कश्मीर में रमजान पर युद्ध-विराम

विनोद कुमार सर्वोदय

जिस कश्मीर में “भारत काफ़िर है” के नारे लगाए जाते हो वहां युद्ध-विराम का क्या औचित्य है ? अनेक आपत्तियों के उपरांत भी केंद्रीय सरकार ने जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती की मांग को मानते हुए रमजान माह  (अवधि लगभग 30 दिन ) में सेना को आतंकियों के विरोध में अपनी ओर से आगे बढ़ कर कोई कार्यवाही नहीं करने का निर्णय किया है। परंतु अगर आतंकवादी गोलाबारी या अन्य आतंकी गतिविधियों को जारी रखेंगे तो उस समय उसका प्रतिरोध करने को सुरक्षाबलों को छूट होगी। फिर भी यह क्यों नही सोचा गया कि जब केंद्र सरकार की कठोर नीतियों के कारण आतंकवाद पर अंकुश लगाने में सफलता मिल रही है और पिछले एक-दो वर्षों में सैकड़ों आतंकियों को मारा भी जा चुका है तो क्या ऐसे में युद्ध विराम राष्ट्रीय हित में होगा ? क्या इस निर्णय के पीछे सुरक्षा बलों के सफल अभियान से आतंकियों को सुरक्षित करने का कोई षडयंत्र तो नही है ? यद्यपि वर्षो से यह स्पष्ट है कि जब भी रमजान के अवसर पर या अन्य किसी अवसर पर कश्मीर में आतंकियों के प्रति युद्धविराम किया गया तो जिहादियों ने इस छूट का अनुचित लाभ लेते हुए अपने बिखरे हुए व कमजोर पड़ गए आतंकी साथियों को पुनः संगठित किया और सबको शस्त्रों से भी सुज्जित करके सुरक्षा प्रतिष्ठानों व निर्दोष नागरिकों पर भी आक्रमण किये थे। जिसके परिणामस्वरूप ऐसे युद्धविरामों की अवधि में हमारे सैकड़ों सुरक्षाबलों के सैनिकों व सामान्य नागरिकों को भी उन आतंकियों का शिकार बनना पड़ा था। क्या ऐसे अवसरों पर जिहादियों के आक्रमणों से लहूलुहान हुए सैनिकों और नागरिकों के परिवारों की पीड़ाओं के घावों को हरा होने दें ?
अतः कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि जम्मू-कश्मीर में जो भी सरकार बनती है वह कभी “रमजान” के बहाने युद्ध-विराम करवाके, तो कभी “हीलिंग-टच” द्वारा और कभी मानवाधिकार की दुहाई देकर सुरक्षाबलों को हतोत्साहित करके जाने-अनजाने आतंकवादियों को ही प्रोत्साहित करती है। जिससे सदैव राष्ट्रीय हित प्रभावित होते रहे हैं। परंतु रमजान में युद्ध विराम के निर्णय से यह स्पष्ट होता है कि आतंकवादी एक विशेष धर्म से संबंधित होते हैं और उनका धर्म भी होता है। क्योंकि अब आप भली प्रकार समझ सकते हैं कि रमजान का महीना जो केवल इस्लाम के अनुयायियों के लिए पवित्र होता है और जिनको सुरक्षा प्रदान करने के लिए युद्धविराम घोषित हुआ है , वे कौन है ? वे सब मुसलमान है और इस्लाम मज़हब/धर्म के मानने वाले है। अतः इससे यह भी स्पष्ट हुआ है कि आतंकवाद का भी धर्म है और वह है “इस्लाम”।
क्या केंद्र सरकार पर कश्मीर की मुख्य मंत्री महबूबा मुफ़्ती का ऐसा कोई दबाव है जो राष्ट्र की सुरक्षा को चुनौती देने वाली युद्धविराम की अनुचित मांग को मानने के लिए विवश होना पड़ा ? क्या यह आत्मघाती कूटनीतिज्ञता नही है ? क्या यह अदूरदर्शी निर्णय कश्मीरी कट्टरपंथियों, अलगाववादियों व आतंकवादियों के आगे घुटने टेकने का संकेत तो नही है ? क्या इससे पाक व पाक परस्त शत्रुओं को प्रोत्साहन नही मिलेगा ? समाचारों से यह भी ज्ञात हुआ है कि केंद्र सरकार ने यह निर्णय इसलिये भी लिया है कि कश्मीर के शांतिप्रिय व अमन पसंद मुसलमान अपने धार्मिक रमजान के महीने को शांतिपूर्वक मना सकें। परंतु जब 1986 से हिंदुओं की हत्याओं व आगजनी का नंगा नाच आरम्भ हुआ और हिंदुओं को वहां से भागने को विवश होना पड़ रहा था तब ये अमन पसंद मुसलमान क्यों मौन थे ? हिंदुओं को घाटी छोड़ देने की चेतावनी के साथ साथ “इस्लाम हमारा मकसद है”  “कुरान हमारा दस्तूर है”  “जिहाद हमारा