विधानसभा उपचुनाव से पता चलेगा जदयू-राजद-कांग्रेस गठबंधन हकीकत!

-हिमांशु शेखर झा-

congress bjp बिहार की राजनीति में एक नया गठबंधन आकार ले चुका है जिसमें राजद और जदयू की परस्पर की भागीदारी है तथा कांग्रेस के लिए तो मानो डूबते को तिनके का सहारा. ये तीनों ऐसी पार्टियां हैं जो बीते लोकसभा चुनाव में मुह के बल गिरी थी. नए गठबंधन के आकार लेते ही बिहार की राजनीति दिलचस्प हो चुकी है. लोकसभा चुनाव के नतीजों के आधार पर बिहार के मतदाताओं पर जातिगत राजनीति के आधार पर वोट करने का जो काला धब्बा लगा था, वो कहीं न कहीं अब साफ़ होता दिख रहा है. ऐसी परिस्थिती में नए गठबंधन की एक प्रमुख दल “राजद” जिसे कि जाति आधारित राजनीति करने में महारथ हासिल है, उसको साथ ले ये नया गठबंधन राज्य के जनता का भरोसा कैसे जीत पाएगी? फलस्वरूप नए गठबंधन के घटक दलों के नेताओं में उत्सुकता नहीं झलक रही, बस उपचुनाव के माध्यम से गठबंधन के जमीनी हकीकत जानने की कोशिश कर रहे हैं. गठबंधन का निर्माण करना घटक दलों की मजबूरी तो है ही साथ ही इकलौता मकसद है- भाजपा को बिहार की सत्ता से वंचित रखना, जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद से ही राजद तथा जदयू को उसके पारंपरिक राजनीति में वापस आने की अपील कर रहे हैं। साथ ही निरंकुश हो चुकी “मंडल” की  राजनीति को पुनर्जीवित करने की वकालत करते रहे हैं. वैसे शरद यादव भाजपा से गठबंधन टूटने के पक्षधर भी नहीं थे, परन्तु नीतीश कुमार तथा उनके सिपहसलार के जिद्द के कारण उन्हें भाजपा से गठबंधन तोड़ना पड़ा। नीतीश कुमार जब तक प्रत्यक्ष रूप से मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाले रहे तब तक वह लालू के 15 वर्षों के सासन को बिहार की राजनीति में काले अध्याय के रूप में देखते थे, लेकिन राजनीति ने ऐसी करवट ली की वही बड़े भाई आज शुसासन बाबू के मन भाने लगे हैं. समता पार्टी से जदयू में परिवर्तन के साथ ही पार्टी में एक उम्मीद की किरण जगी, जदयू ने खुद को धर्म तथा जाति की पारम्परिक व्यवस्था से अलग रखते हुए भाजपा के साथ गठबंधन किया जिसके कारण पार्टी से अगड़ी तथा पिछड़ी जाति के लोग बढ़ – चढ़ कर जुड़े और परस्पर सहयोग दिया, फलस्वरूप नीतीश कुमार बिहार की सत्ता में मुख्यमंत्री के तौर पर अपना जगह बना पाने में सफल हुए. और बिहार को विकास के रास्ते राष्ट्रीय स्तर पर एक नई पहचान मिली, बिहार को लोग एक नए नजरिये से देखने लगे थे. नीतीश कुमार अपने पुराने कसम को तोड़ते हुए (जो की उन्होंने 2015 तक सभी घरों में बिजली न पहुंचने पर चुनाव में वोट नहीं मांगने की बात की थी ) आज एक नए मुद्दे “ब्रांड बिहार” के सहारे आगामी विधानसभा चुनाव में जनता के बीच जाने की कोशिश कर रहे हैं. शुसासन बाबू के “ब्रांड बिहार” में भाजपा भी अपनी हिस्सेदारी मांग रही है जो कि जायज भी है क्यूंकि सरकार में भाजपा की हिस्सेदारी बराबर की थी. अगर नीतीश कुमार के इस  “ब्रांड बिहार” के आकलन का पैमाना राज्य की सड़क तथा यातायात व्यवस्था है? क्या राज्य की वित्तिय स्थिती, स्वास्थ्य, कृषि विकास का भी परस्पर योगदान है? तो इसमें कोई सक नहीं है कि भाजपा को उसका वाजिब हक मिलना चाहिए,  क्योंकि इन तमाम मंत्रिमंडल की जिम्मेदारी  भाजपा विधायकों के पास थी सिवाय कृषि मंत्रालय छोड़कर. जिस ब्रांड बिहार के निर्माता का तमगा लेने की होड़ मची है आखिर उसकी हकीक़त क्या है? सच्चाई कितनी है? बिहार की राजधानी पटना के दो तिहाई सड़क आज भी रोड लाइट से महरूम है, यहां के मुहल्लों में कचरा प्रबंधन की स्थिती भी दयनीय है, गावों में स्कूल से ज्यादा अच्छे हालात में शराब के ठेके नजर आते हैं, बच्चों पर होने वाले अत्याचार आज भी जारी है, बच्चों में होने वाले कुपोषण में आज भी हमारा पहला स्थान है, किसान को आज भी अनाज के उचित मुल्य नहीं मिल रहे हैं, आज भी लोगों को अपने हक के लिए सरकारी दफ्तरों का चक्कर काटना परता है. क्या यही है ब्रांड बिहार? भाजपा वाले लगातार आरोप लगा रहे हैं कि भाजपा के साथ गठबंधन टूटने के साथ ही राज्य के विकास का काम रुक सा गया है इसमें एक हद तक सच्चाई भी दिखती है क्यूंकि आजकल सरकार का ज्यादातर समय विकास कार्यों के वजाय बहुमत बचाने पर ज्यादा व्यतीत होता है, गठबंधन टूटने के बाद से ही वागी होने का दौड़ चल चुका है, कयास लगाए जा रहे हैं कि उपचुनाव परिणाम के बाद जदयू तथा राजद के कुछ आला नेता अपने-अपने नए ठिकाने की तलाश कर सकते हैं, ये वही लोग हैं जिन्हें कि नए गठबंधन से परहेज है और दबी जुवान अपनी विरोधाभास भी जाता चुके हैं. ऐसी परिस्थितियों जदयू के लिए अगामी विधानसभा चुनाव से पहले अपने पार्टी को संभालना एक गंभीर चुनौती है.

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