पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था के विरोधी, समाजवादी-देशभक्त ,सच्चे आशिक थे मजाज़

 अरविन्द विद्रोही

१९ अक्टूबर ,१९११ को रुदौली तत्कालीन अवध प्रान्त वर्तमान में फैजाबाद जनपद में चौधरी सिराजुल हक़ के पुत्र रूप में जन्मे असरारुल हक़ ने उस दौर में अपनी आँखें खोली थी जब भारत भूमि ब्रितानिया हुकूमत की गुलामी की बेड़ियो में जकड़ी थी | आवाम एक दीवाने की तरफ अपनी महबूबा यानि आजादी को हासिल करने के लिए तड़प रही थी | अपनी महबूबा को पाने के लिए दिवानो ने जान ली भी और जान दी भी | पूंजीवादी – साम्राज्यवादी व्यवस्था और ब्रितानिया शोषण – दासता विरोधी उभर व जंग से असरारुल हक़ उर्फ़ शहीद उर्फ़ मजाज़ की शायरी पुख्ता होने लगी | भाई अंसार जो की आजाद भारत में सांसद रहे और १९९६ में जिनका इंतकाल हुआ तथा तीन बहनों क्रमशः आरिफा खातून , साफिया खातून , हामिद सालिम के अज़ीज़ मजाज़ कालांतर में शायरी के शौकीनों और कलमकारों के आँखों के तारे बन गये |

रुदौली से लखनऊ , लखनऊ से आगरा , आगरा से अलीगढ तक का सफ़र मजाज़ ने शैक्षिक योग्यता हासिल करने के लिए किया | अमीनाबाद इंटर कॉलेज-लखनऊ से हाई-स्कूल , सैंट जोंस कॉलेज -आगरा से इंटर , अलीगढ विश्व -विद्यालय से बी ए पास करने वाले मजाज़ हाकी के एक बेहतरीन खिलाडी भी थे | मजाज़ को कॉलेज में ही हुये एक मुशायरे में बेहतरीन ग़ज़ल पेश करने के कारण गोल्ड मेडल दिया गया था | मजाज़ एक देश भक्त , दीवाने शायर थे | बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न मजाज़ की शायरी की बेबाक टिप्पणिया मजाज़ के अंतर्मन में व्याप्त प्यार , करुना , संवेदना , देश प्रेम और मज़लूमो के प्रति उनकी सोच को दर्शाती हैं |मिल मालिकों के मुशायरों में शिरकत की जगह मजदूरों के द्वारा आयोजित मुशायरे में शिरकत करने व तवज्जो देने वाले समाजवादी विचार धारा के मजाज़ ने गुलाम भारत में जन्म लिया और दुर्भाग्य वश बिना समाजवादी राज्य निर्माण का सपना पूरा होते देखे आजाद भारत में ५ दिसम्बर , १९५५ को उपेक्षा व मानसिक तनाव का शिकार हो कर काल के हाथो शिकार हो गये | मजाज़ की शायरी में स्वतंत्रता संग्राम का समर्थन (पहला जश्ने आजादी ), पूंजीवादी व्यवस्था का पुरजोर विरोध (मुझे जाना है एक दिन ,आहंगे जुनू ,सरमायादारी ) . शोषण की खिलाफत व करुना -संवेदना (इन्कलाब ,दिल्ली से वापसी ,एक जलावतन की वापसी,खाना बदोश ,नौजवान ) , धार्मिक समानता (ख्वाबे सहर , इशरते तन्हाई ) , गाँधी के प्रति श्रधान्ज़ली (सानिहा ) पढ़ते ही मजाज़ की वैचारिक दृठता व विस्तारिता परिलक्षित होती है| माजदा असद के शब्दों में — मजाज़ जीवन को लतीफा समझते थे | संभवता यह चुटकुले ही उनके जीवन के रंजो गम को भुलाने या उन पर पर्दा डालने में मदद करते थे | उन्होंने अपने अन्दर के दुखो को भुलाने के लिए लतीफो का सहारा लिया | और आखिर मजाज़ को कौन स गम सताता था ? मजाज़ की बहन हमीदा सालिम लिखती है कि — मजाज़ मेरा भाई एक नाटकिये ढंग से जीवन में उभरा और फिर इसी ढंग से डूब गया | इसके जीवन का आरम्भ साहस और उमंगो से भरा था लेकिन अंत अभावों और निराशा से घिर कर हुआ | वह जीवन को प्रकाशमय देखने की उम्मीद करता रहा और उसका जीवन धीरे धीरे अंधकारमय होता गया |उसने जीवन को अपनी तहरिकी क़ाबलियत की संपत्ति सौपी ,अपनी शायरी दी , जिसमे इस ब्रह्माण्ड को सुन्दर बनाने का साहस है, भविष्य को संवारने की उमंगें हैं,यौवन की जौलानी है,अनुभव का चिन्ह है ,चेतना है ,तड़प है,अशांति है ,सुन्दरता है ,सफाई है,सादगी है,लेकिन जीवन ने उसे परेशानिया तथा शर्मिंदगी दी ,उलझने ,छटपटाहटें दी,वह जीवन से प्यार मांगता रहा ,प्रसन्नता मांगता रहा ,चैन मांगता रहा ,खुशहाली मांगता रहा परन्तु जीवन धीरे-धीरे उससे दूर होता चला गया कि यहाँ तक जीवन की फसल को अपने लहू से सींचने वाले शायर को मौत की बाँहों में सोना पड़ा |वे आगे लिखती है कि मजाज़ को आगरे में फानी का पड़ोस तथा कॉलेज में ज़ज्बी का साथ मिला |शिक्षा का पतन और शेरो-शायरी के दौर का उत्कर्ष शुरु हुआ |कॉलेज पत्रिका के संपादक बने | दिल्ली रेडियो-स्टेशन में इसी समय नौकरी लगी |अलीगढ में गुजारा गया समय जग्गन भैय्या के जीवन का सबसे प्रकाशमय काल है,अधिकतर अच्छी कवितायेँ इसी काल में लिखी गयी | सरदार भाई,सत्ते भाई, भाई अंजान सब एक समूह से थे |

