वर्ण धर्म और भक्ति : हरि को भजे सो हरि का होई

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डॉ. चंदन कुमारी
क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर– इन पंचभूतों की समनिर्मिति है समग्र सृष्टि फिर भेद-भाव वाली द्वैतबुद्धि का औचित्य कैसा ! गोस्वामी तुलसीदास के काव्य में वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा झलकती है | उस वर्णाश्रम धर्म का मूल स्वरूप मानो आज धूमिल हो गया है और उसके भ्रामक संस्करण को गले लगाकर सनातन धर्म के पालन का दंभ भरा जा रहा है | स्वामी रामानंद की उक्ति “जाति – पाँति पूछे नही कोई | हरि को भजे सो हरि का होई ||” की तर्ज पर ही तुलसी के राम शबरी से कहते हैं, “कह रघुपति सुनु भामिनि बाता | मानऊँ एक भगति कर नाता ||”(रामचरितमानस, 3/34/2) और केवट को गले लगाते हुए कहते हैं – “तुम मम सखा भरत सम भ्राता | सदा रहेहु पुर आवत जाता ||” (रामचरितमानस, 7/ 19 ग/2) | स्वयं राम भी सबसे ऊपर ‘नेह का नाता’ मानते हैं फिर भला उनको भजने वाले कुतर्क के दलदल में क्यों फँसना चाहते हैं ? शिव कहते हैं ,”हरि व्यापक सर्वत्र समाना | प्रेम ते प्रगट होहिं मैं जाना ||” जो स्वयं सृष्टि के कण-कण में समरूप अवस्थित है भला उसकी सृष्टि में विषमता कब और कैसे व्याप्त हुई ? यह प्रत्यक्ष नजर आनेवाली विषमता मानव की अपनी दुर्बलताओं की सृष्टि है | “भक्ति और मानवता समन्वित वर्णाश्रम धर्म की प्रतिष्ठा जो रामकाव्य में की गई है वह पतनोन्मुख समाज को पतन से बचाने का एक प्रमुख हथियार है … यहाँ प्रतिपादित वर्णाश्रम धर्म श्रुतिसम्मत है | श्रुति ‘वर्ण’ का आधार जन्म को नहीं मानती, कर्म और गुण को मानती है | यह जन्म आधारित वर्ण वाली भावना दुर्बल आग्रहियों की है | क्रांतदर्शी ऐसा कहाँ कहते ! अवश्य तुलसी ने ब्राह्मणों की वंदना की है | पर वे वंदित ब्राह्मण कौन हैं ? जो मनुष्य अपरिग्रही, अनासक्त, क्षमाशील, शांत, सौम्य, व्रती, शीलवान, संयमी, प्रज्ञावान, सत्यनिष्ठ, निर्वैर, आशाओं से परे, ऋषभ (श्रेष्ठ), कुमार्ग और सदमार्ग का ज्ञाता है वही ब्राह्मण हैं |” ( राम भक्तिकाव्य में लोकपक्ष, पृ. 87)

 

गुण और कर्म की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए ही चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र) का विधान किया गया है | जो जितनी तन्मयता से अपने वर्णगत कार्य को संपादित करता है वह उतना ही श्रेष्ठ है और जिसकी कार्य संपादन वृत्ति में तन्मयता का अभाव होता है वह कमतर समझा जाता है | इस संदर्भ की पुष्टि हेतु रामचरितमानस की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं –
सोचिअ विप्र जो बेद बिहीना | तजि निज धरमु विषय लयलीना || (2/171/2)

 

सोचिअ नृपति जो नीति न जाना | जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना || (2/171/2)

 

सोचिअ बयसु कृपन धनवानू | (2/171/3)

 

बादहि सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम ते कछु घाटि | जानि ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि || (7/99 ख)

 

महात्मा गाँधी ने कहा है, “I believe that every man is born in the world with certain definite limitations which he cannot overcome. From a careful observation of those limitations the law of varna was deduced. It established certain spheres of action for certain people with certain tendencies.”

