भारतीय संस्कृति के वाहक चार धाम

-त्रिलोक चन्द्र भट्ट

हिमालय की पर्वत शृंखलाओं का धवल क्रम पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र रहा है। स्वच्छ स्निग्ध पर्वत शृंखलाओं के निचले पर्वतीय व वन क्षेत्र अपने शांत वातावरण के कारण ऋषि-मुनि व ज्ञानियों की जिज्ञासा बढ़ाते रहे हैं। इन वन क्षेत्रों को उन्होंने कठिन तपस्याएं कर अनेक मंत्र सिद्धियां व ज्ञान की प्राप्ति की। भौतिकवाद की तीव्र रफ्तार के बीच यहाँ पहुँच कर हर पर्यटक एक अभूतपूर्व आत्मिक सुख की अनुभूति करता है और वह स्वयं का समस्त सांसारिक उद्विग्‍नता से मुक्ति पाकर प्रकृति से गहराई के साथ जुड़ता जाता है। पौराणिक कथानुसार इस तपोभूमि में सर्वप्रथम महात्मा उपमन्यु ने शंकर की आराधना की थी। द्वापर में जब शास्त्रों में हिमालय विभाजन पाँच खंडो में किया गया तब नेपाल, कूर्मांचल, जालन्धर, कश्मीर, जो कि अमरनाथ के नाम से प्रसिद्ध है और पाँचवा खण्ड केदारखण्ड था। केदार खण्ड को शिव की ‘क्रीड़ा स्थली’ माना जाता है। ये तीर्थ स्थल देश की सांस्कृतिक एवं भावनात्मक एकता, श्रद्धा तथा सम्मान का महत्वपूर्ण प्रतीक हैं। दक्षिण से आकर स्वामी शंकराचार्य ने उत्तर में बदरीनाथ की मूर्ति की स्थापना की और आज भी केरल राज्य के नम्बूदरीपाद ब्राह्मण मुखय पुजारी रावल ही मंदिर की पूजा-शृंगार के अधिकारी हैं। इस भाँति ये पावन तीर्थ राष्ट्रीय एकता का भी प्रेरणा स्रोत हैं और साथ ही भारतीय संस्कृति एवं साहित्य का उद्गम स्थल भी हैं।

महाभारत काल वर्ष पर्व में गंगा द्वार से श्री धमों की यात्रा का जो रोचक वर्णन है वह प्राचीन होने के साथ-साथ कौतूहलपूर्ण भी है। धर्म ग्रन्थों में चार धाम गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ और बदरीनाथ की यात्रा का विशेष महत्व बताया गया है। सैकड़ों वर्षो से मनुष्य सुख, समृद्धि की कामना, रोग, शोक तथा दरिद्रता का नाश तथा पितरों के तारण और अपने मोक्ष की कामना के साथ चारधम की यात्रा करता रहा है। सदियों से इन पवित्र धमों के दर्शन और पूजा अर्चना के लिए लाखों श्रद्धालु अनेकों कष्ट उठा कर यहाँ आते रहे हैं। प्राचीन समय में मध्य हिमालय में स्थित उत्तराखण्ड से जुड़े इन तीर्थों की यात्रा किस तिथि से और किसने प्रारम्भ की तथा इसके मूल में क्या प्रयोजन था? इसका पता लगाना कठिन है। क्योंकि हिमालय के प्रति श्रद्धा और पूज्य भाव तो भारतीय पूर्वजों के अन्दर प्राचीन युग से ही प्रारम्भ हो गया था।

प्राचीन काल में ऋषियों को हिमालय के विराट स्वरूप की अनुभूति होने लगी थी। आगे चलकर महाभारत काल में इसकी पुष्टि हो गयी। भगवान कृष्ण ने जब विराट स्वरूप से स्थिरता नाम के महान तत्व की चर्चा की तो कहा कि, हे अर्जुन! स्थिर वस्तुओं मे मैं हिमालय हूँ। हिमालय के अलौकिक सौन्दर्य ने मानव को आकर्षित कर लिया था। हिमालय की गोद में तप करने से उन्हें अपार शांति मिलने लगी। धीरे-धीरे यहाँ तपोवनों का विकास होने लगा। हिमालय की अलौकिक छटा से परिपूर्ण और सुषमायुक्त उसके पर्वत शिखरों की गोद में इन मंदिरों और तीर्थों के लिए जो उपयुक्त है वह और कहाँ हो सकता है? पुराणों में भी इसका कापफी वर्णन है।

मानव शास्त्र का इतिहास यह प्रमाणित करता है कि मानव-जाति अपने आरम्भिक काल में उसी प्रकार जिया करती रही होगी, जिस प्रकार पशु जिया करते हैं। समय पाकर मानव का प्रकृति से उषा, सूर्य, चन्द्र, संध्या, नदी, निर्क्षर, पर्वतों एवं समतल भूमि पर हरियाली, छिटकते वनों से और इसी प्रकार विभिन्न प्राणियों से सम्पर्क स्थापित हुआ, जिससे मानव की ज्ञान चेतना जागृत हुई। ज्ञान चेतना की इसी जागृति ने मानव के हृदय में यह उमंग भर दी कि वह विश्व के साथ घुल-मिल जाये और प्रेम का विस्तार करे, उसकी जीवन-भूमि उल्लास, पवित्रता और सुन्दरता से परिपूर्ण हो उठे। मानव की यही उमंग आध्यात्मिकता का चोला पहन पवित्र धर्मों की यात्रा के रूप में उभरी।

