बदलती आबोहवा: क्या करे भारत ?

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अरुण तिवारी

कार्बन की तीन ही गति हैं: उपभोग, उत्सर्जन और अवशोषण। तीनों के बीच संतुलन ही जीवन सुरक्षा की कुदरती गारंटी है। इन तीनों के बीच संतुलन गङबङाया है, लिहाजा, जीवन सुरक्षा की कुदरती बीमा पाॅलिसी भी गङबङा गई है। दोष और समाधान के रूप में आज सबसे ज्यादा चर्चा और चिंता कार्बन उत्सर्जन की है। सिर्फ इससे काम चलेगा नहीं, असल में गङबङी ठीक करने के लिए तीनों का संतुलन साधने को संकल्पित होना पङेगा। सुखद है कि भारत सरकार ने अपनी घोषणा में तीनों के प्रति संकल्प जताया है। इस लेख में भी हम तीनों की चर्चा करेंगे:

लक्ष्य

भारत सरकार ने कार्बन उत्सर्जन की मात्रा में 33 से 35 प्रतिशत घटोत्तरी का लक्ष्य रखा है। इसके लिए वह भारत, वर्ष 2020 तक ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में 20 से 25 फीसदी कमी लायेगा। दूसरे महत्वपूर्ण कदम के तौर पर भारत, अक्षय ऊर्जा उत्पादन में 40 फीसदी बढ़ोत्तरी करेगा। तीसरे कदम के तौर पर भारत, 2030 तक 2.5 से तीन अरब टन कार्बन डाई आॅक्साइड अवशोषित करेगा।

 

कैसे घटे कार्बन उत्सर्जन ?

 

बांधों, बैराजों में ठहरे पानी से मीथेन जैसी हानिकारक गैसों की उत्पत्ति होती है। तालाबों के जल पर जलकुंभी के कब्जे से भी यही होता है। अन्य स्थानों पर जमा जैविक और अजैविक कचरे से भी यही होता है। खेतों में फसल जलाव, घरों में चूल्हा-अलाव, उद्योग, वाहन, ताप-पनबिजली बिजली संयंत्र.. सब के सब कार्बन उत्सर्जन बढ़ाने में योगदान करते हैं। सीमेंट, ईंट और इस्पात भी भारी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन करते हैं। चमचमाती टाइल्स को बाहरी दीवारों पर लगाकर भी हम ताप को अवशोषित करने की बजाय, उसे वापस भेजने वाली सामग्री पर बढावा दे रहे हैं। क्या हम सभी को रोक दें ?  हो सकता हो कि इसकी संभावना पर शंका हो। किंतु उपाय के तौर हम इतना तो कर ही सकते हैं कि  नदी में ठहरे पानी को चला दें। जलकुंभी से तालाबों के जल को मुक्ति दिला दें। कचरे का ठीक से निष्पादन कर दें। वाहन पर लगाम लगा दें। उन्हे पर्यावरण अनुकूल बना दें। ऐसे अनेक उपाय हैं, जो किए जा सकते हैं। इस लेख में हम विशेष तौर पर तीन उपायों पर चर्चा करेंगे। एक उपाय है कि जीवश्म स्त्रोतों से कम से कम बिजली व ईंधन बनाये जायें। दूसरा उपाय है कि वैकल्पिक ऊर्जा स्त्रोतों से ऊर्जा उत्पादन पर ध्यान लगायें। तीसरा उपाय यह है कि हम ईंधन व बिजली का अनुशासित इस्तेमाल करें।

ईंधन

जहां तक ईंधन का सवाल है, गोबर-पेट्रोल-डीजल का क्या कोई उचित विकल्प है ? मक्का से बनने वाले काॅर्न इथेनाॅल को 0.6-2.0 जीपीएम, सैलुलोज बायोडीजल को 0.1 से 0.6 जीपीएम और गैसोलिन को सबसे कम 0.1 से 0.3 जीपीएम पानी चाहिए। यह तीनों ईंधन यातायात में ही प्रयोग होते हैं। सैलुलोज बायोडीजल सूखा क्षेत्रों की घास व टहनियों से बनाया जाता है। क्या ये विकल्प सभी भारत के अनुकूल हैं ?

