कार्टूनों का सांस्कृतिक रूपांतरण

राजीव रंजन प्रसाद

आजकल भारतीय घरों में बच्चों का कार्टून देखना एक मजेदार शगल बन चुका है। दिलचस्प बात तो यह है कि अब बच्चे सिर्फ कार्टून देखते भर नहीं हैं बल्कि उसके साथ खुद को जोड़ भी लेते हैं। उनके लिए कार्टून देखना एक रोमांचकारी अनुभव है। कार्टून में दिखने वाले जंतु.चरित्रों द्वारा इंसानी हाव.भाव और बोली.आवाज़ में अभिनय करना बच्चों को अत्यंत प्रिय है। आप प्राय: घरों में बच्चों को टेलीविज़न के सामने बैठकर कार्टून देखते हुए देख सकते हैं। ये बच्चे सिर्फ एक दर्शक भर नहीं होते अपितु उनकी सक्रियता कई मायनों में किसी सयाने आदमी से अधिक सजग और संवेदनशील होती है। कार्टून में दिखाए जाने वाले दृश्य, बोले जा रहे संवाद तथा तेजी से बदल रहे कथाक्रम सब के सब बच्चों को संवेदित करते हैं। कार्टून के जादू.लोक में घटने वाली घटनाएँ कई बार बच्चों को चकित कर देती है तो कई दफा अनायास उनके मुख से ‘उफ’, ‘आह’, ‘ओह नो’, ‘ओह शिट’ आदि शब्द निकल पड़ते हैं।

अब तो बच्चे मुँह भी बनाते हैं तो कार्टूनों की नकल करते हुए, संवाद भी बोलते हैं तो कार्टूनों की ही तरह हू-ब-हू। उनकी हरकतें तो माशाअल्लाह बिल्कुल कार्टून के फे्रम में ही सधी मालूम पड़ती हैं। पोगो चैनल, कार्टून नेटवर्क, निकल डियन, हंगामा, डिज्नी चैनल, निक आदि ऐसे टेलीविज़न चैनल हैं जिनके कार्टूनों की लोकप्रियता.रेटिंग सर्वाधिक है। बच्चे इन चैनलों को घंटों चाव से देखते हैं लेकिन ऊबते-थकते नहीं। प्रमुख कार्टून धारावाहिकों में टॉम एण्ड जैरी, डोनाल्ड डक, टेल्स पिन, लिटिल स्टुअर्ट, मिस्टर बिन, पिन्क पैन्थर और हागीमारू, बेन 10, बैटमेन, पोकमैन, रिच-रिच, अनिमे वगैरह के नाम गिनाए जा सकते हैं। अपनी बनावट.रचना एवं प्रभाव.दृष्टि में ये कार्टून-चरित्र चाहे जितने भी दमदार तथा लोकप्रिय क्यों न हों लेकिन वास्तव में ये ‘इम्पटी सिम्बल’ की भाँति ही कार्य करते हैं। इनका अपना कोई अंत:अस्तित्व नहीं है।

बावजूद इसके ये कार्टून बच्चों को लुभाने के अलावे लंबी अवधि तक उन्हें टेलीविज़न सेट से जोड़े रखते हैं। इसकी पड़ताल के लिए थोड़ा गहराई से विवेचन करें तो पाते हैं कि मनोरंजन, कौतूहल, उत्तोजना और बच्चों के चिपकू प्रवृत्तिा को बढ़ाने में सक्षम इन कार्टूनों के पीछे एक बहुत बड़ा पूंजी.तंत्र काम कर रहा है। ‘हीमैन’, ‘बैटमैन’ ‘पोकमैन’ जैसे ‘सुपर हीरो’ की देखादेखी गढे ग़ए ये सभी कार्टून-चरित्र वास्तव में उस साम्राज्यवादी सोच का हिस्सा हैं जिसमें बच्चों को यह नैतिक संदेश दिया जाता है कि आप एक अच्छे बच्चे होने के साथ.साथ एक उत्पादक भी हैं। यहां हर चीज की कसौटी उत्पादक-क्षमता है। यहाँ तक कि प्यार के सीन के बीचोबीच किसी उत्पाद को बेचने की कवायद की जा सकती है। यह चलन विदेशों में आम है जो वहाँ के बच्चों को रुचती है, उनके भीतर गुदगुदी पैदा करती है। आप टेलीविजन पर प्रसारित होने वाले प्राय: कार्टून धारावाहिकों में पाएँगे कि अधिकतर कार्टून उस पश्चिमी समाज का प्रतिनिधि चेहरा सामने रखता है जो इन दिनों अलगाव और बिखराव की स्थिति में है और अक्सर अटपटा और अजीबोगरीब हरकत करता है। ऐसे कार्टून भारतीय बच्चों के भीतर नकारात्मक प्रभाव डालने के अतिरिक्त तनाव, अवसाद एवं हीनभावना जैसी प्रवृत्तिायों को भी बढ़ाते हैं।