धर्म का अर्थ है ‘देव स्थान’। हिन्दुओं में चार देव-स्थानों का विभिन्न कारणों से बहुत महत्व है। इनकी यात्रा मोक्षदायिका मानी जाती है। चारों धम भारत की पूर्ण परिक्रमा और एकात्मकता के प्रतीक हैं। हिन्दू धर्म की व्यापकता के कारण इनके सम्बन्ध में सहस्त्रों मनीषियों, कवियों और लेखकों ने अपने गम्भीर मनन और चिंतन से अनेक ग्रन्थ-रत्न प्रस्तुत किये हैं जिनमें चार धामों की पवित्रता, और महत्ता का गुणगान किया है। चार धाम सर्वप्रकार से कल्याणकारक और मंगलमय हैं। जैसे-जैसे मनुष्य ‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’ का अर्थ समझता जायेगा वैसे-वैसे आध्यात्मिक मूल्यों को अपनाकर अपने को कृतार्थ करता जायेगा।

हिन्दु मन हिन्दु-संस्कृति का ही एक टुकड़ा है। वह उदारमना व सहिष्णु होकर नूतन भावों का जागरूता से स्वागत करता है। मानव मन लौकिक विजय से उतना तृप्त नहीं होता जितना कि आध्यात्मिक विजय से। यह आध्यात्मिक विजय चार खूंटों के रूप में चारों धमों में छिपी रहकर मानव को अमरत्व प्रदान करती है। वैज्ञानिक युग की आपाधपी में आज भी लोगों के मन में यह भावना निरन्तर प्रवाहित है कि गंगोत्री का जल व बदरी-केदार के दर्शन ही मोक्ष के हेतु हैं। शिव-भक्त उत्तर की गंगोत्री से गंगाजल लेकर दक्षिण सीमा के रामेश्वरम्‌ महादेव का अभिषेक कर आत्म-सन्तुष्टि अनुभव करता है। यही आस्था व विश्वास भारतीय संस्कृति की एकता को सुदृढ़ रखे हुए है।

यमुनोत्री

पुराणों में यमुनोत्री का विशेष महत्व है। आसित मुनि की निवास स्थली यमुनोत्री धाम 3235 मी० की ऊँचाई पर स्थित है। चार धम की यात्रा में सर्वप्रथम यमुनोत्री के ही दर्शन किये जाते हैं। यमुनोत्री में एक ओर यमुना जी की धरा और दूसरी ओर बहुत उष्ण जल के बहुत से स्रोत हैं जो कि बहुत प्रसिद्ध हैं। यहाँ का मुख्‍य मंदिर यमुना देवी को समर्पित है। वर्तमान मंदिर जयपुर की महारानी गुलेरिया ने 19वीं सदी में बनवाया था। एक बार विनाशकारी भूकम्प से विध्वंस होने के बाद इसका पुनर्निर्माण हुआ है। वि०सं० 1919 में टिहरी नरेश महाराजा प्रताप शाह ने इसका पुनर्निर्माण करवाया।

यमुनोत्री मंदिर में यमुना जी की भव्य प्रतिमा के साथ गंगा, यमराज व कृष्ण की प्रतिमाएँ स्थापित हैं। यमुनोत्री दर्शन के लिए सड़क मार्ग के लिए अंतिम पड़ाव हनुमान चट्टी से 13 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। पतित पावनी, कल्याणकारी, अमृत स्वरूपा यमुनोत्री मंदिर के दर्शन से यात्रा की सारी थकान मिट जाती है और मन प्रसन्न हो उठता है। धर्मशास्त्रों के अनुसार सूर्य की संध्या और छाया नामक दो पत्नियाँ थी। छाया से ‘यम’ और ‘यमुना’ की उत्पत्ति हुई थी। माता के श्राप के कारण यम को धरती पर पालियों का शासन संभालना पड़ा और वे यमराज कहलाये। जबकि सूर्य ने धरती, पाताल और आकाश तीनों लोकों में लोगों के कल्याण के लिए यमुना को पितरों को दे दिया। तभी से वह सदियों पूर्व से इस भूमण्डल में भी जगत कल्याण के लिए प्रवाहमान है।

यमुना जी यमराज की बहन, सूर्य भगवान की पुत्री, भगवान श्रीकृष्ण की आठ पटरानियों में कालिन्दी के नाम से प्रसिद्ध है। यमुना का उद्गम स्थान यमुनोत्री के बन्दरपुच्छ नामक स्थान से माना जाता है। यहाँ से एक किलोमीटर दूर कालिन्द पर्वत से पवित्र यमुना नदी अवतरित होती है। यमुना का उद्गम स्थल 4421 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है।

