-राजीव बिश्नोई
धर्म और राष्ट्र पर बहस करने पर वोल्तेयेर का एक कथन याद आता है …….. “हो सके मैं आपके विचारों से सहमत ना हो पाऊ, फिर भी मैं अपने विचार प्रकट करने के अधिकारों की रक्षा करूगां……।” क्योंकि सभी का राष्ट्रवाद पर एकमत होना नामुमकिन हैं ख़ासकर सामाजिक चिंतकों का साधारण जन मानस के साथ, इस जन मानस में सरकार भी शामिल है चूँकि संसदीय व्यवस्था में जनता सर्वोपरि होती हैं। काल मार्क्स ने भी धर्म को लोगों की अफीम कहा, चूँकि लोग इसके नशे में रहते है चाहे वो वैचारिक ही क्यों ना हो। ठीक उसी तरह राष्ट्रवाद भी बड़ी बहस का विषय है और जब कोई अपने विचार रखता है तो ठीक वही हाल होता हैं, जैसे कोई मधुमखी के छत्ते को छेड़ता है उसे ये तो पता होता है की कोई मक्खी उसे काटेगी पर कोंन सी काटेगी ये वो नही जानता…? अगर साधारण भाषा में राष्ट्रवाद को परिभाषित करे तो ये ही कहेगे को अपने देश के हित को सर्वोपरि समझे, उसकी अस्मिता को बनाये रखें। भारतीय सविधान की उदेशिका भी इस बात का ज़िक्र करती है जिसके बीच के अंश इस प्रकार हैं , “………..समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए, तथा उन सबमे व्यक्ति की गरिमा और (राष्ट्र की एकता और अखंडता) सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ने के लिए ……..” यहाँ जिन बातों का ज़िक्र किया गया है वर्तमान में उनमें से, धर्म और उपासना के सामने बाकि सब गौण बन गए है ? संविधान की उदेशिका में जिन बातों का ज़िक्र हैं, वो सम्पूर्ण लोक गणराज्य की पहचान हैं लेकिन धर्म को जिस तरह से अति सवेदनशील विषय बनाया गया हैं सम्पूर्ण सामाजिक और राजनेतिक ढांचा इसकी परिधि में घूम रहा हैं , इसके बावजूद देश की अखंडता बनी हुई हैं। आखिर क्या वजह है की किसी और विषय जेसे सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय पर लोग खामोश रहते हैं इतना हो हल्ला नही मचता ….?
असल में हम मैकाले की शिक्षा प्रणाली से अभी भी जूझ रहे हैं जो हमें ठोकर खाकर संभलना सिखाती हैं पर ठोकर से कैसे बचना हैं …..नहीं बताती ….। हर गलती पर आँख मूंद लेने की प्रवृत्ति चाहे वो सरकार की हो या जनता की, देश में भाषाई, आर्थिक, जातीय आधार पर रेडक्लिफ लाइन की तरह भेद उत्पन कर रही हैं और ऐसे में राष्ट्रवाद की परिभाषा भी अलग अलग रूप में सामने आती हैं ..। वित मंत्रालय के वर्तमान आंकड़ों पर नज़र डाले तो देश में मौजूदा सकल घरेलू उत्पाद (मौजूदा रकम में) में कृषि के योगदान में 12.7% , माइनिंग और क्वारिंग (खनन और खदान) में 28.7%, निर्माण क्षेत्र में 17.5% , गैस, बिजली, पानी सप्लाय में 18.5 %, रियल स्टेट, इंसोरेंस, बिसनेस सर्विस में 24 .4 % की वृद्धि दर्ज की गई.. कृषि का अनुपात तुलनात्मक रूप से कम हैं खासकर उस देश में जिसमे आज भी सबसे ज्यादा लोग इस पर निर्भर है, ये भेद ही असमानता की शुरुवात हैं।ज़ाहिर हैं किसान की राष्ट्रवादी सोच किसी थ्री पिस सूट पहनने वाले से मेल खा ही नही सकती।
