जातिवादी आरक्षण एक राष्ट्रीय अपराध

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jatभारत के संविधान की उद्देशिका में आये तीन शब्द ‘सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय’ बहुत महत्वपूर्ण हैं। इन तीनों शब्दों से हमारे संविधान निर्माताओं की उस पवित्र भावना का पता चलता है जिसको अपनाकर या जिसे मूत्र्तरूप देकर वे भारत में सामाजिक समरसता की स्थापना करना चाहते थे और समाज में व्याप्त प्रत्येक प्रकार की छुआछूत या ऊंचनीच की भावना को समूल नष्ट करना चाहते थे। अपने इस पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की उन्नति हेतु संविधान के अनुच्छेद 15(41) में उपबंध किये हैं। इस उपबंध के रहने का अभिप्राय है कि यदि राज्य द्वारा इन जातियों और जनजातियों के सदस्यों के पक्ष में विशेष उपबंध किये जाते हैं तो अन्य नागरिकों द्वारा ऐसे उपबंधों की विधिमान्यता पर इस आधार पर आक्षेप नही किया जा सकता कि वे उनके विरूद्घ विभेदकारी हैं।
संविधान ने सामाजिक पिछड़ेपन को भी एक राष्ट्रीय अपराध माना और एक अपराध को रोकने के लिए उसने पिछड़े वर्गों को आगे लाने के लिए भी कुछ रक्षोपाय किये। जिससे देश का समग्र और सुनियोजित विकास हो सके।

संविधान के ये पवित्र उपबंध तब धरे के धरे रह गये, जब हम व्यवहार में इन्हें तोड़ते हुए बहुत आगे निकल गये। आरक्षण का रोग आज देश में वर्ग-संघर्ष का एक प्रमुख कारण बन चुका है। लोगों के आचरण और व्यवहार से पता चल रहा है कि ‘सामाजिक न्याय’ को पाते-पाते हम असामाजिक (उपद्रवी, उन्मादी और अपने ही देशवासियों के प्रति हिंसक होकर) बन चुके हैं, आर्थिक न्याय को पाते-पाते हम सबसे बड़े आर्थिक अपराधी (अरबों की सार्वजनिक संपत्तियों को जला-जलाकर राख करके) बन चुके हैं और राजनीतिक न्याय पाते-पाते हम सबसे बड़े अराजकतावादी (उपद्रव और उग्रवाद के माध्यम से अपनी स्वेच्छाचारिता का प्रदर्शन करके) बन चुके हैं। जब हम अपने चेहरे को अपने आप ही शीशे में देखते हैं तो पता चलता है कि हमने अपने संविधान निर्माताओं की भावना और संविधान की आत्मा के विरूद्घ एक ‘घोर अपराध’ किया है। जातिवादी आरक्षण की मांग चाहे जिस जाति ने की हो, चाहे जिस प्रांत में की हो सबका एक ही उद्देश्य रहा है कि सार्वजनिक संपत्ति को अधिक से अधिक क्षति पहुंचाओ और जनसामान्य के विरूद्घ अधिक से अधिक ऐसे कार्य करो जिससे वे दुखी हों और असुविधा में फंसकर कराह उठें। इसके लिए आंदोलनकारी फटाफट रेल रोकते हैं, रेल की पटरी उखाड़ते हैं, सडक़ों पर जाम लगाते हैं, दुकानदारों से बलात दुकानें बंद कराते हैं,  ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं कि शासन प्रशासन पूर्णत: पंगु बन जाए और सारी प्रशासनिक शक्तियां उनके हाथों में आ जाएं। सरकार झुके और झुककर सबसे पहले आंदोलनकारियों के सारे अपराधों को एक साथ क्षमा कर दे।

सरकारों को झुकाकर आंदोलनकारी अपने सभी उपद्रवों, उत्पातों और अपराधों से हमें रातों रात नेता बनकर बाहर निकलते दिखाई देते हैं। जिन लोगों का जन्म उपद्रव, उत्पात और अपराध से हो-उनकी ‘सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय’ के संवैधानिक आदर्श के प्रति कितनी निष्ठा हो सकती है यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है? ये लोग अपनी राजनीति का ही जातिवादीकरण कर डालते हैं और इनके मंचों से सार्वजनिक रूप से जातिवाद की बातें होती हैं, ये विधानमंडलों में भी जातिवाद की विसंगतियों के पैरोकार के रूप में प्रविष्ट होते हैं और वहां भी ऐसा विषैला परिवेश बनाते हैं जिससे देश में जातिवाद का विषधर और भी विषधारी हो उठता है। जब इन विषधरों को समाज में फुंकारते हुए खुला घूमते देखा जाता है तो समाज के अन्य वर्गों या समुदायों या संगठनों को भी उससे एक प्रेरणा मिलती है कि यदि हम भी इसी स्तर का एक आंदोलन देश में कर डालें जिससे सरकार और सरकारी तंत्र पूर्णत: पंगु बनकर रह जाए तो हम भी अपनी कोई भी मांग सरकार से मनवा सकते हैं। इस प्रकार की प्रेरणा से प्रेरित होकर अगला आंदोलन पहले वाले आंदोलन से अधिक उग्र किये जाने की पहले से ही तैयारी की जाती है। …और हम देखते हैं कि सरकारें अक्सर ऐसे आंदोलनों के समक्ष झुक जाती हंै।….इसका अंतिम परिणाम क्या होगा?सोचकर देखिए-जब कोई संप्रदाय भविष्य में देश का बंटवारा करने के लिए एक साथ सडक़ों पर आकर सरकारी तंत्र का अपहरण कर लेगा और कुछ पार्टियां उनकी मांग को फिर भी यही कहकर समर्थन देंगी कि लोकतंत्र में अपनी मांगें मनवाने का सबको अधिकार है-तब क्या होगा? पाठकवृन्द! दुखी मत होइये-पर सोचिए अवश्य-ऐसा समय भी आ सकता है।