गंगोत्री

3140 मीटर की ऊँचाई पर हिमालय की गोद में बसा ‘गंगोत्री’ हिन्दुओं का पवित्र तीर्थ है। इस तीर्थ पर तप, तर्पण और उपवास रखने से यज्ञ के पुण्य फल की प्राप्ति होती है। भागीरथी के दाएँ तट पर गंगा को समर्पित पवित्र मंदिर 18वीं शताब्दी में गोरखा कमान्डर अमर सिंह थापा द्वारा बनवाया गया था। ऐसा माना गया है जिस शिला पर बैठ कर राजा भागीरथ ने तपस्या की थी उसी पर यह मंदिर बनाया गया था। उस प्राचीन मंदिर के स्थान पर आज भव्य मंदिर खड़ा है। जिसकी रचना जयपुर के राजाओं द्वारा करवाई गई थी। यहाँ पतित पावनी गंगा की धरा का प्रवाह उत्तर दिशा की ओर मुड़ने के कारण इस स्थान का नाम गंगोत्री पड़ा।

पतित पावनी गंगा मंदिर का जो प्राणी श्रद्धापूर्वक दर्शन करता है वह सर्वपाप रहित हो जाता है क्योंकि हिन्दू धर्मग्रन्थों में जननी, गौ माता और गंगा मॉं को एक ही समान दर्जा दिया गया है, इसलिए इसे पूज्य माना गया है। गंगोत्री में भागीरथी का विशाल मंदिर है जिसमें गंगा, यमुना, सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती एवं अन्नपूर्णा की मूर्तियाँ हैं। महाराज भगीरथ सम्मुख हाथ जोड़े हुए हैं। पूजा का समस्त सामान स्वर्ण का है। यहाँ देवदार का जंगल भी है। पुरी से कुछ नीचे केदार गंगा का संगम है और वहाँ से एक पफर्लांग नीचे पर्याप्त ऊँचाई से गंगाजी शिवलिंग पर गिरती है। गंगोत्री मंदिर में गंगा का पूजन प्राचीन काल में खस जाति के पुजारियों द्वारा किया जाता था। अमर सिंह थापा द्वारा मंदिर निर्माण के उपरान्त मंदिर की पूजा का दायित्व वर्तमान पण्डों के पूर्वज केदारदत्त उपर्फ ‘कोदू’ को सौंपा गया था। मंदिर के वर्तमान पुजारी इसी वंश के सेमवाल ब्राह्मण हैं।

गंगोत्री मंदिर से नीचे की ओर भागीरथी शिला है जिस पर यहाँ पिण्डदान आदि कर्म किये जाते हैं। यह वह स्थान है जहाँ गोत्र हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए पाण्डवों ने यज्ञ किया था। शिला से नीचे भागीरथी की जलधरा में एक कुण्ड सा बन गया है जिसको ब्रह्मकुण्ड कहते है। ब्रह्मकुण्ड के पीछे की ओर भागीरथी की धरा रूकने से बने कुण्ड को विष्णु कुण्ड के नाम से सम्बोध्ति किया जाता है। लोक मान्यता के अनुसार इस कुण्ड में भगवान विष्णु निवास करते हैं। मंदिर से कुछ दूरी पर जहाँ क्षरने के रूप मे गंगा नीचे गिरती है वह स्थान गौरी कुण्ड कहलाता है।

लोक आस्थाओं के अनुसार पार्वती ने भगवान शिव को पाने के लिए इस स्थान पर तपस्या की थी। गंगा मंदिर के पीछे बनी समाधि के विषय में भी यह प्रसिद्ध है कि आदिगुरू शंकराचार्य का निर्वाण यहीं हुआ था। गंगोत्री के निकट ही यहाँ के रक्षक का मंदिर है। भैरव देवता गंगोत्री के रक्षक हैं। ऐसी मान्यता है कि भैरव की पूजा किये बिना गंगोत्री की तीर्थ यात्रा का पफल नहीं मिलता।

राजा भगीरथ की तपस्या के बाद ध्रती पर अवतरित गंगा ने उनके पूर्वजों को पापमुक्त कर भागीरथ की मनोकामना पूर्ण की थी इसी लिए इस स्थल से प्रवाहित गंगा को भागीरथी भी कहा जाता है। गंगा का उद्गम स्थल गंगोत्री से १८ कि० मी० दूर गोमुख नामक स्थान पर है जहाँ श्रद्धालु पैदल जाते है। गोमुख मार्ग पहले कापफी दुर्गम था सम्पूर्ण मार्ग उबड़-खाबड़ और जोखिमपूर्ण होने के कारण यहाँ कम ही यात्री जाते थे। लेकिन अब यहाँ जाने वाले यात्रियों की संखया में कापफी वृद्धि हुई है। चीड़वृक्षों से आच्छादित चीड़वासा और भोजवासा में भोजपत्रों के वृक्षों की बहुतायत के बीच नैसर्गिक नजारों को देखने के लिये तीर्थ यात्री मार्ग की सारी थकान भूल जाते हैं इसीलिए उत्तरांचल को तीर्थों का नगर कहा गया है माना जाता है कि यहाँ के लोग ईश्वर के बहुत समीप रहते हैं। तभी तो भौतिकता से ऊबकर देश-विदेश से लोग यहाँ शान्ति पाने की तलाश में आते हैं।

