गोमांस के निर्यात से पशुधन पर गहराया संकट

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प्रमोद भार्गव

योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद से उत्तर प्रदेश में अवैध बूचड़खानों पर तालाबंदी से यह आशय लगाया जा रहा है कि केंद्र और उप्र में सत्ता में आई भाजपा सरकारें गोमांस के विक्रय पर रोक लगाने की दृष्टि से ऐसा कर रही हैं। सोलहवीं लोकसभा चुनाव में गुलाबी क्रांति मसलन गाय-भैंस के मांस के व्यापार व निर्यात का मुद्दा परवान चढ़ा था। तब नरेंद्र मोदी ने नवादा में तत्कालीन संप्रग सरकार पर गऊ हत्या और गोमांस व्यापार को बढ़ावा देने के गंभीर आरोप लगाए थे। गो-सरंक्षण संघ और भाजपा के अजेंडे में हमेशा मूल-प्रश्न रहे हैं।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो गाय कृषि और दुग्ध उत्पादन में अहम् भूमिका का आधार बनी हुई है,उस गाय को मारकर मटन के करोबार को प्रोत्साहित किया जा रहा है,जबकि देश को एक और हरित क्रांति की जरूरत है, न कि गुलाबी क्रांति की ? क्योंकि मांस निर्यात का सबसे ज्यादा असर पशुधन पर पड़ रहा है। स्वतंत्रता के ठीक बाद गोवंश की संख्या गाय, बछड़ा, बैल और सांड मिलाकर एक अरब 21 करोड़ थे, जबकि इस समय भारत की आबादी महज 35 करोड़ थी। अब जब देश की आबादी एक अरब 21 करोड़ की संख्या संख्या को पार गई है, तब गोवंश की संख्या घटकर बमुश्किल 10 करोड़ बची हैं। यदि जनसंख्या के अनुपात में गोवंश बचा होता तो आज आजीविका के संसाधनों से जुड़ी समस्याएं मुंहबाऐ खड़ी ही नहीं हो पातीं। यह चिंता की बात है कि महज ढाई साल पहले जो मोदी बढ़ते बूचड़खानों को लेकर चिंतित थे,उन्हीं मोदी की सरकार सब्सिडी के प्रावधानों को बढ़ावा दे रही है।

कृषि एवं खाद्य प्रसस्ंकरण उत्पादन निर्यात विकास प्राधिकरण द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक 2003-04 में भारत से 3.4 लाख टन गाय-भैंस के मांस का निर्यात किया गया था, जो 2012-13 में बढ़कर 18.9 लाख टन हो गया था। 2014-15 में 24 लाख टन मांस का निर्यात हुआ, जिससे बीते साल 4.8 अरब डाॅलर की मुद्रा प्राप्त हुई। निर्यात के इस आंकड़े ने भारत को मांस निर्यातक देशों में अग्रणी देश बना दिया है। दुनिया में निर्यात किए जाने वाले मांस का यह 58.7 प्रतिशत  हिस्सा है। भारत दुनिया के 65 देशों को मांस निर्यात करता है। इनमें से मिश्र, कुवैत, सउदी, अरब, वियतनाम, मलेशिया और फिलीपिन देशों में सबसे ज्यादा निर्यात किया जाता है। मांस का यह निर्यात सरकारी सरंक्षण और राहत के उपायों से पनपा है। सरकार ने बूचड़खानों और प्रसंस्करण संयंत्रों के आधुनिकीरण के लिए आर्थिक मदद के रूप मे सब्सिडी के प्रावधान किए हैं,इसलिए यह धंधा दिन-दुना,रात-चैगना गति से बढ़ रहा है। सरकार ने इसके निर्यात में उदार रुख दिखाते हुए अफ्रिका और राष्ट्रमंडल देशों में नए बजारों की तलाश भी की है।