 

खपत

 

सिंचाई में ईंधन इंजनों का अलावा और विकल्प है ? समक्ष खङा यह दूसरा प्रश्न तो है ही; आप यह भी कह सकते हैं कि सार्वजनिक परिवहन सुविधायें बेहतर की जायें; ताकि निजी वाहनों पर निर्भरता कम हो। हमारा रवैया यह है कि दिल्ली सरकार ने कारों के सङक पर उतारने की नंबर प्रणाली प्रयोग का ऐलान कर दिया है। विशेष स्थानों पर साईकिल मुहैया कराने की योजना पर काम शुरु कर दिया है। इसके विपरीत, दिल्ली के स्कूलों ने सार्वजनिक वाहन के तौर पर उपयोग हेतु अपनी बसें देने से मना कर दिया है। क्या इस रवैये से काम चलेगा ? कम ईंधन खपत वाले छोटे वाहनों को बुक करने की जगह, प्रति यात्री किराया आधार पर चलने का चलन कैसे बढ़े ? क्या कारगर होगा ? यह भी सोचने का विषय है।

 

गियर वाली तेज रफ्तार साईकिलों की कीमतें घटाई जायें। साईकिल के लिए शहरों में अलग सुरक्षित लेन बनाई जाये। एक स्तर तक साईकिल व रिक्शा जैसी बिना ईंधन की सवारी को सरकारी सवारी बनाया जाये। साईकिल व रिक्शा चलाने से ऊर्जा उत्पादन संभव है। इसका इस्तेमाल टेबल बल्ब जलाने से लेकर मोबाइल चार्ज करने जैेसे कई बिजली खपत वाले कार्यों में किया जा सकता है। ऐसी और तकनीकों को मान्य, सस्ता व सुलभ बनाया जाये। इससे साईकिल व रिक्शा सवारी प्रोत्साहित होगी। न्यूनतम ईंधन खपत तथा अनुकूल ईंधन से चलने वाली मशीनों को ईजाद करने की दिशा में शोध व उसके प्रसार को प्रोत्साहित किया जाये। नियुक्ति, स्थानान्तरण व दस्तावेजों-सामानों के उत्पादन व बिक्री की नीतियां तथा आदान-प्रदान की तकनीकें ऐसी हों, ताकि कर्मचारी व सामान..दोनो को कम से कम यात्रा करनी पङे। मतलब यह कि कर्मचारी और काम के स्थान तथा उत्पादन व खपत के स्थान के बीच की दूरी न्यूनतम कैसे हों, इस पर गहराई से विचार हो। इससे ईंधन की खपत घटेगी। पानी गर्म करने, खाना बनाने आदि में कम से कम ईंधन का उपयोग करो। उन्नत चूल्हे तथा उस ईंधन का उपयोग करो, जो बजाय किसी फैक्टरी में बनने के हमारे आसपास हमारे द्वारा तैयार व उपलब्ध हो। विकसित देशों के वैज्ञानिक, बिन पानी सिर्फ हवा से स्ंायंत्रों को ठंडा करने वाली प्रक्रिया का अनुमोदन करते हैं। एक उन्नत प्रक्रिया में गर्मी के समय में पानी और शेष में हवा का ही प्रयोग होता है। बंद लूप प्रक्रिया में पानी के पुर्नउपयोग का प्रावधान है। एक अन्य प्रक्रिया में तालाब-झीलों का पानी उपयोग कर वापस जलसंरचनााओं में पहुंचाया जाता है। आप कह सकते हैं कि यह सब तो ठीक है किंतु उपहार और दहेज में मोटरसाईकिल और कारों को देने का बढ़ते चलन का क्या करें ? इनसे एक की जरूरत वाले घरों में कई-कई वाहनों का जमावङा बढ़ रहा है। इस दिखावटी जीवनशैली से कैसे बचें ? सोचना चाहिए।

 

बिजली

 