 

राम की भक्ति के नाम पर स्वामी रामानंद ने मानव निर्मित जाति-पाँति की कृत्रिम दीवार को ढहा दिया | भक्ति के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी सकारात्मक परिवर्तन आई | एक प्रसिद्ध उक्ति है जिसके अनुसार माना जाता है कि भक्ति दक्षिण में उपजी –

“भक्ति द्राविड उपजी लायो रामानंद | प्रगट किया कबीर ने सप्त द्वीप नव खंड |”

एक दूसरा सत्य यह है कि सात्वत, पांचरात्र, भागवत और एकांतिक नाम से जाने जानेवाले वैष्णव भक्ति का बीज उत्तर भारत में ई.पू. तीसरी-चौथी से पहली सदी तक वासुदेव की उपासना के रूप में मौजूद थी | वासुदेव के ये उपासक मथुरा के पास की ब्रज भूमि में रहने वाले सात्वत जाति के थे | कालांतर में सात्वतों की एकांतिक वासुदेवोपसना ही कृष्ण भक्ति के रूप में लोकव्यापी हुआ | जर्नल ऑव दि रॉयल एशियाटिक सोसाइटी (1915) में उल्लेख है कि श्रीकृष्ण की भावना का आविर्भाव ईसा की चौथी सदी के पूर्व ही हो चुका था | श्रीकृष्ण के अनेक नामों में वासुदेव नाम भी था | “स्पष्ट है कि भक्ति का बीज उत्तर भारत में पहले से ही मौजूद था | धान वृक्षारोपण की भांति भक्ति के नन्हे-नन्हे पौधों को समुचित पल्लवन के अवसर प्राप्ति हेतु ये सात्वत उसे लेकर दक्षिण की ओर गए |… अतः शिशु रूप में वैष्णव भक्ति सात्वत भक्तों के साथ ही उत्तर से दक्षिण में गई और आलवार संतों के अनुराग की छाया तले प्रौढ़ स्वरूप में पुनः आचार्य रामानंद के संग उत्तर भारत में आई | आचार्य परशुराम चतुर्वेदी भी इससे सहमत  हैं |” (राम भक्तिकाव्य में लोकपक्ष, पृ.16-17) | डॉ मुंशीराम शर्मा और डॉ. पी जयरामन भी इस तथ्य से सहमत हैं | डॉ. बलराज शर्मा भी मानते हैं कि “बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार और संघर्ष के कारण उत्तर भारत में कुछ समय तक भागवत धर्म की गति कुंठित रही | परंतु दक्षिण में यह फल-फूल रहा था |” (मध्यकालीन काव्य्धाराएँ एवं प्रतिनिधि कवि भाग – 1) | आलवार भक्त कवियों ने एक ओर मधुर भाव की प्रतिष्ठा की तो दूसरी ओर भक्ति के माध्यम से सामाजिक खाई को पाटने का प्रयास भी किया | “प्रपत्ति भावना प्रधान आलवारों को भगवद्नुग्रह पर अकूत भरोसा था | प्रभु की कृपा कटाक्ष पाने के लिए विह्वल आलवार भक्तों ने विष्णु के अवतारों की स्तुति भेद और द्वैत के बिना की है | यहाँ विष्णु, राम, कृष्ण और रंगनाथ सब एक हैं |” (राम भक्तिकाव्य में लोकपक्ष, पृ.21-22) | देवों का यह ऐक्य मत्स्य पुराण (172) के निम्नोद्धृत श्लोक में भी स्पष्ट दिख रहा है –

 

विष्णुत्वं शृणु विष्णोश्च हरित्वं च कृते युगे |

वैकुंठत्वं च देवेषु कृष्णत्वं मानुषेषु च ||1||

 

ईश्वरस्य हि तस्यैषा कर्मणा गहना गतिः |

संप्रत्यतीतान्भवयांश्च शृणु राजन्य थातथम ||2||

 