शुरूआती दिनों में भारतीय बाल मन पर इन कार्टून चरित्रों का प्रभाव नगण्य था। मनोरंजन के लिहाज से भारतीय बच्चे इन कार्टूनों को देखते अवश्य थे किंतु उनके बहाव में बहते नहीं थे। भौगोलिक-सांस्कृतिक अंतर भी एक मुख्य वजह थी जो उन्हें सौ-फीसदी कार्टून.बाज़ार से न जोड़ पाती थी। सो भारतीय कार्टून.विशेषज्ञों ने ऐसे उपाय तलाशने शुरू किए जो भारतीय बच्चों को विदेशी कार्टूनों की ही तरह उत्तार आधुनिक पूँजी.संस्कृति से तदाकार करा सके। उनके सामने एक चुनौती यह भी थी कि गढ़ा गया कार्टून.चरित्र सामाजिक रूप से भी प्रासंगिक हो, साथ ही उनमें इतना सामर्थ्य हो कि बच्चे उनसे अपनापन महसूस कर सके।

खोजबीन के इसी क्रम में कार्टून.इंडस्ट्री के लोगों ने भारतीय मिथकों के ‘सुपर हीरो’ हनुमान और गणेश को चुना। ये मिथकीय नायकों ‘बैटमैन’, ‘हीमैन’, ‘पोकमैन’ की तरह ही करिश्माई थे। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में चिह्नित इन मिथकों का सामाजिक महत्तव भी जबर्दस्त था। अन्य मिथकीय नायकों में जिन सांस्कृतिक प्रतीकों की धूम थी, वे थे-कृष्ण.बलराम, लव.कुश, घटोत्कच, छोटा भीम, राहु.केतु, गुरु शुक्राचार्य, नारद मुनि, ब्रह्म, विष्णु, शिव आदि।

इस सम्बन्ध में निर्देशक अनुराग कश्यप ने पहलकदमी की और ‘हनुमान’ नाम से भारत की पहली कार्टून फिल्म बनायी जिसे बच्चों के अलावे बड़े.बूढ़ों ने भी चावपूर्वक देखा। वर्ष 2005 में आए इस फिल्म के बाद एनिमेशन, ग्राफिक्स और कार्टून की दुनिया में सांस्कृतिक प्रतीकों का धड़ाधड़ अनुवाद होना शुरू हो गया। यह अनुवाद इन अर्थों में था कि इनको ‘टॉम एण्ड जैरी’, ‘टेल्स पिन’, ‘डोनाल्ड डक’ जैसे लोकप्रिय विदेशी कार्टून.चरित्रों के बरक्स खड़ा किया गया था। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में ‘ब्रिकोलेज सिस्टम’ जो अपने निर्माण में भंगुर प्रकृति का होता है, को सांस्कृतिक प्रतीकों ने नवीन अर्थवत्ताा दी। कार्टून.चरित्रों के लिए सांस्कृतिक प्रतीकों का इस्तेमाल मुनाफे का कारोबार था जिसने बच्चों की दुनिया में बाज़ार को अपने पूंजीवादी साजो-सामान के साथ आने का न्योता दिया। आज यदि विदेशी कार्टूनों का भारतीयकरण पूरी तेजी से हो रहा है तो यह सिर्फ सांस्कृतिक प्रतीकों के तेजबल का ही परिणाम है।