अब सीधे बिजली की बात करें। संतुष्ट करता चित्र यह है कि आज की तारीख में अमेरिकियों की तुलना में, भारतीयों की औसत विद्युत खपत लगभग 25 प्रतिशत है। किंतु इसका मतलब यह नहीं है कि भारत में बिजली की बर्बादी नहीं हैं। कितने प्रतिशत भारतीय कितनी खपत करता है; इसका भेद करेंगे, तो पता चल जायेगा कि एक वर्ग बेहताशा खपत करता है, दूसरा अनावश्यक बर्बाद करता है, तीसरा बिजली के दो-चार लट्टुओें पर ही गुजारा कर लेता है और चैथे के पास बिजली कनेक्शन तो है, लेकिन बिजली कब आयेगी; पता नहीं। भिन्न राज्य विद्युत बोर्डों द्वारा अभी देहात के कई इलाकों में एक तय मासिक बिल का चलन है। अवैध ’कटिया’ कनेक्शन का चलन भी कम नहीं है। इस चलन के चलते अनावश्यक बिजली जलते रहने और सिंचाई हेतु नलकूप चलते रहने की चिंता कम ही ग्रामीणों को है। बर्बादी के मामले में शहरी भी कम नहीं है। अक्सर शहरी बिजली की खपत अपनी जरूरत के मुताबिक नहीं, जेब के अनुसार करते हैं। जितना बिल वे झेल सकते हैं, उतने तक वे बिजली खपाने में किसी किफायत की परवाह व  पैरवी नहीं करते। ’अरे भाईसाहब, बिजली हम ज्यादा फूंकते हैं, तो बिल भी तो हम ही देते हैं। आपको सिर में दर्द क्यों होता है ?’’ उनका यही रवैया है। परिणामस्वरूप, एक ओर लोग बिजली की कमी झेलते हैं और दूसरी ओर बिजली बर्बाद होती है। यह असंतुष्ट करता चित्र है। इसी का नतीजा है कि आज भारत की 25 से 28 प्रतिशत आबादी के घरों में बिजली नहीं है।

 

मांग

 

मांग का चित्र भिन्न है। भारत, एक विकसित होता हुआ देश है। आगे आने वाले वर्षों में भारत में बिजली की मांग और बढे़गी। सरकारी तौर पर माना गया है कि 2032 तक भारत की ऊर्जा मांग 800 गीगावाट होगी। पांच साल पहले तक भारत का सकल घरेलु उत्पाद का 8 से 9 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ने तक यह मांग 900 गीगावाट बताई गई थी। शुक्र है कि अभी भारत के सकल घरेलु उत्पाद के 60 प्रतिशत से अधिक निर्भरता सेवा क्षेत्र पर है, जोकि कम ऊर्जा खपत का क्षेत्र है; बावजूद इसके खपत और मांग, दोनो तो बढेंगी ही। ज्यादातर उद्योग, पानी के लिए भूजल पर निर्भर होते जा रहे हैं। भूजल स्तर गिरने और नदियों में पानी के कम होते जाने की स्थिति में कृृषि क्षेत्र में भी ईंधन और बिजली की मांग बढनी तय है। जैसे-जैसे भारत में प्रति व्यक्ति आय में इजाफा होता ज्यादा अथवा मध्यम वर्ग में शामिल होने वालों की संख्या बढ़ती जायेगी, निश्चित रूप से उनकी जीवनशैली में बिजली की खपत बढ़ती जायेगी। अतः हमारी सबसे पहली प्राथमिकता क्या यह नहीं होनी चाहिए कि मांग की भी एक सीमा बनाये। बिजली खपत और जीवन में उपभोग कम करके ही यह हो सकता है ? कैसे करें ?

 

कैसे घटायें ?

 

जाहिर है कि भूजल स्तर को ऊपर उठाने से यह होगा। बिजली बिल को खपत के आधार पर आकलन करने से उपयोग को अनुशासित होने में मदद मिलेगी। कटिया कनेक्शन अभियान चलाकर हटाये जायें। सभी कनेक्शनों में बिजली मीटर लगाये जायें। कम खपत वालों को बिजली दर में छूट दी जाये। ज्यादा खपत वालों से ज्यादा वसूला जाये। इससे लोगों को ज्यादा घंटे बिजली देने की जवाबदेही भी बढ़ जायेगी। विशेषज्ञों की सलाह यह है कि गैस आधारित विद्युत संयंत्र से अच्छा है कि कुकिंग गैस की आपूर्ति बढ़ायें। बिजली से चलने वाले उत्पाद कम करें। परिसरों में हरियाली बढ़ाई जाये, इससे वातानुकूलन करने वाली मशीनों की जरूरत स्वतः घट जायेगी। इस मामले में अंतर्राष्ट्रीय नजरिया बेहद बुनियादी है और ज्यादा व्यापक भी। वे मानते हैं कि पानी.. ऊर्जा है और ऊर्जा.. पानी। यदि पानी बचाना है तो ऊर्जा बचाओ। यदि ऊर्जा बचानी है तो पानी की बचत करना सीखो। बिजली के कम खपत वाले फ्रिज, बल्ब, मोटरें उपयोग करो। पेट्रोल की बजाय, प्राकृतिक गैस से कार चलाओ। अब थोङी चर्चा जलवायु अनुकूल वैकल्पिक विद्युत उत्पादन स्त्रोतों की।