अव्यक्तो व्यक्तलिंगस्थो य एष भगवान्प्रभुः |

नारायणो हय्नंतात्मा प्रभवोअव्यय एव च ||

 

इस एक विराट सत्ता की शरण में सारी सृष्टि मुदित है, सुरक्षित है ! शरणागत की रक्षा करने का उत्तरदायित्व केवल देवों तक ही सीमित नहीं है | मनुष्यों  के लिए भी शरणागत की रक्षा का विधान रामचरितमानस में द्रष्टव्य है – शरणागत कहूँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि | ते नर पाँवर पापमय तिन्हहिं बिलोकत हानि | पुनः देखें :

” ‘सर्वे प्रपत्तेरधिकारिण: सदा, शक्ता अशक्ता अपि नित्यरंगिण: |

अपेक्ष्यते तत्र कुलं बलं च नो, न चापि कालो न हि शुद्धता च ||’

 

भगवान श्रीरामानंद स्वामीजी अपने शिष्यों के प्रति कहते हैं कि भगवान अपनी प्रपत्ति में जीवों के कुल (जाति) बल की और कालशुद्धता की अपेक्षा नहीं करते, इसी कारण समर्थ-असमर्थ सभी जीव भगवान की शरणागति के अधिकारी हैं |” ( बलभद्रदास कृत हिंदी रूपांतरण,वैष्णवमताब्ज -भास्कर, 100वाँ श्लोक उद्धृत पुरुषोत्तम अग्रवाल, अकथ कहानी प्रेम की, पृ.271)
स्वामी रामानंद अपने ग्रंथ वैष्णवमताब्जभास्कर में रामभक्ति का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि तेल की अविच्छिन्न धारा के सदृश निरंतर प्रेमसहित राम का स्मरण ही भक्ति है | इस भक्ति की प्राप्ति के सात साधन हैं – विवेक, अकाम, ध्यान, अनुष्ठान (पंचमहायज्ञ), कल्याण (सत्य, सरलता, दान, दया), अनवसाद एवं अनुद्धर्ष | इस आशय का श्लोक द्रष्टव्य है –
सा तैलधारासमनित्यसंस्मृति: संतानरुपेशि परानुराक्तिः |

भक्तिर्विवेकादिकसप्तजन्या तथा यमाद्यष्ट सुबोधकांगा ||65||

 

(उद्धृत डॉ. मुंशीराम शर्मा, भक्ति का विकास, पृ. 333) |

भक्ति के लिए निर्मल मन ही सर्वोत्तम साधन है | रामचरितमानस में नवधा भक्ति का उल्लेख है | राम भक्ति की हर धारा (निर्गुण, सगुण (मर्यादा, माधुर्य और योगपरक)) के मूलस्रोत स्वामी रामानंद की हिंदी रचनाओं को डॉ. पीतांबर दत्त बडथ्वाल ने “रामानंद की हिंदी रचनाएँ” नाम से संपादित किया है | श्री संप्रदाय का आचार्य बनना इनका अभीष्ट न था | वे तो सामाजिक वैषम्य को मिटाने हेतु प्रयत्नरत हुए | इन्होंने भक्ति मार्ग से लोकमंगल की साधना की | लोक का लोक से लोकभाषा में सहज संबंध बन जाने की स्थितियां उत्पन्न की | लोकजीवन में अनुराग और विश्वास भरने वाले इन्ही संत की वंदना नाभादास के शब्दों में :

 

विश्वमंगल आधार भक्ति के श्रद्धा के आगार /बहुत काल वपु धारिकै, प्रणतजनन को पार कियो /
श्री रामानंद रघुनाथ ज्यों, द्वितीय सेतु जगतरण कियो | (भक्तमाल, छप्पय 36)
स्वामी रामानंद प्रणीत रामसेतु सदृश यह द्वितीय सेतु लोकोत्थान का मार्ग प्रशस्त करता है |

 

 

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