इस क्षेत्र के पेड़-पौधे भी ऐसे दीखतें हैं मानो ‘‘शिवोहं शिवोहं’ की भावना रखते हों, तभी तो इस क्षेत्र में आते ही मन स्वतः ही प्रपफुल्लित होकर ईश्वरीय आभा से दमक उठता है। इसलिए माना जाता है कि यहाँ तक वही मनुष्य पहुँचता है जिसने अच्छे पुण्य और कर्म किये हों। पुण्यशाली मानव को माँ भागीरथी स्वयं ही अपने समीप बुला लेती है और उसके आहवान से व्यक्ति सब कुछ भूलकर माँ के दर्शन करने दौड़ा चला आता है। भागीरथी में स्नान करके तट पर बैठकर एकांत में भजन करने की जितनी सुविध इस पुण्य क्षेत्र में है वह यहाँ से नीचे गंगा तट के दूसरे मंदिरों में नहीं है। चित्त शुद्धि ब्रह्मज्ञान का मुखय आधर है और चित्त शुद्धि के उपायों में मुखय उपाय निःसंदेह गंगा स्नान है। श्रद्धापूर्वक गंगा में स्नान करना गंगाजल का पान करना, गंगाजी की पूजा करना, गंगाजी का भजन करना, ‘‘हे मातु गंगे!, हे भागीरथी! हे जगजननी!, हे जटाशंकरी!’’ आदि शब्दों से गद्गद् स्वर में गंगा का नाम संकीर्तन करना अर्थात्‌ जिस भागीरथी की निष्काम उपासना से चित्त शुद्धि होती है उत्तरांचल के इस क्षेत्र का सबसे बड़ा पुण्य लाभ है।

केदारनाथ

बारह ज्योर्तिलिंगों में श्रेष्ठ केदारलिंग/केदारनाथ में साक्षात शिव निवास करते हैं। केदार उन अनगढ़ शिलाओं और शिखरों को भी कहते हैं जिनमें भगवान शिव का निवास माना जाता है। संस्कृत में ‘केदार’ शब्द का प्रयोग सेम या दलदली भूमि अथवा धन की रोपाई वाले खेत के लिए होता है। सम्भवतः केदार तीर्थ के कारण उसके पड़ोस की भूमि केदार भूमि या केदारखण्ड कहलाई। सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाली मोक्षदायिनी केदार भूमि के वर्णन से धर्मशास्त्रा भरे पड़े हैं। शिव पुराण, पद्म पुराण, कूर्म पुराण, स्कन्द पुराण, वाराह पुराण, सौर पुराण, वामन पुराण, ब्रह्म वैवर्त पुराण तथा लिंग पुराण आदि में केदार तीर्थ को मनुष्य के सम्पूर्ण पापों का नाशक और मोक्षदायक बताया गया है।

उत्तराखंड का ‘केदार खण्ड’ भाग ऊँची पर्वत श्रेणियों में हिमालय की गोद में फैला हुआ है। इसी सम्भाग से गंगा यमुना का उद्गम होने से इसका महत्व आदि काल से ही रहा है। प्रथम देव आत्मा ऋषि कुल शिरोमणि शिव की साधना स्थली इस भू-भाग से सम्बन्ध्ति रही। यह शिव धम और भगवान रूप में पूजा का तीर्थ धम मान कर पूजा जाता रहा। पुराण गाथाओं में स्कन्द पुराण ८वीं ई० में लिखा गया। इसी प्रकार इसका एक भाग केदार खण्ड नाम से लिखा गया। केदार खण्ड नाम सबसे पहले अशोक चल्ल के गोपेश्वर लेख में सन ११९३ ई० में सर्वप्रथम मिलता है। केदारखण्ड नाम १०वीं ई० के बाद और ११वीं शती के मध्य प्रचलित हो गया था।

महाभारत के युद्ध के बाद अपने परिजनों के वध् का दंश क्षेल रहे पांडव जब अपने गोत्र वध् के पाप से मुक्ति के लिए आए तो भगवान शिव भैंसे का रूप धरण कर वहाँ से चले गये। पाण्डवों द्वारा पाप मुक्ति की प्रार्थना पर भगवान शिव भैंसे के पिछले ध्ड़ के रूप में वहाँ प्रकट हुए जो आज भी पाषाण (पत्थर) में विद्यमान है।

ब्रह्म वैवर्त पुराण में कहा गया है कि सतयुग में केदार नामक राजा वृद्धावस्था में राजपाट पुत्र को सौंप कर वन में जाकर तपस्या करने लगा था, जिस क्षेत्र के राजा ने तपस्या की वही स्थान केदार खंड के नाम से विखयात हुआ। व्यास स्मृति में कहा गया है कि केदार तीर्थ करने से मनुष्य सब प्रकार के पापों से छूट जाता है।