मजाज़ जिसके पास तलवार की-सी तेज़ी और संगीत की-सी कोमलता दोनों ही है,जिसके ह्रदय में बागी की आग ,जिसकी रंगों में यौवन का उत्स ,जिसके कंठ में नगमा-ए-संज काफर था,जिसने क्रांति के नारे लगाने के स्थान पर क्रांति के राग गाये- वह मजाज़ शिक्षको का प्रिय ,विद्यार्थियो के लिए गर्व ,लडकियो के लिए चाहत था | अलीगढ से दिल्ली रेडियो स्टेशन की नौकरी के दौरान दिल्ली में ठहरने के दौरान मजाज़ ने दिल पर ऐसी चोट खायी जिसका घाव कभी ना भर सका| हमीदा आगे लिखती है ,– मजाज़ ने अपने लिए घर वालो के लिए , समाज के लिए प्रेम किया ,ऐसा गहरा तथा घनिष्ठ कि अंतिम समय तक यह प्रेम इनके साथ रहा परन्तु भाग्य का खेल देखिये कि हाथ भी बढाया तो निषिद्ध वृझ की तरफ | दिल्ली की चोटी के खानदान की इकलौती पुत्री चंचल ,सुन्दर,नटखट ,लाड-प्यार में पली,सुख-ऐश्वर्या की और भारी -भरकम संपत्ति की स्वामिनी ,जो भी कहें ,ये बेल मंडवे चढ़ती तो कैसे ? परन्तु शायर चरणों में मोती बिखराता रहा,सिर पर फूल बरसता रहा और सिर्फ चन्द मुस्कानों की चाह रखता रहा |लेकिन बुरा हो उस समाज का , समाज की टेढ़ी-तिरछी कठोर दृष्टि से यह शायर घुट कर रह गया और उसका दिल टूट गया | सरदार जाफरी मजाज़ के गम की वज़ह को कुछ इस तरह बयान करते है,— उसने उम्र भर में सिर्फ एक लड़की से मोहब्बत की और वह भी शादी शुदा थी | मजाज़ की मोहब्बत खामोश थी ,लेकिन शेरों से छलकी पड़ती थी | एक दिन उस घर का दरवाजा हमेशा के लिए बंद हो गया | अब सिर्फ शिकस्ता-दिली और बेकारी है| दिल में इन्कलाब और बगावत की आग जल रही है,जिसे शराब भी नहीं बुझा सकती ,बल्कि उस आग को और भड़कती है | सबसे पहला जाम उन महबूब हाथो से मिला था , जिन्हें मजाज़ ने कभी छूने की कोशिस नहीं ही | इस कैफियत में मजाज़ की सबसे हसीन और उस अहद की सबसे भरपूर नज़्म आवारा की तख्लीक हुई जिसमे मजाज़ के जाती गम ,उसके इंकलाबी एहसासात के साथ मिलकर एक हो गये हैं ————

शहर की रात और मैं नाशाद व नाकारा फिरूँ

जगमगाती जागती सड़को़ पर आवारा फिरूँ

गैर की बस्ती है ,कब तक दर ब दर मारा फिरूँ

ए गेम दिल ,क्या करूँ ! ए वहशते दिल ,क्या करूँ !

असरारुल हक़ उर्फ़ मजाज़ इंसानियत के पुजारी,प्रगतिशील,आन्दोलन के कवि,समाजवादी सोच के प्रहरी तथा एक सच्चे आशिक थे |कृष्ण चंदर ने कहा था कि मजाज़ हमारे ज़माने और हमारी पीढ़ी का सबसे ज़हीन ,बालिग नज़र और ज्याला शायर था | इस्मत चुगताई के अनुसार – लड़कियां मजाज़ के नाम के पर्चे निकल के खुश होती हैं | और हम सबके मजाज़ ने सिर्फ एक बार मोहब्बत की और उसी नाकाम मोहब्बत की दीवानगी को निभाते निभाते इस ज़माने से चले गये |

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