रास्ता है”   “WAR TILL VICTORY” आदि नारे लिखे पोस्टर पूरी घाटी में लगाये गये। यही नही  “कश्मीर में अगर रहना है ,  अल्लाहो अकबर कहना होगा ” के नारे लगाये जाने लगे जिससे वहां का हिन्दू समाज भय से कांप उठा था। इन अमानवीय अत्याचारों का घटनाक्रम 28 वर्ष पूर्व सन 1990 में लाखों कश्मीरी हिंदुओं को वहां से मार मार कर उनकी बहन-बेटियों व संम्पतियों को लूट कर भगाये जाने तक जारी रहा,  तब ये शान्तिप्रिय कश्मीरी मुसलमान कहां थे ? उस संकटकालीन स्थितियों को आज स्मरण करने से भी सामान्य ह्रदय कांपनें लगता है। इस पर भी कश्मीरी मुसलमानों को शांतिप्रिय समझना क्या उचित होगा ? क्या इन शांतिप्रिय मुसलमानों ने कभी जिहाद के दुष्परिणामों से रक्तरंजित हो रही मानवता की रक्षार्थ कोई सकारात्मक कर्तव्य निभाया है ? एक विडंबना यह भी है कि इन अमन पसंद लोगों के होते कश्मीर में अनेक धार्मिक स्थलों को आतंकवादी समय -समय पर  अपनी शरण स्थली भी बना लेते है। वहां “पाकिस्तान जिन्दाबाद” व “भारतीय कुत्तो वापस जाओं” के नारे तो आम बात है साथ ही पाकिस्तानी व इस्लामिक स्टेट के झण्डे लहराए जाना भी देशद्रोही गतिविधियों का बडा स्पष्ट संकेत हैं। आतंकवादियों के सहयोगी  हज़ारों पत्थरबाजों को क्षमा करने से क्या उनके अंधविश्वासों और विश्वासों से बनी जिहादी विचारधारा को नियंत्रित किया जा सकता है ? मुस्लिम युवकों की ब्रेनवॉशिंग करने वाले मुल्ला-मौलवियों व उम्मा  पर कोई अंकुश न होने के कारण जिहादी विचारधारा का विस्तार थम नही पा रहा है। इस विशेष विचारधारा के कारण ही जम्मू-कश्मीर राज्य में पिछले 70 वर्षों में अरबों-खरबों रुपयों की केंद्रीय सहायता के उपरांत भी वहां के बहुसंख्यक मुस्लिम कट्टरपंथियों में भारत के प्रति श्रद्धा का कोई भाव ही नही बन सका ?
इतिहास साक्षी है कि मानवता का संदेश देने वाला हिन्दू धर्म सदियों से इस्लामिक आक्रान्ताओं को झेल रहा है। परंतु जब भी और वर्तमान में भी जिहाद के लिए विभिन्न मुस्लिम संप्रदायों व अन्य समुदाय के मध्य होने वाले अनेक संघर्ष इस बात के साक्षी है कि “रमजान” में कभी भी कहीं भी काफिरों व अविश्वासियों के विरुद्ध युद्ध विराम नही किया गया। बल्कि इन मज़हबी आतंकियों में अविश्वासियों के धार्मिक त्योहारों पर व स्थलों को अपनी जिहादी मानसिकता का शिकार बनाने में सदैव प्राथमिकता रही थी और अभी भी है।
क्या ऐसे में युद्धविराम करके आतंकवाद पर अंकुश लगाया जा सकता है ? ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आतंकवाद पर कठोर निर्णय लेने वाली मोदी सरकार अभी इस्लामिक आतंकवाद को नियंत्रित करने के लिए अपनी इच्छा शक्ति की दृढ़ता का परिचय कराना नही चाहती। जबकि शत्रुओं को हर परिस्थितियों में दण्डित करके कुचलना ही राष्ट्रीय हित में होता है। इस प्रकार राष्ट्रीय हितों को तिलांजलि देने से क्या ऐसा सोचा जा सकता है कि भविष्य में स्वस्थ रणनीति बनाने में हमारे रणनीतिकार भ्रमित तो नही किये जा रहे हैं ? अतः वर्तमान विपरीत परिस्थितियों में युद्धविराम का निर्णय राजनीति के हितार्थ भी अनावश्यक व दुःखद है। राजनैतिक कारणों से लिये गये ऐसे शासकीय निर्णयों से ही हिंदुओं में तेजस्विता धीरे धीरे नष्ट हो रही है और उनको निष्क्रिय किया जा रहा है। जिससे वे अपने शत्रु की शत्रुता को समझते हुए भी बार – बार कबूतर के समान आंखें बंद करने को विवश होते जा रहे हैं । जबकि बिल्ली रूपी जिहादी तो अपना काम कर ही रहे हैं। इसलिये नेताओं के साथ साथ अब सोचना तो हम सबको भी होगा कि “आतंकियों का भी धर्म होता है” तो उनसे कैसे सुरक्षित रहें ?

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