केदारनाथ का मंदिर पाँडवों का बनाया हुआ प्राचीन मन्दिर है। धर्मिक लोग सर्वप्रथम केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने के बाद ही बद्रीनाथ के दर्शन करने जाते हैं। पौराणिक प्रमाण के आधर पर केदार महिष (भैंसा) रूप का पिछला भाग है। द्वितीय केदार मद्महेश्वर में ‘नाभि’, तुंगनाथ में ‘बाहु’ और रूद्रनाथ में ‘मुख’ तथा कल्पेश्वर में ‘जटा’ हैं। यही पंच केदार कहे जाते हैं।

केदारनाथ की भूमि में प्रविष्ट होते ही आनन्द और आश्चर्य की सीमा नहीं रहती। समुद्र की सतह से ३, ५८१ मीटर की ऊँचाई पर स्थित इस मंजुल तीर्थ पर पहुँचते ही शीत, क्षुध, पिपासा आदि कितने ही विघ्नों के होते हुए भी किसी भी धर्मिक व्यक्ति का मन भाव समाधि में लीन हो जाता है। ध्वल पर्वत पंक्तियों के बीच खड़ा मनुष्य ईश्वर की अखण्ड विभूति को देख कर ठगा सा रह जाता है। प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य को निहार कर इस रमणीय भूमि में स्वयं ही सत्व भाव उमड़ आता है और जब मन में श्रद्धा की उष्णता उमड़ने लगे तो भला मन्दाकिनी का जल शीतल कैसे लगे?

शुद्ध तथा सात्विक श्रद्धा ही बड़े पुण्य का पफल है। पापी लोगों के मन में श्रद्धा का उदय नहीं होता। मनुष्य संसार में जिस दिन जन्म लेता है उसी दिन से मृत्यु को अपने सिर पर लिये आता है किन्तु वह बड़ा होकर यह भूल जाता है। वह संसार के भौतिक सुख, ऐश्वर्य और भोग-विलास में डूब जाता है। उचित-अनुचित कर्म करते हुए वह भूल जाता है कि एक दिन इन सब कर्मो का हिसाब उसे सृष्टिकर्त्ता के सामने देना होगा। इस तरह से जिसके पापों का ढेर लग गया हो उसे पारलौकिक पुण्य क्रियाओं और आत्म शुद्धि की बुद्धि उत्पन्न नहीं होती। लेकिन जो व्यक्ति नगरों में रहते हुए गंगा के जल को छूते तक नहीं, देव मंदिरों को क्षाँकते तक नहीं, वह केदारनाथ की सत्व भूमि पृथ्वी पर आकर मंदाकिनी की अति शीतल जलधरा में बड़ी श्रद्धा से स्नान करके ‘‘केदारनाथ की जय’’ की पुण्य ध्वनि के साथ और ‘‘हर-हर महादेव’’ के जयघोष से मन्दिरों में प्रवेश करते हैं। शिव भक्तों का विश्वास है कि वह सभी जीवों के प्रति समान पे्रम और स्नेह रखते हैं तभी यहाँ आने वाले लोगों के मन में चित्त को पिंघला देने वाला अनुराग एवं शुद्ध भक्ति पैदा होने से मनुष्य जन्म कृतार्थ होता है।

एक पूर्व कालिक वर्तान्त में केदार भूमि के मायावी महत्व के वर्णन मे कहा गया है कि-मृगों को मारने वाला एक शिकारी जब मृगों के पीछे-पीछे केदार तीर्थ में पहुंचा तो नारद मुनि को देख कर उसने समक्षा कि यह सुवर्णमय मृग है। सुवर्णमय मृग को मार कर स्वयं भी सुवर्णमय बनने की इच्छा उत्पन्न होने पर उसने ध्नुष पर बाण चढ़ा कर जैसे ही मृग पर निशाना साध वैसे ही सूर्यास्त हो गया, यह आश्चर्य देखकर वह शिकारी विस्मृत हो गया। आगे बढ़ने पर उसने एक सर्प द्वारा मेंढक को निगलते हुए देखा जेसे ही सांप ने मेंढक को निगला वैसे ही मेंढ़क नाग के यज्ञोपवीत ;जनेऊद्ध से युक्त, अर्द्धचन्द्रकारी, सिर पर जटाजवी से शोभित, कैलाश पर्वत के समान कान्तिमय, त्रिाशूलधरी ओर गज चर्मरूप वस्त्रावाला शिवरूप हो गया। इस महान आश्चर्य को देखकर जैसे ही शिकारी भागने लगा तभी उसकी नजर बाघ द्वारा मारे जाते हुए एक मृग पर पड़ी तभी वह मृग शिव रूप हो गया और एक बाघ को दूसरे बाघ ने मार दिया जो तुुुरन्त बैल को गया। इन आश्चर्यों को देख उसके रौंगटे खड़े हो गये। भयभीत शिकारी ने जब सामने खड़े नारद को देखा तो इस बावत पूछा कि यह क्या रहस्य व चमत्कार है तो नारद ने कहा कि तुमने इस पवित्र केदार तीर्थ को नहीं जाना है जिसके महात्म्य से जानवर और कीड़े मकोड़े भी शिवत्व को प्राप्त होते हैं।