हमारा सविंधान जिस बुनियाद पर टिका हैं उसके स्तम्भ मजबूत हैं जो देश को एक सूत्र में पिरोये हुआ हैं, देश में जो असमानता का माहौल बनता जा रहा हैं वो आने वाले समय का ऐसा ब्लैक होल होल हैं जिसे भरना बहुत मुश्किल होगा। समानता का अधिकार दम दोड़ता जा रहा हैं, जनता की आवाज जिस संसद से उठाई जाती हैं उसमें किसान की नुमायन्दगी करने वाला कोई हैं ही नही, एक बार में 72 हज़ार करोड़ का कर्ज़ माफ करने की दुहाई सरकारी नुमायदा हर मंच पर करता हैं पर जो सब्सिडी कॉरपोरेट हर महीने डकार जाता हैं वो इस 72 हज़ार से कहीं जायदा हैं ये बात विपक्ष भी नही उठा सकता। हाल ही में एक RTI से ये बात सामने आई हैं कि कुछ बड़े कॉरपोरेट घराने हर बड़ी पार्टी को चंदा देते हैं यानि जो पार्टी सरकार में हैं वो उनके अनुरूप ही पोलिसी बनती हैं और विपक्ष को चुप रहना पड़ता हैं, राष्ट्रवाद पर वैचारिक मतभेद की शुरुवात देश में 90 के दशक में हुई, उस समय आर्थिक उदारीकरण की शुरुवात थी और सरकार की नीतिया भी सिर्फ वर्ग विशेष के लिए ही बनकर रह गई और इसका सबसे बड़ा असर असंघ्ठित क्षेत्र पर पड़ा, और यही से सामाजिक ढांचे में दरार पैदा हो गई और लगातार बढती जा रही हैं, और हाल ही की कुछ घटनाये ऐसी थी जिन पर सरकार भी बेबस थी जेसे रास्ट्रीय संपदा ( केजी बेसिन में गैस) पर देश के बड़े कॉरपोरेट घराने को सरकार ये सुझाव देती नज़र आई की आप इसे अपने आप सुलझा ले सरकार का कोई कड़ा रुख नही था वही अगर देश का किसान अपनी मांग को लेकर संसद मार्ग पर आता हैं तो उसे सिर्फ आश्वासन ही मिलता हैं या राज्य सरकार के पाले में डाल दिया जाता हैं ये विडंबना नही बल्कि दुर्भाग्य हैं।
देश में NCCF ने फरवरी 2010 की स्थिति में अनुसार सुखा प्रभवित राज्यों को 4736 .635 करोड़ की राशि आवंटित की, जो किसी कॉरपोरेट ग्रांट का अंश भर हैं। अगर फसल के मूल्य वर्धि की बात की जाये तो मुख्य खाद्यानों में गेहूं के समर्थन मूल्य में (2008 -2009 की तुलना में ) 20 रूपये, धान में 100 रूपये की वृधि की गई है जबकि औधोगिक उत्पादको में इससे कहीं ज्यादा मूल्य वर्धि हुई हैं, मूल्य वर्धि का असंतुलन सबसे ज्यादा ग्रामीण तबके को प्रभावित करता हैं और यही असंतुलन समाज में रोष की भावना पैदा करता हैं जो किसी न किसी रूप में बाहर आ रहा हैं, कश्मीर का रोष सबके सामने हैं जो सरकारी उदासीनता का शिकार हैं या फिर नक्सल के रूप में आये वो लोग जिनकी उपज राशन कार्ड में दर्ज नाम से हुई, जिनका नाम तो सरकारी योजनाओ में था पर योजना उन तक पहुँच ही नही पाई, और ब्यूरोक्रेसी नाम की दीमक ने काट लिया।
आज नोबत ये आ गई हैं की सर्वोच्च न्यायालय को सरकार को आदेश देना पड़ता हैं,यानि जो सरकार जनता चुनती हैं वो तो खामोश हैं ही……..उसके बाकि के अंग भी सुन हो गए हैं और साथ में चौथा स्तम्भ (मीडिया) पूरी तरह से कॉरपोरेट की धुन में झूम रहा हैं, इतनी विषमताए एक नये राष्ट्रवाद को जन्म देती हैं और वो हैं स्वार्थ, जो आने वाले समय के लिए घातक हैं………?
आपने ठीक कहा राजीव जी, देश में जो आज लाइन बन रही हैं उसे ठीक करना कठिन हो गया हैं, आज देश की 70 % जनता गरीब हैं तो जो पूंजी देश के मात्र 10 % लोगो के कब्जे में हैं वो असंतुलन हमारे लिए घातक हैं