 

वैकल्पिक स्त्रोत

 

फिलहाल तय किया गया है कि भारत, वर्ष 2030 तक 175,000 मेगावाट बिजली का उत्पादन गैर परम्परागत स्त्रोतों से करेगा। इस लक्ष्य प्राप्ति हेतु राय देने वाले कहते हैं कि ऊर्जा बनाने के लिए हवा, पानी, जैविक, कचरा, ज्वालामुखी तथा सूरज का उपयोग करो। फोटोवोल्टिक तकनीक अपनाओ। परमाणु ऊर्जा की वकालत करने वाले भी कम नहीं है।

 

पनबिजली

 

पिछले दो दशकों में भारत ने पनबिजली को ’क्लीन एनर्जी, ग्रीन एनर्जी’ के  नारे के साथ तेजी से आगे बढ़ाया है। जबकि हकीकत यह है कि पनबिजली स्वयं सवालों के घेरे में है। वैश्विक तापमान वृद्धि दर तथा जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने में कितनी सहायक होगी और कितनी विरोधी ? यह अपने आप में बहस का एक विषय बन गया है। केेन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण के अनुसार भारत की 89 प्रतिशत पनबिजली परियोजनायें अपनी स्थापना क्षमता से कम उत्पादन कर रही हैं। सैंड्रप के अनुसार टिहरी की उत्पादन क्षमता 2400 मेगावाट दर्ज है। व्यवहार में वह औसतन 436 मेगावाट उत्पादन कर रही है। अधिकतम उत्पादन 700 मेगावाट से अधिक कभी हुआ ही नहीं। वाष्पन-गाद निकासी में पानी व पैसे की निकासी तथा मलवा निष्पादन के कुप्रबंधन के जरिए हुए नुकसान का गणित लगायें, तो बङी पनबिजली परियोजनाओं से लाभ कमाने की तसवीर शुभ नहीं दिखाई देती। क्या पनबिजली, वाकई स्वच्छ ऊर्जा है  उत्तर में पनबिजली के बारे में हमें बस इतना समझने की जरूरत है कि स्वच्छ ऊर्जा वह होती है, जिसके उत्पादन में कम पानी लगे तथा कार्बनडाइआॅक्साइड व दूसरे प्रदूषक कम निकले। इन दो मानदंडों को सामने रखकर ही सही आकलन संभव है।

 

सूरज से बिजली

 

हां, सौर ऊर्जा विकल्प के बारे में अवश्य कुछ कहना है। प्रधानमंत्री श्री मोदी ने लक्ष्य तय किया है कि भारत, वर्ष 2009 में 20 गीगावाट की तुलना में, वर्ष 2022 तक 100 गीगावाट सौरऊर्जा का उत्पादन करेगा। कहा गया है कि लक्ष्य हासिल करने के लिए सरकार, लागत को 15 प्रतिशत तक घटाने की दिशा पर काम करना पहले ही शुरु कर चुकी है। मोदी सरकार ने फ्रांस के साथ एक गठबंधन भी किया है। 30 नवबंर को पेरिस जलवायु सम्मेलन के प्रथम दिन फ्रांस के राष्ट्रपति के साथ मिलकर, भारतीय प्रधानमंत्री इसकी घोषणा भी करेंगे। दोनो शख्सियतों की ओर से  सौ से अधिक देशों को अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन का न्योता भी भेजा जा चुका है। संयुक्त राष्ट्र संघ के महाासचिव ने बान की मून ने भारत की इस पहल की तारीफ भी की है। हमें भी करनी चाहिए, किंतु व्यवहार पर भी चर्चा करनी चाहिए।

 

