विश्वास नहीं होता ज्योतिरादित्य सिंधिया हार गए हैं

विवेक कुमार पाठक

स्वतंत्र पत्रकार

पांच महीने पहले जो युवा नेता मप्र में बदलाव की मुहिम का नायक रहा हो वो इस तरह अपनी सुरक्षित सीट से हार जाएगा विश्वास नहीं होता। वाकई विश्वास नहीं होता कि 5 बार से गुना शिवपुरी के सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया 2019 लोकसभा चुनाव में हार गए हैं। गुना सिंधिया के लिए इतनी कमजोर सीट न होकर भी कमजोर कैसे बन गयी ये यक्ष प्रश्न है। हालिया जवाब तो ये है कि ये देशव्यापी मोदी लहर का असर है। जवाब कमजोर भी नहीं है सिंधिया ही नहीं कांग्रेस के राश्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी अपने परिवार की परंपरागत सीट अमेठी से हार गए हैं तो लहर सिंधिया से लेकर राहुल गांधी सबके सामने रही है मगर क्या गुना में सिंधिया और उनके सलाहाकार इतनी कठिनाई समझ रहे थे। शायद नहीं अगर संकट होता तो सिंधिया के लिए ग्वालियर लोकसभा भी एक सुरक्षित विकल्प था। गुना की तुलना में ग्वालियर में कांग्रेस के पास आधी नहीं लगभग पूरी विधानसभा सीटें2018 चुनाव में आ गयीं थीं। यकीनन ग्वालियर में सिंधिया के लिए अपेक्षाकृत आसान राह रहती। गुना को सिंधिया ने सेफ समझा मगर जातीय समीकरण से लेकर एंटी इनकम्बैंंसी वहां अंदर ही अंदर धधक रही थी लेकिन फिर भी इसके बाबजूद सिंधिया का अपना आकर्षण और डेढ़ दशक का जनसमर्थन इस बार गुना शिवपुरी के चुनाव में कहां चला गया ये विचार करने की बड़ी ही गंभीर बात है।
ये इसलिए भी जरुरी है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया मोदी लहर में हारे ही नहीं बल्कि बड़े अंतर से हारे हैं ये शायद गुना में उनके चुनावी प्रबंधन की असफलता का सबसे बड़ा प्रमाण है। वे आम मतदाताओं की नब्ज को समझ नहीं पाये अथवा उनका व्यापक चुनाव अभियान कमजोर के पी यादव को सहानुभूति दे गया ये विचार बहुतों के मन में होगा। सवाल ये भी ये कि क्या सिंधिया सलाहाकार यादव और किरार वोटों की अधिकता वाली गुना सीट पर अपने प्रतिद्धंदी भाजपा उम्मीदवार के प्रचार और रणनीति को क्या जरा भी नहीं समझ पाए। क्या गुना में लाखों किरार वोट कहां जाएंगे ये कांग्रेस को अंदाजा नहीं था या पता करने की कोई वजह नहीं थी। कई महीनों तक ग्वालियर चंबल के सिंधिया समर्थक नेता और कार्यकर्ताओं की मेहनत पर भी इस करारी हार ने सवाल खड़े कर दिए हैं। विधानसभा चुनाव की जीत के बाद गुना में ग्वालियर चंबल अंचल से सिंधिया सर्मथक मंत्रियों एवं विधायकों ने गुना मेंं क्या जमीनी काम किया ये उन्हें खुद से पूछना ही चाहिए। क्यों वे जनता की नब्ज टटोलकर सिंधिया को बताने में नाकामयाब रहे। सिंधिया ने लहर का सामना किया हो मगर उनकी खुद की यूएसपी क्यों गुना में बेअसर हुई इसका जवाब कांग्रेस और ज्योतिरादित्य सिंधिया को अविलंब तलाशना चाहिए। गुना के चुनाव ने एक बात यह भी साबित की है कि सिंधिया की टीम इस बार आम जनता से दिल से जुड़ने में कामयाब नहीं हो सकी। फौजफाटे के साथ प्रचार हुआ जमकर मगर जनता से संवाद न हो सका बाहरी कांग्रेसी नेताओं का। पिछले दो तीन महीनों में गुना में प्रचार के नाम पर बहुतेरे कांग्रेस नेताओं ने सेल्फी सेल्फी खेल भी जमकर खेला है तो कईयों ने चुपचाप मेहनत भी की हेगी। निसंदेह उनके तमाम कार्यकर्ताओं ने अपने बस तक जनता के बीच पसीना भी बहाया भी है। इसके बाबजूद कांग्रेसियों का पसीना अपने महाराज के लिए जीत की फसल नहीं लगा सका ये सोचने लायक बात है। सिंधिया की अपने राजनैतिक जीवन की ये पहली हार है। हार राजनीति में दिग्गजों ने भी देखी है। सालों पहले इंदिरा गांधी से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी अपने लोकसभा चुनाव में पराजित हुए थे मगर आगे इन्हीं हारों की सीख से वे भारतीय लोकतंत्र की आवाज भी बने। ज्योतिरादित्य सिंधिया युवा हैं और उनका लंबा राजनैतिक जीवन अभी आगे जिया भी जाना है। अगर वे इंदिरा और अटल की तरह सीखते हैं तो आगे उन्हीं की तरह राजनैतिक परिपक्वता पाने में सफल होंगे। सिंधिया के लिए ये चिंतन और मनन का समय है। फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि गुना की हार के बाद सिंधिया को अपने दो चार नहीं सैकड़ों और हजार आंख कान पार्टी में बनाने होंगे तभी वे इस तरह की अप्रत्याशित हारों से खुद और अपनी पार्टी को बचा सकेंगे। वे युवा हैं उन्हें आगे बेहतर कार्य के लिए अनंत शुभकामनाएं।

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