देश में कभी राजस्थान अराजकता का शिकार होता है, कभी गुजरात अराजकता में फंसता है और कभी हरियाणा में अराजकता व्यापती है। देश की सज्जनशक्ति और तथाकथित बुद्घिजीवी इस प्रकार की अराजकता के प्रति निर्लिप्त भाव का प्रदर्शन करते हैं और अपनी ‘बौद्घिक कायरता’ का परिचय देते हुए इस पर ऐसा कुछ भी कहने से बचते हैं जो न्यायपूर्ण हो, तर्कसंगत हो और देश के भविष्य के दृष्टिगत उचित हो।

विगत 9 फरवरी 2016 को जेएनयू में कुछ छात्रों ने देश विरोधी नारे लगाये और देश की एकता के लिए और अखण्डता के लिए एक चुनौती प्रस्तुत की। सारा देश उस ओर देखने लगा जिधर कुछ मुट्ठी भर लोगों ने एक विश्वविद्यालय के प्रशासनिक तंत्र को अपनी मुट्ठी में बंधक बना लिया था। पर किसी ने भी यह नही देखा कि आरक्षण के जातिवादी संघर्ष ने इसी समय एक प्रांत की अर्थात हरियाणा की खट्टर सरकार को बंधक बना लिया और उसे अपने सामने झुका लिया। ऐसी प्रवृत्ति देश के लिए घातक सिद्घ होगी।

हम किसी व्यक्ति को या जाति को आरक्षण देने के विरूद्घ नही हैं-पर यदि कोई सार्वजनिक संपत्ति को जलाये और अपनी ही सरकारों को बंधक बनाये तो यह नही हो सकता। यह तो सरासर राष्ट्रविरोधी कार्य है। जाटों में जो लोग सामाजिक, आर्थिक या राजनीतिक न्याय लेने से अभी तक वंचित हैं उन्हें यह मिलना चाहिए, क्योंकि यह उनका संवैधानिक मौलिक अधिकार है। परंतु देश की मोदी सरकार को भी अब समझ लेना चाहिए कि देश से जातीय आधार पर आरक्षण की जारी व्यवस्था को यथाशीघ्र समाप्त कर दिया जाए। इसे आर्थिक आधार पर देने की व्यवस्था की जाए। निर्धन और पिछड़े लोग हर जाति समुदाय में है, राजनीति का धर्म है कि वह उन्हीं के कल्याण की बात करे, और समाज के चिंतनशील लोग उन्हीं लोगों के कल्याण के लिए अपना चिंतन प्रस्तुत करें। किसी की निर्धनता या पिछड़ेपन को अपनी राजनीति का धारदार हथियार बनाकर उस हथियार से देश को काटने-बांटने की राजनीति पर अब प्रतिबंध लगना चाहिए। समय के तकाजे को यदि हमने नही पहचाना तो समय हमारे हाथों से निकल जाएगा और हम देश की एकता व अखण्डता की रक्षा करने में भी असफल हो जाएंगे। किसी ने व्हाट्सअप पर बहुत सुंदर बात कही है-

मुझे गर्व है मै मध्य प्रदेशिया हूं किसी जाति किसी बोली का तमगा हमारे ऊपर नही लगा, हम कभी आरक्षण नही मांगते और  हिंदी अंग्रेजी के अलावा तीसरी भाषा साइनबोर्ड पर हमारे यहां नही मिलेगी….हम हार्दिक पटेल…खालिद उमर पैदा नही करते।

1 COMMENT

  1. देश लम्बे समय गुलामी के दौर से गुजरा है. उस दौरान आक्रान्ताओं ने समाज को तोड़ने के लिए गलत वृतियो को प्रश्रय दिया. कुछ जातिया इस दौर में विकास के मुलप्रवाह से वंचित रह गई. महात्मा आंबेडकर ने उन भाइयो को मूल प्रवाह में लाने के लिए जातिवादी आरक्षण की व्यवस्था की थी. आज ६९ वर्ष बाद आरक्षण के तौर तरीको में पुनर्विचार की आवश्यकता है, जिससे जिन्हें वास्तव में आरक्षण की आवश्यकता है उन्हें आरक्षण मिल जाए. जो जातिया, जो नागरिक के यहाँ अन्धेरा है , उनके यहाँ दीपक जलाने की आवश्यकता है.

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