वर्तमान समय में हनुमान और गणेश जैसे मिथकीय.चरित्रों की लोकप्रियता की थाह इसी से लगायी जा सकती है कि हनुमान का अगला सीक्वेल रिटर्न ऑफ हनुमान नाम से बाज़ार में आ चुका है तो वहीं गणेश के तकरीबन पाँच सीक्वेल क्रमश: बाल गणेश, लिटिल गणेश, लिटिल गणेश 2, माई फ्रेण्ड गणेशा, ओ गॉड गणेश के नाम से प्रदर्शित हो चुके हैं। भारत की पहली एनिमेटेड कार्टून फिल्म ‘हनुमान’ का चयन आखिर क्या सोच कर किया गया? इसके जवाब में परसेप्ट पिक्चर कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी सुनील सहजवानी कहते हैं-”हमारा बैकग्राउंड मार्केटिंग का है। हमने लोगों के बीच में जाकर यह पता किया कि लोग क्या चाहते हैं, हमने पता किया कि क्या बनाया जाए जो आर्थिक तौर पर फायदेमंद तो हो ही सामाजिक तौर पर प्रासंगिक भी हो। इस दृष्टि से हनुमान सबसे प्रिय चरित्र लगा। इस सांस्कृतिक प्रतीक में वे सारे मूल्य और गुण सन्निहित थे जिसे आज भी बच्चे देखना चाहते हैं।”

गौरतलब है कि ये सांस्कृतिक प्रतीक प्रभाव के स्तर पर वजनी और मनोरंजन के स्तर पर काफी दमदार साबित हुए। खासकर ये सटीक मिथकीय गुणों द्वारा बच्चों को अपने बहाव में बहा ले जाने में भी सक्षम हैं। बस संकट यह है कि अगर सांस्कृतिक प्रतीकों के चयन में सांस्कृतिक विवेक का इस्तेमाल न किया जाए तो अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है। आज यह आशंका निर्मूल नहीं रही। व्यावसायिक पूँजी कमाने की अमानुषिक होड़ ने सांस्कृतिक प्रतीकों का विरूपण जिस अतार्किक और अवैज्ञानिक ढंग से करना शुरू कर दिया है उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि यह न तो मूल प्रतीकों का ठीक.ठीक आत्मसातीकरण है और न ही उनके साथ संस्कृति के अनुवाद के रूप में वाजिब न्याय।

भले ”हनुमान, गणेश, राम, कृष्ण, शिव, विष्णु, काली, सूर्य आदि अवतार लेकर मनुष्य के रूप में स्वयं कभी प्रकट नहीं हुए हों लेकिन वह उनका अवयव, अंग यानी प्रतीक अवश्य हैं। अमरकोश में प्रतीक का अर्थ है-‘अंगप्रतीको अवयव:’।” अंग्रेजी में प्रतीक के लिए ‘सिम्बल’ शब्द प्रयुक्त होता है। सांस्कृतिक या मिथकीय प्रतीक का आध्यात्मिक तथा विश्वव्यापी रूप, पाश्चात्य दार्शनिकों में सबसे पहले कैसिरर ने समझा था। ”कैसिरर का ‘प्रतीक’ वास्तव में एक ऐसा भाषिक प्रतिनिधि है जो एक ओर ‘मानसिक जगत’ के बिंब का स्थानापन्न है तो वहीं दूसरी ओर ‘वस्तु जगत’ का। इस अर्थ में कैसिरर ने प्रतीक की विशिष्टता प्रतिपादित करने के अलावे इसके विसंगतियों को भी छांटने का काम किया है।”

वस्तुत: हर समाज की अपनी एक संस्कृति होती है। प्रत्येक समाज के विचार, भाव, संवेग, लोकाचार के पक्ष, नृत्य.संगीत आदि कलाओं के रूप भिन्न होते हैं। यही नहीं खेल, मनोरंजन के साधन, रंगारंग त्यौहार, मन्दिर और पूजा.स्थल, ऐतिहासिक स्मारक, पवित्र नदियाँ, साहित्य.काव्य, धार्मिक ग्रन्थ एवं पौराणिक शास्त्र आदि में भी अंतर का भाव दृष्टिगोचर है। ये सभी सांस्कृतिक तत्तव भाषा के माध्यम से अभिव्यक्ति पाते हैं जिनका मुखरित रूप है-भाषा विशेष के सांस्कृतिक शब्द, संदर्भ और प्रतीक। उदाहरणार्थ-वैदिक संस्कृति को जानने के लिए यज्ञ, हवन, भोग, जीवोब्रह्म, वेद, उपनिषद, ब्रह्मसूत्र, देवी.देवता, संस्कार आदि शब्दों तथा उनकी संदर्भित परिभाषाओं की जानकारी अत्यावश्यक है। इसी प्रकार इस्लामी संस्कृति की जानकारी खुदा, नमाज़, रोजा, इस्लाम, पैगम्बर, हज, स्नान, मस्जिद, मकबरा, कलमा आदि अरबी.फारसी के सांस्कृतिक शब्दों के माध्यम से मिल सकती है।