स्त्रोतों के मुताबिक, हिमाचल को वर्ष 2019-2020 तक गैर परम्परागत स्त्रोतों से 100 मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य दिया गया है। ठंडे मरुस्थल होने के नाते लाहुल-स्पीति में इसकी क्षमता और संभावना..दोनो ही अधिक है। खबर यह भी है कि सूर्या उष्मा प्राइवेट कंपनी ने एक दक्षिण अफ्रीकी समूह के साथ मिलकर इसमें निवेश का प्रस्ताव भी दे दिया है। दिल्ली, भारत में सबसे अधिक बिजली खपत वाला शहर है। औसत खपत का आंकङा है, 2000 यूनिट यानी किलोवाट प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष। दिल्ली के 31 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में अभी 2500 मेगावाट सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता है। इस बाबत् एक नीतिगत प्रस्ताव अभी प्रकाश में आया है। दावा किया जा रहा है कि इससे दिल्ली की कुल खपत का पांचवां हिस्सा हासिल किया जा सकेगा। वर्तमान स्थिति यह है कि अभी दिल्ली की छतें, 2015 के वर्ष में मात्र सात मेगावाट बिजली पैदा कर रही हैं। लक्ष्य, 2020 तक 1,000 मेगावाट तथा 2025 तक दोगुना करना है। ऐसे ही लक्ष्य, अन्य राज्यों के समक्ष भी होंगे ही। किंतु ये लक्ष्य इतने आसान हैं, जितनी सहजता से हमारे नेताओं द्वारा कहे अथवा यहां लिखे जा रहे हैं ? गौर कीजिए एक वर्ग किलोमीटर में 25 मेागवाट क्षमता के सौर ऊर्जा संयंत्र लगाये जा सकते हैं। इन्हे छत पर लगायें, नहरों के किनारे, चारागाहों अथवा अन्य खुली ज़मीनांे पर ले जायें। भूमि की उपलब्धता की दृष्टि से क्या यह इतना सहज होगा ? इस शंका का आईना यह भी है कि सौर ऊर्जा के मामले में हमारी वृद्धि दर, अभी एक गीगावाट प्रति वर्ष से अधिक नहीं है। अभी भारत की छतों पर एक गीगावाट से भी कम बिजली पैदा होती है।

पिछले पांच वर्षों में सौर ऊर्जा लागत में काफी गिरावट आई है। किंतु सौर ऊर्जा प्राप्ति में लागत की दृष्टि से बैटरी का कीमत, व और कम आयु अभी भी सबसे बङी बाधा है। बैटरी की आयु बढ़ाने तथा वजन और कीमत घटाने के लिए शोध की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री श्री मोदी ने अपने एक बयान में इस बाबत् अपील भी की है। यह करना ही होगा।

संकल्प का संकट

सब जानते हैं कि ज्वालामुखियों से भू-ऊर्जा का विकल्प तेजी से बढ़ते मौसमी तापमान को कम करने में अंततः मददगार ही होने वाला है। भारत के द्वीप समूहों में धरती के भीतर ज्वालामुखी के कितने ही स्त्रोत हैं। जानकारी होने के बावजूद हमने इस दिशा में क्या किया ? पवन ऊर्जा प्रोत्साहन का प्रश्न तो रहेगा ही। समाज की जेब तक इनकी पहुंच बनाने का काम तो करना चाहिए था। कुछ नहीं, तो उपकरणों की लागत कम करने की दिशा में शोध तथा तकनीकी व अर्थिक मदद तो संभव थी। अलग मंत्रालय बनाकर भी हम कितना कर पाये ? हम इसके लिए पैसे का रोना रोते हैं। हमारे यहां कितने फुटपाथों की फर्श बदलने के लिए कुछ समय बाद जानबूझकर पत्थर व टाइल्स को तोङ दिया जाता है। क्या दिल्ली के मोहल्लों में ठीक-ठाक सीमेंट सङकों को तोङकर फिर वैसा ही मसाला दोबारा चढ़ा दिए जाने की फिजूलखर्ची नहीं है। ऐसे जाने कितने मदों में पैसे की बर्बादी है। क्यों नहीं पैसे की इस बर्बादी को रोककर, सही जगह लगाने की व्यवस्था बनती; ताकि लोग उचित विकल्प को अपनाने को प्रोत्साहित हों। स्पष्ट है कि बिजली और ईंधन पर बहुआयामी कदमों से ही बात बनेगी। कार्बन उत्सर्जन कम करने में निजी भूमिका तय किए बगैर कुछ बदलेगा नहीं।

 

कैसे बढे़ कार्बन सोख ?

