शादाब जफर शादाब
आधुनिकीकरण, सामाजिक असंतुलन, इंटरनेट, मोबाइल है युवाओ की आत्महत्याओ का कारण
आज हमारी युवा पीढी को न जाने क्या हो रहा है? मॉ बाप और टीचरो की जरा जरा सी बातो और डाट फटकार पर खुदकशी की घटनाए बहुत तेजी से बढ रही है। साथ ही साथ स्कूल कालेजो में अपने सहपाठियो के साथ कम उम्र युवाओ द्वारा हिंसक घटनाओ की तादाद भी देश में लगातार बढती जा रही है। विगत पॉच सालो में हमारे देश में केवल छात्रो द्वारा की गई आत्महत्याओ का ग्राफ 26 प्रतिशत तक बढ गया है। यदि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड पर नजर डाले तो साल 2006 में 5,857 व 2010 में 7,329 स्कूली व कालेज छात्र छात्राओ ने आत्महत्या की थी। यानि बीते साल हर रोज औसतन 20 छात्र आत्महत्या कर रहे थे। यदि इस विषय पर स्वास्थ्य मंत्रालय की माने तो पिछले तीन सालो में लगभग 16,000 स्कूली व कालेज छात्र छात्राओ ने आत्महत्या की। एक ओर जहॅा इन घटनाआंे से बच्चो के परिजन परेशान है वही ये घटनाए देश और समाज के लिये भी चिंता का विषय बनती जा है। दरअसल इन घटनाओ की वजह बहुत ही साफ और सच्ची है जो बच्चे ऐसी घटनाओ को अन्जाम दे रहे है उन के आदर्शा फिल्मी हीरो, हिंसक वीडियो गेम ,माता पिता द्वारा बच्चो को ऐश ओ आराम के साथ महत्वाकंशा दुनिया की तस्वीरो के अलावा जिन्दगी के वास्तविक यथार्थ बताये और दिखाये नही जा रहे है। संघर्ष करना नही सिखाया जा रहा। हा सब कुछ हासिल करने का ख्वाब जरूर दिखाया जा रहा है। वह भी कोई संघर्ष किये बिना। दरअसल जो बच्चे संघर्षशील जीवन जीते है उनकी संवेदनाए मरती नही है वे कठिन परिस्थितियों में भी निराशा नही होते और हर विपरीत परिस्थिति से लडने के लिये तैयार रहते है। कुछ आत्महत्याओ के पीछे शिक्षा और परीक्षा का दबाव है तो कुछ के पीछे मात्र अभिभावको की सामान्य सी डाट ,अपने सहपाठियो की उपेक्षा अथवा अग्रेजी भाषा में हाथ तंग होना। मामूली बातो पर गम्भीर फैसले ले लेने वाली इस युवा पीढी को ना तो अपनी जान की परवाह है और ना ही उन के इस कदम से परिवार पर पडने वाले असर की उन्हे कोई चिंता है।
प्रश्न उठता है कि आज हमारे देशा के भावी कर्णधारो को कौन आत्महत्या जैसे गम्भीर रास्ते पर चलने को मजबूर कर रहा है। पिछले दिनो आईआईटी से जुडे कुछ लोगो ने जब स्कूल, कालेजो और उच्च शिक्षा संस्थानो से आरटीआई के तहत ये जानना चाहा कि आखिर छात्र इतनी बडी तादात में क्यो आत्महत्या कर रहे है तो बडे ही चौकाने वाले तथ्य निकल कर सामने आये। गुजरे कुछ सालो में हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था में जो बदलाव आए है वह भी देशा के मध्यम वर्ग और उसकी उच्च शिक्षा और महत्तव आकांक्षाओ में हो रहे बदलाव को ही चिंहित करते है। जिन में केवल दो ही विकल्प है या तो कुछ बेहतर करो या फिर बरबाद हो जाओ। इस के अतिरिक्त स्कूल, कालेजो और उच्च शिक्षा संस्थानो के प्रबंधन का ये भी कहना था कि आज आधुनिकीकरण, सामाजिक असंतुलन, इंटरनेट, मोबाइल छात्रो की आत्महत्याओ का मुख्य कारणो में से एक कारण है।