ध्यान दें कि ”सांस्कृतिक प्रसार की प्रक्रिया में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान हमारे उन भारतीयों पूर्वजों का है जो बिना किसी साम्राज्यवादी विस्तारवाद की भावना को दिमाग में रखे, दूर.दूर तक गए, वहीं अपना घर बनाया, वहां के लोगों के बीच रहे, उन्हें अपना प्यार दिया और भौतिक दृष्टि से विलीन हो गए। ये ‘रक्तबीज’ पूरे पूर्वी और दक्षिण पूर्वी एशिया में भारतीय पूर्वजों के छोड़े गए सांस्कृतिक पद्चिन्ह, सांस्कृतिक प्रतीक एवं सर्जनात्मक कला के रूप में जीवित है।’विविध क्षेत्रों में दिख रहे इन सांस्कृतिक प्रतीकों का प्रयोग किसी समाज की सांस्कृतिक चेतना के विकास को संकेतित करने हेतु किया जाता है। साथ ही यह उन कलाओं को सिरजने का भी उपक्रम है जिससे जुड़कर पूरे समाज की चेतना निर्मित होती है, समाज से जिनका रचनात्मक रिश्ता कायम होता है।” इस नज़रिए से जर्मन दार्शनिक हीगेल द्वारा प्रतीक और कला दोनों को एक.दूसरे का सहजात कहना तर्कसंगत मालूम पड़ता है। यीट्स भी इसी बात का समर्थन करते दिखते हैं कि ”हर कला जो महज कहानी कहने के समान नहीं है, वह प्रतीकात्मक होती हैं।”

इस तरह ”प्रतीक व्यवहार रूप में एक ऐसा दृश्यमान रूपाकार है जो किसी वस्तु भाव या विचार का प्रतिनिधित्व करता है। प्रतीक के लिए जब तक इतिहासवृत्तिा जन्म नहीं लेती तब तक वह प्रतीक की हैसियत नहीं पा सकती। प्रतीक के रूप में सौन्दर्य का ऐतिहासिक संसार कलात्मक नवीनता को प्राप्त कर लेता है। अज्ञेय की ‘मछली’ का प्रतीक ‘जिजीविषा’ ‘मछली की तरह तड़पना’ जैसे लौकिक मुहावरों से ही नहीं, दार्शनिक ‘आत्मा’ की प्रतीतियों के सहारे ‘सत्य’ के अन्वेषण से जुड़ता है। केदारनाथ सिंह का ‘कमरे का दानव’ पारंपरिक और पौराणिक ‘दानव’ से अलग होने पर भी दरअसल अपने मूल रूप और अर्थ से कट नहीं पाता। शायद इसी को ‘सूक्ष्म’ या गहरी एकता का बोध’ कहा गया है। साहित्य की सम्प्रेषणीयता के लिए जरूरी है कि प्रयुक्त प्रतीक यथार्थ अनुभवों के माध्यम हों और उनके पीछे एक संभावित बौध्दिक, ऐतिहासिक या भावात्मक तर्क हों।”

यों तो ऐतिहासिक, पौराणिक और आध्यात्मिक प्रतीकों में बहुत से ऐसे होते हैं जो प्रचलन में नहीं होते। उनका क्षेत्र सीमित हो सकता है। इसलिए प्रतीक भाषा सदैव संप्रेष्य नहीं होती। लेकिन जिन प्रतीकों की दुर्बोधता दूर करने के लिए हमारे पास आधार है, कठिनाई से ही सही वे अर्थ के स्तर पर उपलब्ध किए जा सकते हैं जबकि निजी, गढ़े हुए प्रतीक कई बार इतने दुर्बोध होते हैं कि संभव है, कुछ समय बाद प्रतीक बनाने वाला खुद ही उन्हें न समझ सके। मनोवैज्ञानिक युंग ने लिखा है कि-”प्रतीक का निश्चयात्मक अर्थ नहीं होता। कुछ प्रतीक बार.बार सामने आते हैं पर हम उनके मोटे तौर पर ही अर्थ लगा पाते हैं। उदाहरण के लिए फ्रायड का यह कहना बिल्कुल गलत है कि सपने में सर्प देखने से केवल पुरुष.लिंग का बोध होता है।”