गाय-भैंस के मांस की मांग दुनिया के बाजारों में इसलिए भी बढ़ रही है, क्योंकि खाद्य और कृषि संगठन इस मांस को पौष्टिक एवं स्वादिश्ट बताकर इसका प्रचार करने में लगा है। इसे चर्बीरहित तथा सुअर की तुलना में इसमें कम फैट होने का प्रचार किया जा रहा है। नतीजतन इसकी मांग और बिक्री में निरंतर इजाफा हो़ रहा है। प्रोत्साहन उपायों के चलते 2014-15 में मांस निर्यात में 14 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई हैं। हालांकि गो-मांस के साथ बड़ी मात्रा में भैसों के मांस का भी निर्यात होता है। आमतौर से बूढ़े बैलों को काटने की अनुमति राज्य सरकारें दे देती है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, गुजरात और केरल में मांस के निर्यात का कारोबार खूब फल-फूल रहा है। असम, तमिलनाडू और पश्चिम बंगाल में गाय भी सरकार की अनुमति लेकर काटी जा सकती हैं, जबकि अरुणाचल प्रदेश, केरल, मणिपुर ,मेघालय, मिजोरम, सिक्किम व त्रिपुरा में गाय काटने की खुली छूट हैं। यह जानकर हैरत होती है कि मुस्लिम बहुल राज्य जम्मू-कश्मीर में गोमांस की बिक्री पर प्रतिबंध आजादी के समय से ही लगा हुआ है। दरअसल पशुधन के सरंक्षण का विषय पूरी तरह राज्यों की विधायिका के अधिकार क्षेत्र में आता है। इसलिए राज्य अपनी राजनीति के हिसाब से गोमांस की बिक्री से जुड़े निर्णय लेने को स्वतंत्र हैं। इन प्रदेशों में वैघ और अवैघ दोनों ही तरह के बूचड़खानों की संख्या लगातार बढ़ रही है। ढाई सौ से तीन सौ रुपए किलो के भाव पर गाय-भैसंे तौल कर थोक में बेची जा रही हैं। इस बजह से पशुधन के चोरी के मामले भी पूरे देश में तेजी से बढ़े हैं। वैसे देश में गोमांस के निर्यात की छूट कभी नहीं रही है। शुरू से ही निर्यात अवैध तरीके से हो रहा है। भले ही देश के कुछ राज्यों में गोवंश के मांस पर प्रतिबंध न हो, किंतु उन्हें भी गोमांस के निर्यात की अनुमति नहीं है। विदेश निर्यात नीति के तहत गोवंश के मांस निर्यात पर प्रतिबंध है।

मांस के बढ़ते कारोबार के चलते पशुधन के घटने का सिलसिला तेज हुआ है। गोया, दुग्ध उत्पादन में कमी अनुभव की जाने लगी है। जिसकी भरपाई नकली दूध से की जा रही है। जो नई-नई बीमारियां परोसने का काम कर रहा है। दूध की दुनिया में सबसे ज्यादा खपत भारत में है। देश के प्रत्येक नागरिक को औसतन 290 गा्रम दूध रोजाना मिलता है। इस हिसाब से कुल खपत प्रतिदिन 45 करोड़ लीटर दूध की हो रही है। जबकि शुद्ध दूध का उत्पादन करीब 15 करोड़ लीटर ही है। मसलन दूध की कमी की पूर्ति सिंथेटिक दूध बनाकर और पानी मिलाकर की जा रही है। यूरिया से भी दूध बनाया जा रही है। दूध की लगातार बढ़ रही मांग के करण मिलावटी इस दूध का कारोबार गांव-गांव फैलता जा रहा है। बहरहाल मिलावटी दूध के दुष्परिणाम जो भी हों, इस असली-नकली दूध का देश की अर्थव्यवस्था में योगदान एक लाख 15 हजार 970 करोड़ रूपए का है। दाल और चावल की खपत से कहीं ज्यादा दूध और उसके सह उत्पादों की मांग व खपत बढ़ी है।

दूध की इस खपत के चलते दुनिया के देशों की निगाहें भी इस व्यापार को हड़पने में लगी है। दुनिया की सबसे बड़ी दूध का कारोबार करने वाली फांस की कंपनी लैक्टेल है। इसने भारत की सबसे बड़ी हैदराबाद की दूध डेयरी ‘तिरूमाला डेयरी‘को 1750 करोड़ रूपए में खरीद लिया है। इसे चार किसानों ने मिलकर बनाया था। भारत की तेल कंपनी आॅइल इंडिया भी इसमें प्रवेश कर रही है। क्योंकि दूध का यह कारोबार 16 फीसदी की दर से हर साल बढ़ रहा है।