ं दूसरा सब से बडा कारण है आज के युवको की दशा और दिशा आज देश के युवाओ का एक बहुत बडा वर्ग छात्र जीवन से ही राजनीति और अपराध की दुनिया में प्रवेश करने लगा है अब अक्सर डकैती, राहजनी, लूटमार, मोटर साईकिलो व कारो की लूट में छात्रो की भागीदारी दिन प्रतिदिन बढने लगी है। वही स्कूल की फीस और मंहगे शाौक को पूरा करने के लिये कुछ स्कूली छात्राए जिस्म फरोशा के धंधे में उतर आई है।
आज दशाभर के शिक्षकों, मनोचिकित्सको, और माता पिताओ के सामने युवाओ द्वारा की जा रही आत्महत्याए तथा रोज रोज स्कूलो में हिंसक घटनाओ से नई चुनौतिया आ खडी हुई है। आज बाजार का सब से अधिक दबाव बच्चो और युवाओ पर है। दिषाहीन फिल्मे युवाओ और बच्चो को ध्यान में रखकर बनाई जा रही है। जब से हालीवुड ने भारत का रूख किया है स्थिति बद से बदतर हो गई है। ये तमाम फिल्मे संघर्षशीलता का पाठ पढाने की बजाये यह कह रही है कि पैसे के बल पर सब कुछ हासिल किया जा सकता है, छल, कपट, घात प्रतिघात, धूर्तता, ठगी, छीना झपटी ,कोई अवगुण नही है इस पीढी पर फिल्मी ग्लैमर ,कृत्रिम बाजार और नई चहकती दुनिया, शाारीरिक परिवर्तन ,सैक्स की खुल्लम खुल्ला बाजार में उपलब्ध किताबे ,ब्लू फिल्मो की सीडी डीवीडी व इन्टरनेट और मोबाईल पर सेक्स की पूरी क्रियाओ सहित जानकारी हमारे युवाओ को बिगाडने में कही हद तक जिम्मेदार है।
आज हम देख और सोच सकते है कि हमारे देशा की शिाक्षा प्रणाली और उच्च शिाक्षा के संस्थानो में चयन की प्रक्रिया युवाओ के लिये जबरदस्त बोझ बनती जा रही है। पिछले तीन चार सालो में स्कूली शिाक्षा प्रणाली से उच्च शिाक्षा के संस्थानो में आगे की पढाई करने वाले युवाओ कर संख्या में जबरदस्त इजाफा हुआ है। ऐसे में आज की युवा पीढी को टूटने से बचाने के लिये सही राह दिखाने के लिये जरूरी है की हम लोग अपनी नैतिक जिम्मेदारी को समझे और समझे की हमारे युवा इतने खंूखार इतने हस्सास क्यो हो रहे जरा जरा सी बात पर जान देने और लेने पर क्यो अमादा हो जाते है इन की रगो में खून की जगह गरम लावा किसने भर दिया है। इन सवालो के जवाब किसी सेमीनार पत्र पत्रिकाओ या एनजीओ से हमे नही मिलेगे इन सवालो के जवाबो को हमे युवा पीढी के पास बैठकर उन्हे प्यार दुलार और समय देकर हासिल करने होगे। वास्तव में घर को बच्चे का पहला स्कूल कहा जाता है आज वो ही घर युवा पीढी की कब्रगाह बनते जा रहे है। फसल को हवा पानी खाद दिये बिना बढिया उपज की हमारी उम्मीद सरासर गलत है। बच्चो से हमारा व्यवहार हमारे बुढापे पर भी प्रश्न चिन्ह लगा रहा है। आज पैसा कमाने की भागदौड में जो अपराध हम अपने बच्चो को समय न देकर कर रहे है वो हमारे घर परिवार ही नही देष और समाज के लिये बहुत ही घातक सिद्ध हो रहा है।
इस समस्या का कारण है,
हमारा राष्ट्रीय चरित्र,जिसकी व्यक्तिगत जिम्मेवारी हम सब पर है.हम लोगों को इस समस्या का कारण ढूँढने दूर जाने की आवश्यकता नहीं है.दर्पण के सामने खड़े हो जाइए और पूछिए कि इस समस्या की वृद्धि में क्या मेरा कोई योगदान नहीं है?