कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे

सिद्धार्थ मिश्र”स्‍वतंत्र”journalism

एक बहुत पुराना गीत है “कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे” । आज सुबह इस गीत को सुन रहा था कि अचानक कुछ विचार मन में कौंध उठे । बेहद अर्थपूर्ण ये गीत आज वाकई हिंदी पत्रकारिता की दुर्दशा को स्‍वर देता प्रतीत हुआ । भारतीय पत्रकारिता का उद्भव गुलामी के विषम काल में हुआ, शायद इसीलिए संघर्ष और सत्‍यनिष्‍ठा की विरासत संजोकर हमारे पूर्वजों ने पत्रकारिता को एक आदर्श के तौर पर स्‍थापित किया था । बहरहाल भारत में पत्रकारिता के जनक जेम्‍स हिक्‍की माने जाते हैं । इन्‍होने अपने अखबार हिक्‍की गजट से भारतीय पत्रकारों को प्रेरित भी किया और तटस्‍थ पत्रकारिता के सिद्धांत भी समझाये । इस बात को उनके अखबार की टैग लाईन से समझा जा सकता है । इन लाईनों में उन्‍होने स्‍पष्‍ट तौर पर लिखा था, खुला सभी के लिए प्रभावित किसी से नहीं । मेरी समझ से ये पत्रकारिता के क्षेत्र के सबसे आदर्श वाक्‍य होंगे। अपने इस सिद्धांत को उन्‍होने अपनी पत्रकारिता में सदैव शामिल रखा । अंत में उन्‍होने इसका खामियाजा भी भुगता,किंतु जाते जाते ही सही उन्‍होने भारतीय जनमानस को अखबार की ताकत से परिचित करा दिया । इसके बाद और भी कई अंग्रेजी समाचार पत्र आये लेकिन उनकी तुलना हिक्‍की गजट से नहीं की जा सकती । ध्‍यातव्‍य हो कि अंग्रेजों की भाषा में प्रकाशित होने के कारण अंग्रेजी समाचार पत्रों को काफी हद तक ब्रिटिश सरकार से सहूलियतें भी मिलीं । जिस कारण उनका संघर्ष और उनके तेवर कभी भी अंग्रेजों के विरूद्ध नहीं रहा । स्‍पष्‍ट शब्‍दों में कहें अंग्रेजी में प्रकाशित होने वाले इन पत्रों का भारत के आम आदमी से कोई लेना देना नहीं था,क्‍योंकि न तो वो उनका पाठक होता था और न ही प्रशंसक । ध्‍यान रखीयेगा यहां आम भारतीय की बात हो रही है न‍ कि उच्‍चवर्गीय परिवारों से ताल्‍लुक रखने वाले अंग्रेजीदां इंडियंस की । भारत के उपेक्षित आदमी को पत्रकारिता से जोड़ने का श्रेय निश्चित तौर पर हिंदी पत्रकारिता को जाता है । उनके दर्द,उनकी व्‍यथा का उनकी ही भाषा में चित्रण करने वाले हिंदी समाचार पत्र निश्चित तौर आमजन मानस के प्रथम अखबार माने जा सकते हैं,क्‍योंकि वो सीधे तौर पर भाषा,भावों और संघर्ष के धरातल पर अपने पाठकों से जुड़े हुए थे । हिंदी पत्रकारिता को जन्‍म देने का श्रेय जाता है उदित मार्तंड को । अपने नाम उगता हुआ सूरज के अनुरूप ही यह पत्र हिंदी पत्रकारिता का प्रथम सूर्य कहा जा सकता है ।

 

हांलाकि आर्थिक समस्‍याओं के कारण ये समाचार बहुत कम समय तक ही अस्तित्‍व बचा पाया,किंतु इसने अपने तेवरों से हिंदी पत्रकारिता को स्‍वराज तक पहुंचने का आदर्श पथ दिखा दिया था । जहां तक हिंदी पत्रकारिता का प्रश्‍न है तो इनकी कथा सीधे तौर भारतीय राष्‍ट्रवादी विचारों की यात्रा से जुड़ती है । इसी वजह से इन समाचार पत्रों को कई बार ब्रिटिश सरकार के असंख्‍य दंश सहने पड़े । उदंत मार्तंड के बाद अनेकों हिंदी समाचार पत्र अस्तित्‍व में आये जिनमें बनारस अखबार,समाचार सुधावर्षण, भातर मित्र,सुधाकर,कर्मयोगी,प्रताप एवं आज प्रमुख थे । इस दौर ने हमें भारतेंदु हरिश्‍चंद्र,प्रताप नारायण मिश्र, माखनलाल चतुर्वेदी,बाबूराव विष्‍णु राव पराणकर,पांडे बेचनशर्मा उग्र, दुर्गा प्रसाद मिश्र जैसे महान संपादकों से परिचित कराया । इन उद्भट विद्वानों ने अपने संपादकीय लेखन,अध्‍यवसाय एवं ईमानदारी से पत्रकारिता की दशा-दिशा निर्धारित की । हिंदी पत्रकारिता की वर्तमान उन्‍नती वास्‍तव में इन्‍हीं लोगों के सुकर्मों का परिणाम है ।