शिवपुराण के अनुसार शिवजी के बारह लिंगों में से केदारेश्वर लिंग हिमालय पर्वत पर स्थित है। कहते हैं कि इसके दर्शन करने से महापापी भी पापों से छूट जाता है। स्कन्ध् पुराण में कहा गया है कि महाभारत के युद्ध के पश्चात्‌ जब व्यास जी से युध्ष्ठिर ने हत्याओं के पापों से मुक्ति के लिए पूछा तो उन्होंने कहा कि केदार के दर्शन किये बिना तुम पापों से मुक्त नहीं हो सकते। वहाँ जाने पर सब प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं और वहाँ मृत्यु होने से मुनष्य शिवरूप हो जाता है। गरूड़ पुराण के अनुसार केदार ही ऐसा तीर्थ है जो सम्पूर्ण पापों से मुक्ति प्रदान करने वाला है। पद्म पुराण में कुम्भ राशि में सूर्य और बृहस्पति के हो जाने पर केदार के दर्शन का लाभ बताया गया है। कूर्म पुराण में कहा गया है कि जो केदार के दर्शन करता है उसे रूद्रलोक मिलता है। वामन पुराण के अनुसार केदार क्षेत्र के आस पास निवास करने से भी मनुष्य अनायास ही स्वर्ग को आता है। लिंग पुराण का मानना है कि जो मनुष्य सांसारिक सुखों से सन्यास लेकर केदार में निवास करता है वह शिव के समान हो जाता है। ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार केदार नामक राजा सतयुग में सप्तद्वीप में राज्य करता था। उसने जिस वन में तप किया वह केदार खण्ड नाम से प्रसिद्ध हुआ।

द्वादश ज्योतिर्लिंगों के से एक केदारनाथ के पूर्वी ओर अलकनन्दा तथा पश्चिम की ओर मन्दाकिनी नदी बहती है। मान्यता है कि नर-नारायण ऋषि की तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने प्रकट होकर यहाँ ज्योतिर्लिंग के रूप में वास करना स्वीकार किया। यहाँ सबसे पहले पाण्डवों ने मन्दिर निर्माण करवाया। बाद में आदि शंकराचार्य, नेपाल नरेश और ग्वालियर के राजा ने अलग अलग समय पर इसका जीर्णोद्धार करवाया। यहाँ भगवान शंकर शिवलिंग के रूप के बजाय तिकोनी शिला के रूप में हैं। केदारनाथ की श्रृंगारमूर्ति पंचमुखी है जो हर समय वस्त्रा व आभूषणों से अलंकृत रहती हैं सर्दियों में मन्दिर के कपाट बन्द बन्द रहने पर केदारनाथ के चलविग्रह को ऊखीमठ ले जा कर लगभग छः माह तक वहाँ के ओंकारेश्वर मन्दिर में भगवान की पूजा की जाती है।

केदारनाथ मन्दिर के बाहरी प्रासाद में पार्वती, पाँडव, लक्ष्मी आदि की मूर्तियाँ हैं। मन्दिर के समीप हंसक कुण्ड है जहाँ पितरों की मुक्ति हेतु श्रा(-तर्पण आदि किया जाता है। मंदिर के पीछे अमृत कुण्ड है तथा कुछ दूर रेतस कुण्ड है। ऐसा सुना जाता है कि उसके जल पीने मात्र से ही मनुष्य शिव रूप हो जाता है। उसमें पारा दिखाई देता है। उसके जल में बुलबुले उठते रहते हैं। इसी के पास भृगु तुंग, श्री शिला, हिरण्यगर्भ नामक तीर्थ व पूर्व दिशा में वन्हितीर्थ विद्यमान हैं। केदारनाथ के मंदिर के पास ही उद्क कुण्ड है जिसकी महिमा विशेष बताई जाती है। श्रद्धालु केदारनाथ के मुख्‍य मंदिर में पूजा करके पिण्डी का आलिंग करते हैं।

बदरीनाथ

बदरीनाथ धम को भारत के चार पवित्रों धमों में सबसे प्राचीन बताया गया है। सतयुग, द्वापर, त्रोता और कलियुग इन चार युगों की शास्त्रों में जो महिमा कही गयी है उसके अनुसार उत्तर में सतयुग का बदरीनाथ, दक्षिण में त्रोता का रामेश्वरम, पश्चिम में द्वापर की द्वारिका और पश्चिम में कलियुग का पावन धम जगन्नाथ धम हैं। उत्तर में स्थित हिमालय में गन्ध्मादन पर्वत पर स्थित पावन तीर्थ बदरीनाथ को विभिन्न युगों में मुक्तिप्रदा, योगसि(ति व बदरीविशाल नामों से जाना गया।