ध्यान दीजिए कि ”सभी प्रतीक द्रष्टव्य तथा नेत्रों से देखने योग्य नहीं होते। संकेत और चिह्न ऑंख से दिखाई पड़ते हैं। प्रतीक नहीं भी दिखाई देता। यह एक बड़ा अंतर है जिसे समझ जाने से हम प्रतीक का महत्तव समझ सकते हैं। प्रतीक भावना प्रधान होते हैं जिसकी जैसी भावना होगी वह प्रतीक का वैसा अर्थ लगा लेगा। शंकर भगवान के चित्र में ‘सर्प’ को देखकर क्या सिर्फ प्राण लेने वाले साँप का बोध होता है। सन्यासियों के शरीर पर लगा ‘भस्म’ क्या यों ही है। अगर ‘भस्म’ के साथ जीवन के नश्वरता सम्बन्धी बोध न हो तो ‘भस्म’ प्रतीक का मूल भाव या अर्थ सम्प्रेष्य नहीं होगा। प्रतीक को समझने के लिए धार्मिक संस्कार होना आवश्यक है। ऐसी बुध्दि होनी चाहिए कि हम ‘स्वास्तिक’, ‘ओइम्’, ‘गंगाजल’, ‘गुरुदक्षिणा’, ‘आत्मा’, ‘शिवलिंग’, ‘भस्म’, ‘भभूत’, ‘सिन्दूर’ आदि का वास्तविक बोध कर सकें। ”प्राचीन मंदिरों की दीवारों पर प्राचीन चित्रों में या शिलालेखों में ‘कुम्भ’ या ‘घड़ा’ बना देखकर बहुत से लोग ये सोच सकते हैं कि प्राचीन भारतीय बर्तन की बड़ी मर्यादा समझते थे। असल में जिसे हम साधारण अर्थों में केवल कुम्भ या घड़ा देखते.समझते हैं वह वास्तव में ज्ञान का कोष है। विद्या का भण्डार है। प्राचीन भारत में कुम्भ सरस्वती अर्थात विद्या की देवी का प्रतीक था।”

इसमें दो मत नहीं है कि ”भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है, भारत की व्युत्पति में ‘भा’ का अर्थ है प्रकाश और ‘रत’ का अर्थ है तन्मय या गतिशील। इस तरह भारत का अर्थ हुआ प्रकाश में तन्मय या गतिशील होना।” इसीलिए हमारे यहाँ वेद.सूक्ति है-‘तमसो मा ज्यातिर्गम्य:’। यही कारण है कि भारतीयता पूंजी.केन्द्रित हित को नहीं साधती और न ही उसके बहकावे में आने का आग्रह करती है। भारतीय मन हमेशा कबीरवाणी को महत्तव देता है-‘साईं इतना दीजिए जामे कुटुम्ब समाए, मैं भी भूखा ना रहूँ साधु भी न भूखा जाए’। यह भारतीय मनोभूमि में संचित वह आत्म-प्रकाश है जिसके प्रतीक रूप में राजा हरिशचन्द्र, दानी कर्ण, राजा बलि जैसे अनेकानेक मिथकीय उदाहरण हमारे सामने है।

असल में भारतीय दृष्टि हैसियत को अधिकारों से नहीं उन कर्तव्यों से ऑंकती है जिन का दायित्व किसी व्यक्ति, वर्ग या समाज पर है। सम्पूर्ण सृष्टि की एकता की यह संकल्पना और अनुभव भारतीय जीवन.दृष्टि का ही नहीं, उस भावना का भी आधार है जिसे आध्यात्मिकता कहा जाता है। यह पहचान केवल विचारगत या सूचनात्मक नहीं बल्कि संवेदनात्मक और अनुभवगम्य है। हमारे शास्त्रों में कहा भी गया है कि संस्कृति केवल मूल्य दृष्टि ही नहीं, मूल्य निष्ठा भी है। यह केवल विचार नहीं, विश्वास और आचरण भी है। चेतना के विकास का अर्थ विचार का ही नहीं अनुभूति का भी विकास है। संस्कृति सम्पूर्ण जीवन के गुणात्मक उत्कर्ष की प्रक्रिया है। किसी भी जाति की मूल्य दृष्टि, उसकी आस्थाएँ और विश्वास उसकी प्रक्रिया और स्वरूप का निर्धारण करते हैं।