उपरोक्‍त सारे संघर्षों को यदि आज के परिप्रेक्ष्‍यों में देखें तो वास्‍तव में हिंदी पत्रकारिता आज दम तोड़ती प्रतीत होती है । खबरों के चयन से लेकर भाषा तक कहीं भी शुद्धता नहीं है । संपादकाचार्य बाबू राव पराणकर ने कहा था, आने वाले समय में पत्रों के संपादक अखबार मालिकों के कुशल प्रबंधक होंगे । आज के परिवेश को देखते हुए उनकी ये भविष्‍यवाणी पूर्णतया सत्‍य सिद्ध साबित हुई है । कभी जनसमस्‍याओं के लिए जागरूक रहने वाले पत्र संपादक आज विज्ञापनों के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार हैं । मिशन के तौर पर शुरू हुई हिंदी पत्रकारिता आज कमीशन और सेंसेशन के दोराहे पर पहुंच चुकी है । आपको नीरा राडिया प्रकरण अथवा अभी हाल ही मे निजी चैनल के पत्रकारों द्वारा एक केंद्रिय मंत्री से खबर दबाने की कीमत वसूलने वाला मामला तो याद ही होगा । ऐसे असंख्‍यों मामले हैं जो संपादक की उपेक्षा का शिकार होकर मेज पर ही दम तोड़ देते हैं । वास्‍तव में यदि देखा जाए तो आज संपादक का सबसे महत्‍वपूर्ण काम निष्‍पक्ष खबरें प्रकाशित करने से ज्‍यादा खबरों को दबाने का हो गया है ।ये तो रही अखबारों की बात जहां तक प्रश्‍न हैं हिंदी समाचार चैनलों की तो इनकी स्थिती तो बद से बद्तर हो गयी है । समाचार के नाम पर अस्तित्‍ववान ये चैनल आज अश्‍लीलता और विभत्‍स कारनामे परोस रहे हैं ।यदि ऐसा नहीं है तो पूनम पांडे,सनी लियोनी और मिका सिंह जैसे घटिया लोग सुर्खियां क्‍यों बटोर रहे हैं ? जहां तक प्रश्‍न है समाचारों का तो इनकी कमी को भौंडे हास्‍य,रियलिटी शो,सास बहू और साजिश से पूरा कर लिया जाता है । विचारणीय प्रश्‍न है कि जिन कार्यक्रमों के प्रदर्शन का ठेका मनोरंजन चैनलों ने ले रखा है उन्‍हे समाचारों के नाम पर दिखाने का क्‍या प्रयोजन है ? अथवा कॉमेडी सर्कस, या बिग बॉस जैसे स्‍तरहीन कार्यक्रमों से किस प्रकृति का ज्ञानवद्धर्न होता है ? रही सही कसर पूरी करती हैं ग्‍लैमर और विचित्र परिधानों में रंगी पुती एंकरों के बेहूदे प्रश्‍न एवं विभत्‍स संवाद शैली । सबसे हास्‍यापद बात तो ये होती है कि जब देश सूखे से बेहाल होता है तो ये ऐश का बढ़ा हुआ पेट,तो कभी शीला-मुन्‍नी और रजिया की बर्बादी की दासतां चटखारे ले कर सुनाते हैं । शायद इनके इसी कृतित्‍व को ध्‍यान में रखकर ही मार्कंडे काटजू ने टीवी पत्रकारों के वैचारिक स्‍तर पर कटाक्ष किया था । गिरावट की ये दासतां यही खत्‍म नहीं होती कभी भाषा के स्‍तर पर शब्‍दकोष को नए शब्‍द देने वाले पत्रकार आज चलताउ सिनेमा के बूंबाट और इश्‍कजादे जैसे शब्‍द चुराने से गुरेज नहीं करते । विचार करीये क्‍या इन परिप्रेक्ष्‍यों में चल रही पत्रकारिता को आदर्श पत्रकारिता कहा जा सकता है ? अथवा भाषा,संस्‍कृति,नैतिकता एवं ईमानदारी के स्‍तर पर दिग्‍भ्रमित ये पत्रकार क्‍या देश का कोई भला कर सकते हैं ? अंत में  बस इतना ही- कारवां  गुजर गया गुबार देखते रहे ।

1 COMMENT

  1. I could not agree more.The re is no standard in Indian media let it be print media, television or even radio there are four dominant news anytime of the day or night[1] cricket,[2] scams and scandals[3] Bollywood [4] praise of the Nehru- Gandhi dynasty and Chamachas of the Sonia. Then there is a news about rest of the country.The discussions are of very low calibre and the anchors seem to be against the common man most of the time and there is no space for the acute and burning problems of the country. I cannot believe that 120 karore people being treated as sheeps and goats by the Congress and media at least since 2004,
    looting the assets of the nation without any responsibility or fear from the law because all have been bought by the head of U.P.A.
    Is this democracy ?
    Is India free from foreign rule?
    We need a radical change from the present rulers to free India from this mess.

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