चार धमों में सर्वश्रेष्ठ तथा गन्‍धमादन पर्वत श्रृंखलाओं में नर और नारायण पर्वतों के मध्य पावन तीर्थ ‘बदरीनाथ’ देश-विदेश में बसे करोड़ों हिन्दुओं की आस्था का प्रतीक है। ३१३३ मीटर की ऊँचाई पर स्थित इस मंदिर का निर्माण ८वीं सदी में गुरू शंकराचार्य द्वारा किया गया था जिसको वर्तमान स्वरूप विक्रमी १५वीं शताब्दी में गढ़वाल नरेश ने दिया था। इस क्षेत्र में आने वाले बपर्फीले तूपफानों के कारण यह मंदिर कई बार क्षतिग्रस्त हुआ और कई बार इसका निर्माण हुआ। मन्दिर निर्माण के संदर्भ में यह पौराणिक उल्लेख भी हैं कि ब्रह्मा आदि देवताओं ने सर्वप्रथम भगवान विश्वकर्मा से मन्दिर का निर्माण करवाया था। तत्पश्चात्‌ राजा पुरूरवा ने मन्दिर का निर्माण करवाया। यह भी विश्वास है कि द्वापर युग में भगवान्‌ के बदरीवन में दर्शन न होने पर देवताओं ने डर कर ब्रह्मा के साथ क्षीर सागर पर जाकर भगवान्‌ की स्तुति की, तब भगवान ने दर्शन दिए, लेकिन यह दर्शन केवल ब्रह्मा ही कर सके। ब्रह्मा ने तब देवताओं को बताया कि मनुष्यों की कुबुद्धि के कारण ही भगवान्‌ अर्न्तध्यान हो गए। इस प्रकार बदरीनाथ की पूजा की प्राचीन पद्धति पाचरात्र पूजा पद्धति ही पुराणों में वर्णित है।

सन्‌ १९३९ में सरकार ने श्री बदरीनाथ मंदिर एक्ट बना कर उसका प्रबन्ध् १२ सदस्यीय समिति को सौंपा इसके बाद रावल का कार्य सिर्फ पूजा करना रह गया। पूजा कराने वाले रावल भी टिहरी नरेश के नियंत्रणाधीन रखे गये थे। बाद में केदारनाथ मंदिर का प्रबन्ध भी इसी समिति को सौंप दिया गया। अब यह प्रबन्ध समिति श्री बदरीनाथ केदारनाथ मंदिर समिति कहलाती है।

अनुश्रुति के अनुसार शंकराचार्य ने बदरीकाश्रम और ज्योर्तिमठ की पूजा अर्चना का भार अपने शिष्य त्रोटकाचार्य को सौंपा था। त्रोटकाचार्य और उसकी शिष्य परम्परा इन मन्दिरों की पूजा अर्चना का प्रबन्ध् १५वीं शती विक्रमी के अन्त तक करती रही। तब इन मन्दिरों की पूजा अर्चना का प्रबन्ध् दण्डी स्वामियों ने अपने हाथों में ले लिया रतूड़ी ने २१ दण्डी स्वामियों की नामावली दी है जो इन मन्दिरों की व्यवस्था सन्‌ १४४३ से १७७६ तक करते रहे उसके पश्चात्‌ वर्तमान रावलों की परम्परा आरम्भ हुई।

रतूड़ी के अनुसार सन्‌ १७७६ में अन्तिम दण्डी स्वामी रामकृष्ण की मृत्यु हो गयी उस समय वहां कोई अन्य दण्डी स्वामी न होने से मन्दिर की नियमित पूजा में व्यवधन पड़ जाने का संकट उपस्थित हो गया। तब गढ़ नरेश जो सौभाग्य से उस समय बदरीकाश्रम में था, ने गोपाल नामक एक नम्बूरी ब्राह्मण को, जो मन्दिर में भगवान का भोग पकाया करता था, छत्र, चंवर और खिलअत देकर मन्दिर का रावल बना दिया॥

गोपाल ने गढ़ नरेश ने निवेदन किया कि मेरे मठाधीश बन जाने पर मेरी सन्तान की आजीविका का कोई साध्न नहीं रहेगा। तथा मेरी सन्तान से कोई विवाह करने को प्रस्तुत नहीं होगा। इस पर गढ़ नरेश ने गोपाल की सन्तान के लिए लक्ष्मी मन्दिर की वृत्ति, मंदिर में रसोई का कार्य तथा मन्दिर में अन्य प्रतिष्ठित नौकरियों की व्यवस्था कर दी। उन्हें रहने के लिए डिम्बर ग्राम दे दिया, जिससे वे डिमरी कहलाये। राजा के आदेशानुसार स्थानीय ब्राह्मणों ने उनके साथ विवाह सम्बन्ध् करना स्वीकार कर लिया। गोपाल रावल नम्बूरी जाति का ब्राह्मण था। तब से भगवान बदरीनाथ की पूजा अर्चना के लिए दक्षिण से नम्बूरी, चोली या मुकाणी जाति के ब्राह्मणों को नियुक्त करने की प्रथा आरम्भ हुई।

