क्या जात-पात मिटाई जा सकती है?

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आर्यसमाज की पहली पीढ़ी के विद्वानों में एक विद्वान प्रो. सन्तराम जी बी.ए. भी हुए हैं। आप स्वामी श्रद्धानन्द जी के समकालीन थे। आपने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया। पं. गुरुदत्त ग्रन्थावली के हिन्दी अनुवादक भी आप ही थे। इस समय आपकी एक लघु पुस्तक हमारे सम्मुख है। इस पुस्तक का प्रकाशन श्री रवीन्द्र कुमार मेहता, दिल्ली ने अपने प्रकाशन ‘सरस्वती साहित्य संस्थान, दिल्ली-92’ से कराया है। पुस्तक में 16 पृष्ठों की सामग्री है। प्रकाशन वर्ष नहीं दिया गया है। आज हम इसी पुस्तक से लेखक के कुछ विचारों को पाठकों के समाने रख रहे हैं जिससे वह इस पर चिन्तन कर सकें। लेखक महोदय लिखते हैं ‘जात-पात मानने वाले हिन्दुओं में प्रत्येक हिन्दू दूसरे हिन्दू के लिए अछूत है। अन्तर केवल अछूतपन के अंश में है। कोई अधिक अछूत है और कोई कम। एक के हाथ से आप पानी लेकर तो पी सकते हैं, परन्तु उसके हाथ की बनी रसोई नहीं खा सकते। दूसरे के हाथ की रसोई तो खा सकते हैं, परन्तु उसके साथ बेटी-व्यवहार नहीं कर सकते। इसी प्रकार आगे चलते-चलते ऐसे हिन्दू आ जाते हैं, जिनके साथ रोटी बेटी व्यवहार तो दूर, जिन्हें छू जाने से भी आप अपवित्र हो जाते हैं।

 

पंजाब में सिक्खों ने भंगियों और चमारों के सिर पर लंबे केश रखवा कर उन्हें सिक्ख तो बनाया परन्तु जात-पात को न मिटाया। इसलिए सिक्ख बनकर भी वे ‘पांचवें पौड़े’ के सिक्ख अर्थात् अछूत के अछूत ही रहे। इसी प्रकार आर्य समाज ने तथा-कथित अछूतों को शुद्ध करके ‘महाशय’ और ‘भक्त’ नाम तो दिया, परन्तु उनके साथ बेटी-व्यवहार न किया। इसलिए वे महाशय कहला कर भी अटूत ही रहे। इनके बाद महात्मा गांधी ने अछूतों का नाम ‘हरिजन’ रख दिया। परन्तु इससे अछूतपन दूर होने के स्थान में ‘हरिजन’ का अर्थ ही अछूत हो गया। फिर डाक्टर अम्बेडकर के दबाव से भारत सरकार ने इनका नाम ‘परिगणित जातियों’ या शड्यूल कास्ट रख कर इन्हें कुछ राजनीतिक सुविधाएं दीं। इससे कुछ इने गिने थोड़े से व्यक्तियों को आर्थिक लाभ तो हुआ, परन्तु हिन्दू समाज में जन्ममूलक ऊंच-नीच की जो बिमारी पड़ी है, जिससे प्रत्येक जाति अपने को एक अलग राष्ट्र समझती और अपने आर्थिक व राजनीतिक हित दूसरी जातियों से अलग मानती है, वह कम नहीं हुई। सब अछूतों को सरकारी नौकरियां भी नहीं मिल सकती। सरकारी नौकरी न पाने वाला कोई भंगी हलवाई, पंसारी या आटे-दाल की दुकान खोलकर आजीविका नहीं कमा सकता। कोई सवर्ण हिन्दू उसके यहां से सौदा नहीं लेगा।

 

इसके अतिरिक्त एक और बात भी है। एक अनपढ़ और दरिद्र अछूत तो अपना अपमान सहन कर लेता है, परन्तु एक सुशिक्षित एवं संपन्न अछूत अपना सामाजिक अपमान सहन नहीं कर सकता। जातपात की मनोवृत्ति क्योंकि हिन्दू समाज में वैसी ही वैसी है, इसलए पढ़े-लिखे हरिजन सवर्णों से अलग ही रिपब्लिकन पार्टी जैसे अपने दल बना रहे हैं, इससे एकता के स्थान में विघटन ही बढ़ा है। चाहिए तो यह था कि अछूत और सवर्ण का भेदभाव दूर होकर सब हिन्दू एक संगठित समाज बन जाते, परन्तु बात उलटी हो रही है।

 

आज प्रत्येक हिन्दू अपनी जाति के प्रत्याशी को ही क्यों मतदान करता है? मद्रास में ब्राह्मण और ब्राह्मणेतर का, केरल में नायर और इड़वा का, उत्तर प्रदेश में कायस्थ और ब्राह्मण का, हरियााणा में जाट और बनिए का जो झगड़ा है, उसका कारण यही जात-पात नहीं तो और क्या है? किसी कार्यालय में जिस जाति का व्यक्ति सर्वोच्च अधिकारी होता है, वह अपनी ही जाति के लोगों को लाभ पहुंचाने का यत्न करता है, मानो दूसरी जातियों के लोग किसी दूसरे ही राष्ट्र के हों।’

