क्या जातिगत पैमाने पर ही होगा उत्तर प्रदेश का फैसला ?

शिवानंद द्विवेदी 

राजनीति भी कब कौन सी करवट लेती है इसका अनुमान लगाना आसान नहीं। जिन मुद्दों पर खड़े हुए पिछले आंदोलनों के आगामी चुनावों में प्रभावी होने के कयास लगाए जा रहे थे वो मुद्दे अब ना तो प्रभावी हैं और ना ही चुनावों में उनका कुछ ख़ास गणित नज़र आ रहा है। भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे तत्कालीन ज्वलंत मुद्दे तो शायद आरोप-प्रत्यारोप तक सीमित हो चुके हैं। लोकपाल का तो राज्यसभा में लगभग दर्प-दमन हो चुका है और जबकि चुनाव सर पर हैं तो लोकपाल के ध्वजवाहक अन्ना टीम खुद को चौराहे पर खडा महसूस कर रही है। अन्ना हजारे द्वारा भी लगभग सभी प्रयोजनों पर विराम दिया जा चुका है और चुनावों में अपनी सक्रियता को नकारा जा चुका है। कुछ समय पहले तक जनांदोलनो को भापते हुए जनता जो यह उम्मीद थी कि आगामी चुनावों में सतही एवं जनता से सीधे जुड़े मुद्दों का बोल-बाला रहेगा एवं जनता अपना मत प्रयोग भी इसी आधार पर करेगी। लेकिन फिलहाल कुछ ऐसा दिख नहीं रहा ऐसा लग रहा है जैसे सभी ज्वलंत मुद्दे कहीं सो गए हों। वर्तमान परिदृश्यों के आधार पर यू.पी. चुनाव का अगर विश्लेषण करें तो पिचाले जनांदोलनों एवं राजनीतिक घटनाक्रमों की स्थिति ढाक के तीन पात से ज्यादा कहीं नहीं नज़र आती। जैसे-जैसे चुनाव की तारीखें नजदीक आ रही हैं पुराने मुद्दे धूमिल हो रहे हैं और एक बार राजनीति अपने परम्परागत बुनियाद की तरफ रुख करती हुई सियासी जमीन तलाशती नजर आ रही है। चुनाव के परिप्रेक्ष्य में आज सबसे बड़ा सवाल ये है कि वो कौन से सियासी पैतरें हैं जिन पर सभी दलों द्वारा विश्वाश दिखाया जा रहा है? आखिर वो तुरुप का पत्ता क्या है जिसमे सबको सत्ता की संभावनाएं नजाए आ रही हैं? उपरोक्त सवालों पर अगर वर्तमान राजनीतिक हलचलों के आधार पर विचार करें तो एक बात स्पष्ट तौर पर सामने आती है कि आज भी यू.पी. की राजनीति चुनावी जातिगत समीकरणों पर ही आधारित है और भ्रष्टाचार एवं महंगाई आदि मुद्दे अभी भी इस राजनीतिक चुनावी ढाँचे को टस से मस नहीं कर पाए हैं। शायद यही वजह है कि आज लगभग सभी राजनीतिक दलों द्वारा अपनी सियासी विसात जातिगत समीकरणों के आधार पर ही बिछाई जा रही है।अगर आप ध्यान से देखें तो यह मिलेगा कि अभी तक महंगायी और भ्रष्टाचार की विचारधार पर कोई भी ना तो गठबंधन बना है ना मोर्चाबंदी हुई है।जहां भी गठबंधन देखा गया है वो जातिगत समीकरण को पुख्ता कर एक दुसरे के वोट बैंक में सेंध लगाने के उद्देश्य से प्रेरित नज़र आता है। अगर कांग्रेस-रालोद गठबंधन की बात करें तो इस गठबंधन की कोई मुद्दागत विचारधारा नहीं है ये वही अजित सिंह हैं जो अन्ना का समर्थन किये थे। यह गठबंधन महज़ जातिगत समीकरण को प्रबंधित करने के लिए कांग्रेस का खेला गया एक दाव है जिसके बदले में सौदागत नीति के तहत अजित सिंह को मलाईदार मंत्रालय मिला और कांग्रेस को जातिगत वोट बैंक। वहीं दूसरी तरफ सदन में लगभग सुसुप्त हो चुके लोकपाल विधेयक में मुस्लिम आरक्षण (अल्पसंख्यक) की मंजूरी को सा.पा के मुस्लिम वोट बैंक में सेंधमारी के तौर पर देखा जा सकता है। लोकपाल आये या ना आये इस आरक्षण से कांग्रेस को आगामी चुनावों में मुस्लिम वोट को रिझाने का अवसर जरुर मिल गया है।