अमेरिका भी अपने देश में बने सह उत्पाद भारत में खपाने की तिकड़म में है। हालांकि फिलहाल उसे सफलता नहीं मिली है। अमेरिका चीज;पनीर भारत में बेचना चाहता है। इस चीज को बनाने की प्रक्रिया में बछड़े की आंत से बने एक पदार्थ का इस्तेमाल होता है। इसलिए भारत के शाकाहारियों के लिए यह पनीर वर्जित है। गो-सेवक व गऊ को मां मानने वाला भारतीय समाज भी इसे स्वीकार नहीं करता। अमेरिका में गायों को मांसयुक्त चारा खिलाया जाता है, जिससे वे ज्यादा दूध दें। हमारे यहां गाय-भैसें भले ही मानव-मल में मुंह मारती फिरती हों,लेकिन दुधारू पशुओं को मांस खिलाने की बात कोई सपने में भी नहीं सोच सकता। लिहाजा अमेरिका को चीज बेचने की इजाजत नहीं मिल पा रही है। लेकिन इससे इतना तो तय होता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों की निगाहें हमारे दूध के कारोबार को हड़पने में लग गई हैं।

बिना किसी सरकारी मदद के बूते देश में दूध का 70 फीसदी कारोबार असंगठित ढांचा संभाल रहा है। इस कारोबार में ज्यादातर लोग अशिक्षित हैं। लेकिन पारंपरिक ज्ञान से न केवल वे बड़ी मात्रा में दुग्ध उत्पादन में कामयाब हैं,बल्कि इसके सह उत्पाद दही,घी,मख्खन,पनीर,मावा आदि बनाने में भी मर्मज्ञ हैं। दूध का 30 फीसदी कारोबार संगठित ढांचा,मसलन डेयरियों के माध्यम से होता है। देश में दूध उत्पादन में 96 हजार सहकारी संस्थाएं जुड़ी है। 14 राज्यों की अपनी दूध सहकारी संस्थाएं हैं। देश में कुल कृषि खाद्य उत्पादों व दूध से जुड़ी प्रसंस्करण सुविधाएं महज दो फीसदी हैं किंतु वह दूध ही है,जिसका सबसे ज्यादा प्रसंस्करण करके दही,घी,मक्खन,पनीर आदि बनाए जाते हैं। इस कारोबार की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इससे सात करोड़ से भी ज्यादा लोगों की अजीविका जुड़ी है। लिहाजा मांस के कारोबार को प्रोत्साहित करके दुधारू पशुओं को बूचड़खाने में काटने का सिलसिला यथावत बना रहता है तो यह वाकई चिंतनीय पहलू है ?

चंद पूर्वग्रही, दुधारू मवेशियों की सुरक्षा को अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक दृष्टि से देखते हुए मुस्लिम हित प्रभावित होने की बात को तूल देते हैं। आम धारणा है कि मांस के व्यापार में मुसलमान जुड़े हैं,जबकि यह धारणा निराधार है। देश के जो सबसे बड़े चार मांस निर्यातक हैं,वे हिंदू हैं। दुधारू पशुओं को पालने और दूध के व्यापार से ग्रामीण मुसलमान भी जुड़ा है। बकरियों के कारोबार में तो मुस्लिमों की बहुतायत है। इसके विपरीत हिंदुओं में खटीक समाज के लोग भी मांस का व्यापार करते हैं। निर्यात के कारोबार से भी ये लोग जुड़े हैं। ज्यादातर बूचड़खानों के मालिक भी हिंदू हैं। लिहाजा केवल मुसलमानों को इस धंधे के लिए दोषी ठहराना नाइंसाफी है। बहरहाल जो पशुधन आजीविका के मजबूत संसाधन से जुड़ा है,उसे मांस के लिए मारने के नतीजे भविष्य में घातक साबित होंगे। अंगे्रजी हुकूमत के दौरान गाय मारकर चमड़ा बनाने की शुरूआत अंग्रेजों ने की थी,जिसका व्यापक विरोध हुआ था। वैसे भी गाय समेत अन्य पशुधन पर ही हमारी कृषि व्यवस्था निर्भर है, लिहाजा बूचड़खानों पर लगाम लगाने की जरूरत है।

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