वर्तमान उत्तार आधुनिक समय.समाज में भ्रामक दृष्टि से मिलने वाले तात्कालिक भौतिक लाभों ने भ्रम को पहचानने की प्रेरणा नहीं विकसित होने दी है। आज यंत्र.कौशल तथा अन्य उन्नत प्रौद्योगिकी के विकास की वजह से सांस्कृतिक प्रतीकों को गलत ढंग से ढाेंगपूर्वक आज़मा लिया गया है जो अपनी प्रकृति में भंगुर अर्थात ‘ब्रिकोलेज’ है। इस दृष्टि से देखें तो ”कार्टून.संस्कृति बच्चों को दी जाने वाली कोई जीवन प्रेरणा नहीं बल्कि मनोरंजन के नाम पर परोसा गया टेलीविज़न की दुनिया की कृत्रिम सजावट भर है। सूचना.राजमार्ग और प्रसार.माध्यमों की व्यापकता की वजह से पूरे विश्व में छाए सांस्कृतिक आतंक की जड़ में यह भी शामिल है।”

”आधुनिक प्रौद्योगिकी अनिवार्यत: हिंसक है क्योंकि मनुष्य जाति और पूरे परिवेश के साथ उस का कोई आत्मिक लगाव या रिश्ता नहीं है। इस प्रौद्योगिकी का सबसे बड़ा नुकसान तो यही होता है कि मनुष्य के सामाजिक.आर्थिक जीवन की वास्तविक आवश्यकताएँ उपेक्षित रह जाती हैं और अधिकांश मशीनों का उपयोग युध्द और गौण आवश्यकताओं या अनावश्यक विलासिता के उपकरणों के उत्पादन हेतु किया जाने लगता है जिसका दूरगामी परिणाम होता है मनुष्य का प्रकृति से अलगाव। कार्टून.चरित्रों का निर्माण इसी प्रौद्योगिकी की देन है जो इंसानी शक्लोसूरत में नज़र तो आती है पर वह इंसान नहीं हो सकता।”

कहना न होगा कि जीवन के अन्य पक्षों की तरह सामाजिक सम्प्रेषण के माध्यमों और संचार-प्रक्रिया पर भी इस कथित आधुनिक प्रौद्योगिकी ने गहरा असर डाला है। सबसे खतरनाक असर बाल मन पर यह पड़ा है कि इसने सम्प्रेषण्ा को एक जीवन्त मानवीय प्रक्रिया की बजाय एक यान्त्रिक प्रक्रिया में तब्दील कर दिया है। जटिल प्रौद्योगिकी वाली उपभोक्ता संस्कृति में बड़ी से बड़ी मानवीय त्रासदी आधुनिक प्रसार माध्यमों के लिए एक कच्चे माल की तरह हो जाती हैं जिसे अधिक से अधिक रोचक तरीके से अपने ग्राहकों के सम्मुख प्रस्तुत करना संचार.प्रसार उद्योग की एक अनिवार्यता समझी जाती है। दर्शक भी किसी करुणा या लगाव की भावना से कम और घटनाक्रम में एक प्रकार की कथा.रुचि या खुद को ‘अपटुडेट’ रखने की वजह से इस प्रकार की प्रस्तुतियों में अधिक रुचि लेते हैं। संचार के आधुनिकतम साधनों की सहज उपलब्धता की वजह से किसी भी प्रकार की जानकारी और विचार ग्रहण करने की गति भी पहले की अपेक्षा अधिक बढ़ी है और सामान्य जीवन पर उस के प्रत्यक्ष असर भी देखे जा रहे हैं, सो बच्चों को इस नवनिर्मित संसार से अलग या दूर कर पाना अब इतना आसान भी नहीं रहा।

इस संदर्भ में यह बताना जरूरी है कि ”बच्चे जिन नज़रों से दुनिया को देखते हैं, अपने चारों ओर के प्रति उनकी जो भावनात्मक और नैतिक प्रतिक्रिया होती है, उसमें एक विशिष्टता, बालसुलभ सरलता, निष्कपटता और एक खास किस्म की बारीकी होती है।” कार्टूनों में आए सांस्कृतिक प्रतीकों से बच्चों का मनोजगत किस प्रकार तादातम्य स्थापित करता है। इसको गहराई से समझने के लिए यानुश कोर्चाक के इस आह्वान का स्मरण आवश्यक है कि ”बच्चे जिस प्रकार इस संसार को अपने मनो.मस्तिष्क से जानते.समझते हैं, उस बालसुलभ विश्वबोध को जान सकना तभी संभव है जब हम बच्चों के अंत:करण के स्तर तक ऊँचा उठने का प्रयास करें।” अगर हम कोचार्क की बात से सहमत होते हुए बच्चों के हृदय तक पहुंचना चाहते हैं तो इसका सबसे विश्वसनीय रास्ता है-कहानियाँ और कल्पनाएँं जो बच्चों के भीतर मौलिक सृजनात्मकता को जन्म देती हैं। अर्थात बच्चों को उनके चारों ओर की दुनिया से इस तरह जोड़ना चाहिए कि वे हर दिन उसमें कोई नई बात खोजें।

