डॉ. मयंक चतुर्वेदी
जिसका अतीत इतना भव्य हो और जिसने सनातन संस्कृति की रक्षार्थ अपना संपूर्ण जीवन स्वाह कर दिया हो, इस वाक्य के साथ कि इदम् न मम, इदम् राष्ट्राय स्वाहा । मेरा सब कुछ अपने सनातन राष्ट्र भारत के लिए समर्पित है मेरा कुछ नहीं। वह व्यक्ति जब जगतगुरू शंकराचार्य की पदवी से सुशोभित होकर भी यदि किसी राजनीतिक पार्टी को श्रेष्ठ और किसी को यह कहकर कठघरे में खड़ा करने का प्रयत्न करे कि हिन्दुओं को ही डराकर वोट लेने का प्रयास करती है भाजपा, तब अवश्य ही यह सोचने में आ जाता है कि कम से कम त्याग से पूर्ण शंकराचार्य की पदवी पर बैठे आसन से तो देश ऐसी उम्मीद कतई नहीं करता है।
द्वारका शारदा पीठ और ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का यदि अतीत जानें तो वह भारत के उन श्रेष्ठ सन्यासियों में से एक हैं, जिन्हें सनातन धर्म ध्वजवाहक करपात्रीजी महाराज का सानिध्य मिला । 2 सितम्बर 1924 को मध्य प्रदेश राज्य के सिवनी जिले में जबलपुर के पास दिघोरी गांव में स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म होता है और वे नौ वर्ष की उम्र में घर छोड़ कर धर्म यात्रायें प्रारम्भ कर देते हैं। इस दौरान वह काशी पहुंचकर ब्रह्मलीन स्वामी करपात्री महाराज के संपर्क में आते हैं और उनसे वेद-वेदांग, शास्त्रों की शिक्षा लेते हैं। वस्तुत: यह भारतवर्ष के लिए वह समय होता है जब भारत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने की लड़ाई चल रही थी। इसी समय के दौरान जब 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा लगा तो वह भी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे और सिर्फ 19 साल की उम्र में ही वह ‘क्रांतिकारी साधु’ के रूप में प्रसिद्ध हुए थे।
इसी दौरान उन्होंने वाराणसी की जेल में नौ और मध्यप्रदेश की जेल में छह महीने की सजा भी काटी। आगे वे करपात्री महाराज द्वारा स्थापित राम राज्य परिषद के अध्यक्ष भी रहे। 1950 में ज्योतिष्पीठ के ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती से दण्ड-सन्यास की दीक्षा ली और दण्डी स्वामी के साथ स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती नाम से जाने जाने लगे । इन्हें 1981 में शंकराचार्य की उपाधि मिली। आज वह आदिशंकर द्वारा स्थापित चार पीठों में से दो पीठों के सर्वमान्य शंकराचार्य हैं। अब यहां यह बताने की कदापि आवश्यकता नहीं कि आदिशंकराचार्य कौन थे और उन्होंने सनातन संस्कृति के विस्तार एवं विकास के लिए अपना क्या योगदान दिया है। किंतु जब शंकराचार्य पद पर बैठे स्वरूपानन्द सरस्वती यह कहते हैं कि जीएसटी,नोट बंदी,महंगाई, से व्यापारी, किसान और आम आदमी सभी परेशान हैं लेकिन इस पर प्रधानमंत्री मोदी के पास कोई जवाब नहीं है तो वे अब गुजरात चुनाव में नीचता शब्द पर ही राजनीति करने लगे है। तब अवश्य यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि क्या ऐसी बातें देश के प्रधानमंत्री के लिए शंकराचार्य के मुख से सुशोभित होती हैं ?
इतना ही नहीं तो वे आज भाजपा पर यह भी आरोप लगा रहे हैं कि यह पार्टी हिन्दुओं के नाम पर हिंदुओं को ही डरा कर वोट लेने का प्रयास करती है, जबकि इन्होंने आज तक हिंदुओं के लिए कुछ नहीं किया। हिंदू धर्म की बात करने वाले ये भाजपाई सनातन धर्मी नहीं वरन आर्य हैं। अयोध्या में मस्जिद गिराने की बात कह कर लालकृष्ण आडवानी ने देश को गुमराह किया था जबकि उन्होंने मंदिर ही गिराया था। राम मंदिर का विवाद कोर्ट में ही निपट सकता है इसके लिए राम जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति हमारा पक्ष रख रही है।
उन्होंने यह भी कहा कि लोग मुझे कांग्रेसी समझते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। पहले मैं कांग्रेसी था। अब मैं किसी पार्टी में नहीं हूं। सिर्फ शंकराचार्य हूं। जिस तरह राष्ट्रपति बनने के बाद प्रणब मुखर्जी किसी पार्टी के नहीं थे, उसी तरह शंकराचार्य भी किसी पार्टी के नहीं, समाज के होते हैं। मैं भी समाज के हित की बात करता हूं। किंतु यहां सीधा प्रश्न यही है कि क्या उनका यह कथन कहीं से यह बताने के लिए उपर्युक्त है कि वे अब किसी पार्टी के नहीं? उनकी बातों से तो यही प्रतीत होता है कि वह आज भी एक सन्यासी के रूप में निर्विकल्प न रहते हुए राजनीति में विशेष दखल रखते हैं, उनकी प्रत्येक बात एक राजनीतिक पार्टी कांग्रेस को ही हर बार पुष्ट करने वाली होती है। क्या यह देश एक सन्यासी से जिसके भक्त हर राजनीति से ऊपर उठकर उनका पूजन एवं वंदन करते हैं यह अपेक्षा करता है ?
जब वे कहते हैं कि भाजपा राज में भी भारत गौमांस का निर्यातक देश बना हुआ है। गौहत्या रोकने वालों को गुंडा बताया जा रहा है तब उनसे यही पूछना है कि देश में उनके जन्म से लेकर अब तक भाजपा का शासन रहा ही कितने वर्ष हैं, अधिकतम कांग्रेस का शासन रहा और वे उस समय में शंकराचार्य भी रहे, यही बातें क्या उन्होंने कांग्रेस शासन में नेहरू, इंदिरा, राजीव, राव या मनमोहन में से किसी से पूछी ? और यदि नहीं तो क्यों नहीं पूछी गईं ? यह सब बातें भाजपा के मोदी राज में ही क्यों उन्हें याद आ रही हैं ?
वस्तुत: शंकराचार्य स्वरूपानंद पुनश्च यह ध्यान रखें कि वह सनातन धर्म के महान उद्घोषण एवं प्रेरणापुंज है, प्रत्येक हिन्दू कहीं न कहीं उनसे, उनके आचरण से प्रेरणा ही ले रहा है। वह ऐसा कुछ न कहें जो किसी को आहत करने का कारण बने, क्यों कि उनके लिए तो सभी हिन्दू और विविध राजनीतिक पार्टियों में कार्यरत लोग जो उन पर बिना किसी राजनीतिक लाभ-हानि के आदिशंकर पद-प्रतिष्ठा पर आसीन होने से श्रद्धा रखते हैं, उनकी ऐसी कही बातों से अंदर तक आहत होते हैं।