 

हरियाली, कार्बन को सोख लेती है। अतः भारत ने अपनी घोषणा में वन क्षेत्र बढ़ाने का संकल्प लिया है। सच है कि कार्बन अवशोषण की दृष्टि से हरीतिमा का कोई विकल्प नहीं है। वन क्षेत्र बढ़ाते समय हमें इमारती वनों की बजाय, मौसम, पानी, मिट्टी और जीवन को मदद करने वाली प्रजातियों के बारे में सोचना होगा। जैव विविधता, पृथ्वी पर जीवन की असल शक्ति है। इसे बढ़ाना ही होगा, किंतु पानी संजोये बिना यह संभव नहीं है। वर्षाजल संचयन बढ़ाकर, भूजल भंडार बढ़ा दें। अनुशासन बनाकर उपभोग घटा दें। इससे नदियों में भी पानी बढ़ेगा। तापमान वृद्धि रोकने में मदद मिलेगी। परिणामस्वरूप, समुद्र का ताप और खारापन दोनो कम होगा। कार्बन की प्राकृतिक अवशोषण प्रणाली की रक्षा होगी और अंततः पृथ्वी पर जीवन की। यह करना ही होगा। किंतु क्या हम ऐसा कर रहे हैं  ?

 

अवशोषण की प्राकृतिक प्रणाली

 

ध्यान देने की बात है कि समुद्र में प्राप्त मूंगा भित्तियां, जीवन की प्रथम नर्सरी तो मानी ही गई हैं, इन्हे कार्बन अवशोषण की सर्वश्रेष्ठ प्राकृतिक प्रणाली के तौर पर भी प्रमाणिक पाया गया है। इनका स्थान, समुद्र में है। समुद्रों का तापमान बढ़ने से मूंगा भित्तियों का बङा क्षेत्रफल तेजी के साथ नष्ट हो रहा है। समुद्र का तापमान कैसे कम हो ? इसे कम करने का काम, नदियों से आने वाले मीठे और शीतल जल का है। किंतु नदियां तो हम सुखा रहे हैं। नदियों से बहकर आने वाले पानी को बांधों, बैराजों, नहरों में रोककर हम घटा रहे हैं। बीते 18 नवंबर को जलसंसाधन मंत्रालय की हुई बैठक के बाद अगले दिन आई खबरों में मंत्रालय ने नदी जोङ परियोजना के लिए राज्यो से सहयोग मांगा है और बिहार में इसे प्राथमिकता के तौर पर किए जाने की बात कही है। कहा जा रहा है कि इससे पूरे भारत के पानी की समस्या का हल हो जायेगा।

आखिर कोई विषय विशेषज्ञ यह कैसे भूल सकता है कि नदी जोङ परियोजना के जरिए हम समुद्री जल में नदी के मीठे पानी की मात्रा घटा देंगे। इससे समुद्र का खारापन बढ़ेगा और पहले से तेजी से बंजर हो रहे भारत में खारी-बंजर ज़मीन के आंकङे बढ़ जायेंगे। समुद्र किनारे के इलाकों में पेयजल का संकट बढ़ेगा। दूसरी ओर नदी के पानी का एक काम समुद्र के तापमान को भी नियंत्रित करना है। नदी जोङ परियोजना को ज़मीन पर उतारकर हम नदी के इस काम में अवरोध उत्पन्न करेंगे। जरा सोचिए, समुद्र का तापमान नियंत्रित नहीं होगा, तो क्या होगा ? मूंगा भित्तियां कितनी  बचेंगी ? हमारे मानसून का क्या होगा ? अलनीनो और लानीनो क्या खेल रच जायेंगे ? हमारी नदियों में लगातार पानी घट रहा है। ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, गंगा को प्रवाह देने वाली धाराओं में करीब 106 धारायें सूख गई हैं। सिक्किम ने वापसी जरूर की है, किंतु पूरे भारत में झरने सूखने की राह पर तेजी से बढ़ चुके हैं। हिमालयी क्षेत्र, इसका सबसे बङा शिकार है। जब झरने नहीं बच रहे, तो खेती कैसे बचेगी ?