 

उपर्युक्त पंक्तियों में जात-पांत पर प्रो. सन्तराम जी के कुछ विचार प्रस्तुत किये हैं। इससे ज्ञात होता है कि हिन्दू समाज अनेकानेक जातियों में बंटा हुआ। सब अपने को दूसरांे से बड़ा मानते हैं और एक ही जाति में भोजन व बेटी आदि का व्यवहार करते हैं। इसका समाज पर जो दुष्प्रभाव हो रहा है वह विद्वानजन जानते ही हैं। इससे समाज कमजोर हो रहा है और हिन्दू विरोधी विधर्मी इसका लाभ उठा रहे हैं। इस छूआछूत और ऊंच-नीच की समस्या ने ही समाज को तोड़ा और विधर्मियों ने धर्मान्तरण के कार्य में सफलतायें पायीं और आज भी सफल हो रहे हैं परन्तु हिन्दुओं पर इसका कोई असर नहीं पड़ रहा है। जनसंख्या के आंकड़ों में निरन्तर बदलाव आ रहा है जिससे हिन्दुओं का भविष्य व अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लग रहे हैं परन्तु क्या आर्यसमाज और क्या हिन्दू, सभी इससे बेखबर होकर अपने स्वार्थ, अपने अपने लाभ, पद व धन लिप्सा में मग्न हैं। आज हमारे पास न तो स्वामी दयानन्द हैं और न ही स्वामी श्रद्धानन्द। ऐसे में स्थिति निराशा की ओर बढ़ रही है। पाकिस्तान और बंगलादेश में हिन्दुओं से जो व्यवहार किया जाता है, उससे भी हम शिक्षा नहीं ले रहे हैं। जो थोड़ी बहुत कसर थी वह भी वोट बैंक की राजनीति ने पूरी कर दी है। हमें लगता है कि आज का समाज नास्तिकता के शीर्ष मुकाम पर पहुंच गया है। जहां से लौटाना सम्भव नहीं है। महर्षि दयानन्द व स्वामी श्रद्धानन्द जी बनाने के लिए आर्यसमाज ने अनेक गुरुकुल खोले थे परन्तु वह भी आधुनिकता से ग्रसित हुए निरर्थक से लगते हैं। इस स्थिति में डा. रघुवीर वेदालंकार जैसे विद्वान ही आर्यों का मार्गदर्शन कर सकते हैं। परन्तु होता यह है कि यदि कोई विद्वान कुछ कहता भी है तो वह प्रवचन बन कर रह जाता है जिसे सुनने के कुछ देर बाद भुला दिया जाता है। आर्यसमाज में पदों आदि के लिए मुकदमें लड़ने व उस पर भारी व्यय का प्रबन्ध आसानी से हो जाता है परन्तु समाज के सामने जो समस्यायें हैं उस पर चर्चा करने का किसी को अवकाश ही नहीं है। अतः इस समस्या को ईश्वर पर ही छोड़ देना उचित है। वह जैसा करेगा हो जायेगा?

 

हम कुछ विद्वानों के विचार देकर इस लेख को विराम देते हैं। आर्यसमाज के शीर्ष विद्वान व नेता महात्मा नारायण स्वामी जी ने कहा है ‘जात-पांत का बंधन हिन्दू जाति के लिए कलंक का टीका है। इसने सारी जाति को छिन्न-भिन्न कर रखा है। हिन्दू जाति में परस्पर घृणा और द्वेष का प्रचार इसी की कृपा का फल है। इसलिए आर्य जाति की उन्नति इस बंधन के तोड़ने पर ही अवलम्बित है। मैं हृदय से चाहता हूं कि जाति-पांति तोड़क मंडल को इस कार्य में सफलता पाप्त हो।’ भगवान् बुद्ध के वचन हैं ‘गंगा-यमुना आदि नदियां जैसे समुद्र में मिलकर अपनी स्वतन्त्र सत्ता और नाम खो देती हैं, वैसे ही सब जातियों के मनुष्य सत्य-धर्म ग्रहण करते ही अपनी जाति और गोत्र खोकर एक हो जाते हैं।’ डा. भीमराव अम्बेडकर कहते हैं ‘जात-पांत का तोड़ना ही हिन्दुओं का असली संगठन है। जात-पांत को मिटाने से जब संगठन हो गया, तो फिर ‘शुद्धि’ की कोई आवश्यकता न रह जाएगी। हिन्दू समाज जात-पांत को बनाए रख कर अपनी रक्षा नहीं कर सकता।’ डा. अम्बेडकर जी के शब्दों में जो सन्देश है वह हमें आज की आवश्यकता लगता है। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

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