दरअसल, कहानी और कल्पना ही वह कुंजी है जिसकी मदद से इस स्रोत को खोला जा सकता है। दृश्य.जगत के अनुभव इतने सशक्त होते हैं कि वे बच्चे के मस्तिष्क के अंदर नानाविध चित्र, बिंब और कल्पना को उपजने में मदद करते हैं। बच्चे जब अपनी कल्पना से कोई चित्र, कोई बिंब बनाते हैं या किसी चित्र या बिंब को प्रतीकात्मक ढंग से ग्रहण करते हैं तो अपने चारो ओर की दुनिया को अपने अंदर बसाते हैं। इस प्रक्रिया में वे संसार के सौन्दर्य का बोध तो पाते ही हैं, साथ ही उन्हें सत्य का भी ज्ञान होता है। बचपन में, 10.11 साल की उम्र तक ऐसी कोई शक्ति नहीं होती जो इतनी अच्छी तरह से बच्चों के विचारों को जगा सके, उन्हें सोचने की ऐसी प्रेरणा दे सके।

इस बात को जानना जरूरी है कि ”जब कोई बच्चा कुछ देख रहा होता है तो साथ ही वह सोच भी रहा होता है। इसका अर्थ यह है कि उसके प्रमस्तिष्क गोलार्ध के काटर्ेक्स की तंत्रि.कोशिकाओं का एक निश्चित हिस्सा चारों ओर के संसार के बिंबों(चित्रों, वस्तुओं, परिघटनाओं, शब्दों) को ग्रहण कर रहा है और सूक्ष्मतम तंत्रिकाओं के जरिए संकेत भेज रहा है। तंत्रि.कोशिकाओं की तंत्रिकीय ऊर्जा का इस आश्चर्यजनक तेजी से एक काम से दूसरे काम में लग जाना ही वह परिघटना है जिसे चिंतन करना या सोचना कहते हैं।” बाल.मस्तिष्क की कोशिकाएँ इतनी कोमल होती हैं कि वे केवल उसी हालत में ठीक तरह से काम कर सकती हैं जबकि प्रत्यक्ष ज्ञान के विषयों को बच्चे आसानीपूर्वक देख, सुन या छू सके। और यह केवल तभी संभव है जबकि बच्चे के सामने एक ठोस वास्तविक बिम्ब हो या फिर बच्चे को जब किसी चीज के बारे में बताया जा रहा हो तो वह इतना स्पष्ट इतना सशक्त होना चाहिए कि बच्चों को यह लगे मानों वह उसे देख, सुन रहा है, उसका स्पर्श कर रहा है, यही कारण है कि बच्चों को कथा.कहानियाँ सुनना इतना अच्छा लगता है।

वास्तव में, ”वस्तुओं और परिघटनाओं को देखना ही अभ्यास है। बच्चा एक सजीव बिंब देखता है फिर वह कल्पना करता है, अपने मस्तिष्क में इस बिंब की रचना करता है। बच्चा जब किसी दृश्य.कथा या कार्टून को देख रहा होता है तो वह प्रदर्शित काल्पनिक बिंबों को एक ज्वलंत यथार्थ के रूप में ही ग्रहण करता है। हर बच्चा संसार के बिंबों का केवल प्रत्यक्षबोध ही नहीं पाता बल्कि वह स्वयं भी तस्वीरें बनाता है, उनकी रचना, उनका सृजन करता है। बच्चे जब टेलीविज़न देख रहे होते हैं तो यह सिर्फ देखना नहीं होता बल्कि एक मौलिक कलात्मक सृजन कार्य होता है।”