नदी जोङ परियोजना की वकालत का एक आधार, बिहार जैसे कुछ इलाकों को बाढ़ क्षेत्र मानना है। इस पर सवाल उचित होगा। हम भूल रहे हैं कि बदलता परिदृश्य ऐसा है कि कब कौन से इलाका बाढ़ क्षेत्र बनेगा और कौन सा सूखा क्षेत्र ? कहना मुश्किल हो गया है। हर साल, बाढ़ और सुखाङ के नये इलाके बन रहे हैं। राजस्थान, कश्मीर में भी बाढ़ के संदर्भों से आप परिचित ही हैं। यह मौसमी-मानसूनी अस्थिता तथा भौगोलिक बदलाव का कालखण्ड है। इसके मद्देनजर, अब आप ही तय कर लीजिए कि नदी जोङ परियोजना, जलवायु परिवर्तन, तापमान वृद्धि और भारत के भूगोल, खेती व रोजगार को संजोने में कितनी सहायक अथवा विरोधी ? जलवायु परिवर्तन के मसले पर एक ओर भारत के नेतृत्वकारी भूमिका में आने की खबरें और दूसरी ओर गैर समग्रता से सोचे किए जा रहे ये कृत्य ?? यह चलेगा नहीं। भारत को भीतर से बदलना पङेगा। नेतृत्व करना है, तो पहने अपनी ताकत के स्त्रोतों को दुरुस्त करना ही होगा। प्रकृति से छेङछाङ व शोषण घटाना होगा। इसी से कार्बन अवशोषण भी बढे़ेगा। किंतु यह सिर्फ धन से नहीं होने वाला; इसके लिए विचार और व्यवस्था की चारपाई में लगी घुनों का हटाना होगा। सदाचार और सद्व्यवहार की धुन लगे बगैर यह होगा नहीं।

 

कैसे घटे कार्बन उपभोग ?

 

जलवायु परिवर्तन संबंधी बहस-मुबाहिसों से उबे मन सवाल कर सकते हैं – ’’ जलवायु बदल रही है, तो इसमें हम क्या करें ? हमने थोङे ही तापमान बढ़ाया है।… पूरे वायुमंडल का तापमान बढ़ा है। एक अकेले देश या व्यक्ति के करने से क्या होगा ?’’

मेरा मानना है कि पृथ्वी में जो कुछ घट रहा है, जाने-अनजाने हम सभी का योगदान है; किसी का कम और किसी का ज्यादा। चाहे कचरा बढ़ा हो या भूजल उतरा हो; हरियाली घटी हो या तापमान बढ़ा हो, योगदान तो हम सभी ने कुछ न कुछ दिया ही है। अब इस पर विचारने की बजाय, विचार यह हो कि हम क्या करें ? कोई एक देश या व्यक्ति अकेला क्या कर सकता है ?

इसका सबसे पहला कदम यह है कि हम विश्व को आर्थिकी मानने की बजाय, एक शरीर मानना शुरु करें। पृथ्वी, एक शरीर ही है। सौरमंडल-इसका दिमाग, वायुमंडल-इसका दिल व उसमें संचालित होने वाली प्राणवायु,  इसका नदियां इसकी नसें, भूजल इसकी रक्त वाहिनियां, इसकी नसें हैं। दरख्त इसके फेफङे, भूमि की परतें इसका पाचनतंत्र, किडनी, समुद्र इसका मूत्राश्य और तापमान व नमी इसके उर्जा संचालक तत्व हैं। बुखार होने पर लक्षण भले ही अलग-अलग रूप में प्रकट होते हों, लेकिन प्रभावित तो पूरा शरीर ही होता है। आजकल पृथ्वी को बुखार है; प्रभावित भी पूरा शरीर ही होगा।

बुखार क्यों होता है ? शरीर की क्षमता से अधिक गर्मी, अधिक ठंडी अथवा अधिक खा लेने से पेट में अपच…भोजन की सङन या फिर कोई बाहरी विषाणु। पृथ्वी को भी यही हुआ है। हमने इसके साथ अति कर दी है।

बुखार होने पर हम क्या करते हैं। तीन तरीके अपनाते हैं। इसे संतति नियमन के इन तीन तरीकों से भी समझ सकते हैं कि पहला, ब्रह्मचार्य का पालन करें; ज्यादा उम्र में शादी करें। दूसरा, गर्भ निरोधकों का प्रयोग करें। तीसरा, प्रकृति को अकाल, बाढ, सूखा व भूकम्प लाकर संतति नियमन करने दें

हमारे द्वारा पहले दो तरीके न अपनाने पर प्रकृति तीसरा तरीका अपनाती है। दूसरा तरीका, भोग, उपभोग, खर्च बढाने जैसा है। ब्रह्मचार्य, पूर्ण उपवास तथा अधिक उम्र में विवाह, आधा उपवास जैसा कार्य है। ये दोनो ही स्वावलंबी व शरीर के द्वारा खुद के करने के काम हैं। इनके लिए बाहरी किसी तत्व पर निर्भरता नहीं है। इसी से शरीर का शोधन होगा और शरीर का बुखार उतरेगा।

