपने दूरदर्शन केन्द्र और देश के प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों दैनिक भास्कर, अमर उजाला और हरिभूमि में कई वर्षों तक सेवाएं दीं हैं. अनेक साप्ताहिक समाचार-पत्रों का सम्पादन भी किया है. ऑल इंडिया रेडियो, दूरदर्शन केन्द्र से समय-समय पर कार्यक्रमों का प्रसारण होता रहता है. आपने ऑल इंडिया रेडियो और न्यूज़ चैनल के लिए एंकरिंग भी की है. देश-विदेश के विभिन्न समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं के लिए लेखन भी जारी है. आपकी 'गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत' नामक एक किताब प्रकाशित हो चुकी है, जिसे काफ़ी सराहा गया है. इसके अलावा डिस्कवरी चैनल सहित अन्य टेलीविज़न चैनलों के लिए स्क्रिप्ट लेखन भी कर रही हैं. उत्कृष्ट पत्रकारिता, कुशल संपादन और लेखन के लिए आपको कई पुरस्कारों ने नवाज़ा जा चुका है. इसके अलावा कवि सम्मेलनों और मुशायरों में भी शिरकत करती रही हैं. कई बरसों तक हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की तालीम भी ली है. आप कई भाषों में लिखती हैं. उर्दू, पंजाबी, अंग्रेज़ी और रशियन अदब (साहित्य) में ख़ास दिलचस्पी रखती हैं. फ़िलहाल एक न्यूज़ और फ़ीचर्स एजेंसी में महत्वपूर्ण पद पर कार्यरत हैं.

10 COMMENTS

  1. मोहतरमा खान – ज़रा सपच समझ कर लिखो, संभल कर पढो और देख भाल कर अपनी ज़बान खोलो – कहीं ऐसा न हो की आप को किसी फतवे का सामना करना पड़े – वैसे फ्रांस की मुस्लिम महिला मंत्री के खिलाफ भी फतवा जारी हुआ था लेकिन वो तो फ्रांस में ही पैदा हुई , पढ़ी लिखी और बड़ी हुई – उसे कोई खतरा नहीं हो सकता था – अपना ख्याल रखो ………….

  2. फिरदौस जी ! आपकी हिम्मत और इन्साफ पसंदगी ज़रूर औरतों को इज्ज़त की ज़िंदगी जीने की राह आसान करेगी. मौसम और ज़रुरत के हिसाब से सम्मानजनक ढंग से शालीन कपड़े पहनना हर किसी का मौलिक अधिकार है. खुली हवा में सांस लेने की ज़रुरत तो हर किसी को है न ! महिलाओं को अपने हक़ की लड़ाई खुद लड़नी होगी.

  3. क्या बात कर रही है फिरदौस साहिबा भारत में बुरका
    पहनना अनिवार्य नही है .
    फिर भी लोग पहनते है क्यों
    इसका जवाब आप से बेहतर कोई नही दे सकता .

    जो भी आज बर्के का विरोध करेगा अब आगे क्या बोलू ……..
    आज मुंबई में ६०% मुश्लिम लडकिय अंदर वियर और बनियान वो भी सैंडो पहन क्र घुमती है .
    लेकिन वो सब सम्भ्रांत मुस्लिम परिवारों की है

    .मुस्लिम समाज के यही सम्भ्रांत बुर्के की शिफारिस करते है और ४०% को बुरका पहनने के लिए विवश करते है.
    हमारी शुभ कामना आप आगे बड़ो और इस बुराई का खात्मा करने में अपना महती योगदान करो .

    करवा अपने आप जुड़ जायेगा .

  4. जनाब फिरदो साहिबा, आप का लेख पढ़ कर बोहुत ख़ुशी हुई मुस्लिम समाज में आप जैसी औरते भी है. ऐसे लेख मझे भी bheje. एक मोंथ्ली रिसाला निकालटी हु आप के ऐसे लेख मझे भी चाह्हिये.मेरा ईमेल दूर् tak१९९९@जीमेल.com he

  5. आमीन

    इस देश में फ़िरदौस जी जैसे राष्ट्रवादी मुसलमान भी हैं, ऐसे मुसलमानों को आगे आना चाहिए. सच्चे मुसलमान तो यही हैं.

  6. अंधा इन्साफ़ ?
    चार चार बेगमें मर्दोंको?।
    और, चलती फिरती जेल बेगमको?।१।

    आंख मूंद ले ज़रा, औरत बन जा।
    फिर देख, तेरे सोचका मज़ा।२।

    ज़रा, हरा चश्मा उतारकर तो, देख।
    अंडेसे बाहर निकल कर तो, देख। ३।

    बुर्क़ा नहीं, ये चलती फिरती जेल है।
    हिम्मत है ? इक रोज़ पहनके देख!।४।

    माँ-बहनो को, इतना भी, क्यों सताया?
    मर्द, है तेरा इन्साफ़, अधूरा देख।५।

    दुनिया तो पहुँच चुकी है, चाँद पर।
    तु इक्किसवी सदीमें, झाँककर तो, देख।६।

    -कब तक रहेंगे, छठवी सदीमें कुढते ?
    कब तक रहेंगे लेते,दुनियासे पंगा?।७।

    कहे तो किनसे कहे? ।
    कठ पुतलियां, वोटोंपर बिक चुकी।८।

    उस परवरदिगार के नाम पर?
    बुर्क़ा, है काला धब्बा, है हिम्मत ?
    तो दिनभर पहनके देख।९।
    ——बेगम अँजना

  7. ज़रूरी जानकारी देता सामयिक लेख! फिरदौस साहिबा लगी रहिये, आप सही सिम्त में गामज़न हैं.

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