वहीँ दूसरी तरफ अगर बात भा.जा.पा की करें तो भले ही भा.जा.पा. के शीर्ष नेता केंद्र में भ्रष्टाचार के खिलाफ कांग्रेस को घेरने का प्रयास कर रहे हैं और भ्रष्टाचार के खिलाफ रथयात्रा कर रहें हो लेकिन जातिगत राजनीति के चंगुल से वो भी खुद को बचा नहीं सके। एक तरफ जब मायावती चुन-चुन कर अपने भ्रष्ट मंत्रियों को बर्खास्त कर रहीं थी तो वही दूसरी तरफ खुद को भ्रष्टाचार विरोधी बताने वाली भा.जा.पा. जातिगत गुना-भाग के आधार पर भ्रष्टाचार आरोपी पूर्व मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा के साथ उनको उपेक्षित पिछड़ा बता गलबाहियां कर रही थी। भा.जा.पा. के अनुसार बाबु सिंह तभी तक भ्रष्ट थे जब तक वो .ब.स.पा में थे भा.जा.पा में आते ही वो उत्पीडित पिछड़ा एवं विभीषण जैसे संज्ञाओं से विभूषित किये जाने लगे। बाबू सिंह को शामिल करने के पीछे भा.जा.पा का मकसद पिछड़ों को जोड़ना था लेकिन इस कदम ने भ्रष्टाचार मुद्दे को हाशिये पर ला दिया जो भा.जा.पा का हथियार था।बाक़ी अगर बात यू.पी. की सत्ताधारी दल ब.स.पा. की करें तो ब.स.पा. का दलित वोट बैंक आज भी लगभग अभेद्य किला बना हुआ है जिसे अब तक कोई भी जनांदोलन डिगा नहीं पाया है। वहीँ दूसरी तरफ सतीश चन्द्र मिश्रा द्वारा ब्राह्मण दलित गठजोड़ की सोसल इंजिनयरिंग को एक बार फिर प्रयोग के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है।ब्राहमणों को रिझाने के लिए ही मायावती द्वारा गरीब ब्राहमणों को आरक्षण देने की वकालत भी गयी तो दूसरी तरफ नारा बोला गया “ब्राहमण-दलित हैं हाथी पर बाक़ी सब बैसाखी पर।” यू.पी. में ब्राहमण समुदाय का वोट निर्णायक होता है क्योंकि अभी तक जातिगत तर्ज़ पर ब्राहमण किसी दल के साथ एक तरफा नहीं रह सका है अत: ब्राहमणों को जोड़कर सत्ता तक पहुंचने का प्रयोग सभी दलों द्वारा होता रहा है और फिलहाल मायावती इसका रसस्वादन भी कर रही हैं। हालांकि भ्रष्टाचार को महत्त्व देते हुए मायावती ने एक के बाद एक तमाम बर्खास्तगी अपने मंत्रालयों में की लेकिन इन बर्खास्तातियों का भ्रष्टाचार के विरुद्ध कहने का कोई आधार नहीं है ,सर्व विदित है “सौ चूहे खाकर बिल्ली चली हज को।” वहीँ यू.पी. की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी समाजवादी पार्टी का जनाधार भी जातिगत मूल्यों पर निहित है। यादव एवं मुस्लिम गठजोड़ के भरोसे सवर्णों को जोड़ कर यह राजनीतिक दल सत्ता का रसस्वादन कर चुका है। वक़्त की नजाकत को देखते हुए समाजवादी पार्टी भी जातिगत वोट बैंक बनाने का को अवसर चुकाना नहीं चाहती। आज़म खान के मुस्लिम जनाधार एवं निजी यादव वोट बैंक के बूते ओ.बी.सी कोटे से मुस्लिमों को आरक्षण देने का विरोध कर यह पार्टी ओ.बी.सी में अपनी पैठ मजबूत कर सत्ता का राह देख रही है। इसका मकसद भी ओ.बी.सी को लुभाना था।

इन सबके अलावा अन्य छोटे दलों का गठबंधन इत्तेहादे फ्रंट भी पूर्णतया जातिगत मूल्यों पर निहित है और जातिगत समीकरणों को बिगाड़ने में इस गठबंधन की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता। खैर एक बात तो तय है कि तमाम आन्दोलन,जागरूकता अभियान एवं चुनाव आयोग की सख्ती के बावजूद यू.पी. की राजनीति से जातिगत ढाँचे को हिलाना एवं जाती से हट कर किसी और मुद्दे पर लोगों को आकृष्ट करना फिलहाल तो संभव होता नहीं दिख रहा। स्थिति कुछ यूँ है कि एक बार फिर यू.पी. में ताज-पोशी जाति से अभिप्रेरित मतदान के द्वारा होने जा रही है जिसमें जनता के जमीन से जुड़े मुद्दों जैसे महंगाई, भ्रष्टाचार का कोई महत्व नहीं है वो यथावत थे, हैं और रहेंगे। इन मुद्दों के आधार पर मतदान पता नहीं कब होगा ?

1 COMMENT

  1. यथा प्रजा तथा राजा ….
    कोई इमानदार प्रत्याशी खडा भी हो जाय तो जनता उसे वोट नहीं देगी. बाबू भ्रष्ट, अधिकारी भ्रष्ट, कर्मचारी भ्रष्ट, व्यापारी भ्रष्ट, मंत्री भ्रष्ट, न्यायाधीश भ्रष्ट, साधू संत भ्रष्ट, मजदूर भी भ्रष्ट ….इमानदार जनता कहाँ है ? इसे मरने दो यूं ही …..

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