 

उपभोग बढ़ाता बाजार

 

स्पष्ट है कि उपभोग कम किए बगैर कोई कदम कारगर होगा; यह सोचना ही बेमानी है। किंतु हमारी आर्थिक नीतियां और आदतें ऐसी होती जा रही हैं कि उपभोग बढ़ेगा और छोटी पंूजी खुदरा व्यापारी का व्यापार गिरेगा।

गौर कीजिए कि इस डर से पहले हम में से कई माॅल संस्कृति से डरे, तो अक्सर ने इसे गले लगाया। अब गले लगाने और डराने के लिए नया ई-बाजार है। यह ई बाजार जल्द ही हमारे खुदरा व्यापार को जोर से हिलायेगा, कोरियर सेवा और पैकिंग इंडस्ट्री और पैकिंग कचरे को बढायेगा। ई बाजार, अभी यह बङे शहरों का बाजार है, जल्द ही छोटे शहर-कस्बे और गांव में भी जायेगा। तनख्वाह की बजाय, पैकेज कमाने वाले हाथों का सारा जोर नये-नये तकनीकी घरेलु सामानों और उपभोग पर केन्द्रित होने को तैयार है। जो छूट पर मिलेे.. खरीद लेने की भारतीय उपभोक्ता की आदत, घर में अतिरिक्त उपभोग और सामान की भीङ बढ़ायेगी और जाहिर है कि बाद में कचरा। सोचिए! क्या हमारी नई जीवन शैली के कारण पेट्रोल, गैस व बिजली की खपत बढी नहीं है ? जब हमारे जीवन के सारे रास्ते बाजार ही तय करेगा, तो उपभोग बढ़ेगा ही। उपभोग बढ़ाने वाले रास्ते पर चलकर क्या हम कार्बन उत्सर्जन घटा सकते हैं ?

 

आबादी में भी है बढ़वार

 

दिलचस्प है कि दुनिया की सबसे बङी आबादी का देश होने के बावजूद चीन ने एक संतान के नियम को बदलकर, दो संतान की अनुमति दे दी है। क्या हम भारतीय, अपनी बढ़ती जनसंख्या दर पर लगाम लगाने का विचार त्याग दे अथवा इसकी रफ्तार कम करना उपभोग घटाने में सहायक होगा ? विचारणीय प्रश्न है।

गौर कीजिए कि भारत, आबादी के मामले में नंबर दो है; किंतु भारत में जनसंख्या वृद्धि दर, चीन से ज्यादा है। भारतीयों की औसत प्रजनन दर, चीन के दोगुने के आसपास है। अकेले उत्तर प्रदेश की आबादी, ब्राजील के बराबर है और बिहार की आबादी, जर्मनी से ज्यादा है। मध्य प्रदेश और राजस्थान भी जनसंख्या विस्फोटक प्रदेश माने जाते हैं। इन मैदानों पर आबादी के दबाव का नतीजा भी अब सामने आने लगा है। कभी हरित क्रांति का अगुवा बना सतलुज का मैदान कृषि गुणवत्ता, सेहत और आर्थिकी के मामले में टें बोलने लगा है। गंगा के मैदान के दो बङे राज्य – उत्तर प्रदेश और बिहार की प्रति व्यक्ति आय, संसाधनों की मारामारी और अपराध के आंकङे खुद ही अपनी कहानी कह देते हैं। खाली होते गांव और शहरों में बढता जनसंख्या घनत्व! पानी और पारिस्थितिकी पर भी इसका दुष्प्रभाव दिखने लगा है।

 

उपभोग घटायें

 

जलवायु परिवर्तन इस दुष्प्रभाव को घटाये, इससे पहले जरूरी है कि हम जनसंख्या और जनसंख्या वितरण में संतुलन लाने की कोशिश तेज करें। तटस्थता से काम चलेगा नहीं। यह तटस्थता कल को औद्योगिक उत्पादन भी गिरायेगी। नतीजा ? स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन का यह दौर, मानव सभ्यता में छीना-झपटी और वैमनस्य का नया दौर लाने वाला साबित होगा। आज ही चेतें। सर्वश्रेष्ठ है कि उपभोग घटायें; प्रत्येक वस्तु के सदुपयोग को अपनी आदत बनायें।

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