उपर्युक्त विवेचन.विश्लेषण के तदुपरांत यदि हम सांस्कृतिक प्रतीकों के टेलीविज़न पर दिखाए जाने वाले कार्टूनों के संदर्भ में पड़ताल करें तो पाएंगे कि कार्टून चरित्रों के लिए मिथकीय नायकों को चुने जाने के पीछे बहुत बड़ा कारण विद्यमान है। एक सबसे बड़ा कारण तो यही है कि बाज़ार भी धर्म की शक्ति और उसके कालजयी सनातनता को समझता है। हनुमान, गणेश केवल पौराणिक कथाओं के मिथक भर नहीं हैं बल्कि ये सभी सांस्कृतिक प्रतीक लोकमानस में गहरे रचे-बसे हैं। इस सम्बन्ध में ऋषि पराशर के हवाले से डॉ0 राधाकृष्णन दो-टूक शब्दों में कहते हैं कि ”यह ठीक है कि आत्मा के सत्य सनातन हैं पर नियम युग.युग में बदलते रहते हैं। हमारी ललित संस्थाएँ नष्ट हो जाती हैं। वे अपने समय में धूमधाम से रहती हैं और उसके बाद समाप्त हो जाती हैं। वे काल की उपज होती हैं और काल की ही ग्रास बन जाती हैं। लेकिन धर्म बना रहता है क्योंकि इसकी जड़े मानवीय प्रकृति में है और यह अपने किसी ऐतिहासिक मूर्त रूप के समाप्त हो जाने के बाद भी बचा रहेगा।”

अंत में, मैं आप सबका ध्यान उत्तार आधुनिक समय.समाज की उस ‘पेस्टीच कल्चर’ की ओर आकृष्ट कराना चाहूँगा जिसे बाज़ार ने अपने मुनाफे के हिसाब से रचा है। भिन्न.भिन्न संस्कृतियों को आपस में जोड़कर बनी यह कॉकटेल संस्कृति हनुमान, गणेश जैसे मिथकीय हीरों को ‘सुपर हीरो’ के रूप में चित्रित कर रही है। पर ये पात्र अपनी प्रकृति में पंचतंत्र, अमर चित्रकथा, जातक कथाएँ, हितोपदेश आदि के पात्रों से बिल्कुल अलग हैं। बाल मनोरंजन की दृष्टि से इन सांस्कृतिक प्रतीकों का उपयोग सीधे-सीधे नुकसानदेह भले न लगे, किंतु सच्चाई है कि वह जिस खतरनाक पूँजी.तंत्र से नियंत्रित-निर्देशित है उसकी मंशा नेक.मति.सुजान की नहीं है।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी आधुनिक राष्ट्र अपनी बाह्य समानांतर दुनिया से जो भी चयन करता है, वह अपनी मौलिक ‘रुचि’ और ‘आकांक्षा’ के अनुरूप ही करता है। और यह रुचि और आकांक्षा अपनी परिस्थितियों से ही नहीं, जातीय और पारंपरिक स्वभाव से भी प्रेरित होती है। ऐसे में अपने साहित्य, कला या संस्कृति में जो ‘स्वीकार’ या ‘प्रभाव’ नया और आयातित दिखाई पड़ता है, संभव है कि वह अपनी ही जातीय चेतना, संस्कार और स्वभाव का अंग हो और समकालीन दुनिया ने उसके लिए सिर्फ ‘उत्प्रेरण’ और ‘सुझाव’ का काम किया हो। क्योंकि स्व.भाव और स्व.मार्ग से जो ग्रहण किया जाता है वह सहज ही व्यक्तित्व का भाग हो जाता है और उसमें उन सारे सर्जनात्मक प्रयत्नों और उपलब्धियों की परिपक्वता आ जाती है जो किसी भी जाति या नस्ल को विरासत में मिलती है। ऐसे में हमें अपनी दृष्टि खुली रखने की सख्त जरूरत है। मेरा विदेशी कार्टून.चरित्रों के तर्ज पर भारतीय सांस्कृतिक प्रतीकों का कार्टून चरित्रों में रूपांतरण या अनुवाद किए जाने को लेकर कोई विरोध या दुराग्रह नहीं है। फिर भी इतना तो अवश्य ही कहना चाहँगा कि इन पौराणिक मिथकों का गलत तरीके से विरूपण न हो तो ही श्रेयस्कर है। आमीन!

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सम्प्रति : शोध-छात्र

प्रयोजनमूलक हिन्दी(पत्रकारिता)

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी

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