बदरीनाथ मंदिर की व्यवस्थाएं कई भागों में बंटी हैं। उपासनाओं का संचालन धर्माधिकारी द्वारा किया जाता है। यह बहुगुणा जाति का गढ़वाली ब्राह्मण होता है। भगवान के भोग पकाने का कार्य डिमरी जाति के ब्राह्मण करते है। डिमरी लोग ही लक्ष्मी मन्दिर के पुजारी भी हैं। ये पण्डे का कार्य करने के साथ-साथ मुखय पुजारी के सहायक का कार्य भी करते हैं। प्रतिदिन भगवान बदरी नारायण की पूजा के समय भगवान के श्रृंगार, वस्त्रा, आभूषण आदि का प्रबन्ध् वैष्णव सम्प्रदाय के वैष्णव करते हैं। श्रृंगार की मालाएँ बनाने का कार्य टंगणी गांव के माल्या जाति के ब्राह्मण भी करते हैं। बदरीनाथ के सेवक और परिचारकों का काम दुरियाल और मार्छे जातियों का है। प्रायः यही लोग मंदिरों के चढ़ावे को सँभालने, पूजा के बरतन सापफ करना, धूप-आरती बनाना और शीतकाल में मंदिर के कपाट बन्द होने पर रखवाली तक का कार्य भी यही लोग देखते हैं। माणा ग्राम के मार्छा लोग यहाँ मातामूर्ति का उत्सव सम्पन्न कराते हैं। कार्तिक मास में भगवान को लगने वाले पफापफर के लड्डुओं का भोग यही लोग लाते हैं। मन्दिर के कपाट बन्द करने से पूर्व भगवान को ओढ़ाने वाले धृतकमल (ऊनी वस्त्र) को भी यही लोग बनाते हैं।

असीम आनन्द और दिव्य लोक की अनुभूति प्रदान करने वाली भगवान बदरीनाथ की पावन भूमि को कई नामों से जाना जाता है। विशाल नामक राजा का तपक्षेत्र होने के कारण ‘बदरी विशाल’, भगवान विष्णु का वास और प्राचीन काल में बदरी (जंगली बेर) की क्षाड़ियों युक्त क्षेत्र होने के कारण इस क्षेत्र का नाम ‘बदरी वन’ पड़ा। जो कालान्तर में ‘बदरीनाथ’ हो गया। स्कन्दपुराण मे बदरीनाथ धम के चार युगों में अलग-अलग नामों का उल्लेख मिलता है उसके अनुसार सतुयग में मुक्तिप्रदा, त्रोता में योग-सिद्धा, द्वापर में विशाला और कलयुग में बदरिकाश्रम है। ऐसे ही अनेक धर्मशास्त्रों से यह ज्ञात होता है कि हिन्दुओं का यह पावन तीर्थ युगों-युगों से चला आ रहा है।

पौराणिक ग्रन्थों में बदरीनाथ धम को ‘विशालापुरी’ के नाम से भी सम्बोधित किये जाने का उल्लेख मिलता है। वाराह पुराण के अनुसार एक बार युद्ध में पराजित होकर राजा विशाल ने यहाँ भगवान बदरीनाथ की तपस्या कर उनसे युद्ध के दौरान छिन चुके राज्य को वापिस पाने का वरदान प्राप्त किया था। तब भगवान ने राजा विशाल से कहा कि तुम्हारा नाम भी हमारे नाम के साथ हमेशा जुड़ा रहेगा। कहा जाता है कि तभी से इस स्थान को ‘विशालापुरी’ भी कहा जाने लगा।

यहाँ वैदिक काल में वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, अगस्त्य, जमदग्नि, विश्वामित्र और गौतम ऋषि ने तो तपस्या की थी भगवान श्री कृष्ण ने भी दस हजार वर्ष तक गन्ध्मादन पर्वत पर तप किया था। यह वही पवित्र भूमि है जहाँ भगवान शंकर को भी अमोघ शान्ति मिली थी। भगवान शंकर के आध्पित्य वाले इस हिमालयी क्षेत्र में जब नारायण ने बाली का वेश धरण कर छल से माँ पार्वती के वात्सल्य स्नेह का लाभ उठाया और उन्हें केदारनाथ चले जाने का अवसर दिया था तभी से यह क्षेत्र ‘‘वैष्णव तीर्थ’’ हो गया। किंवदन्ति है कि भगवान विष्णु के चौथे अवतार ‘नर’ और ‘नारायण’ नामक ऋषि जो क्रमशः धर्म और कला के पुत्र थे, ने बदरीकाश्रम में आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी। इन्हीं के नाम पर बद्रीनाथ में इन पर्वतों का नाम ‘‘नर’’ और ‘‘नारायण’’ पड़ा। नर और नारायण की तपस्या के कारण इन्द्र भयभीत हुए। और इन ऋषियों का मन विचलित करने को अप्सरायें भेजी। इससे नारायण बहुत क्रुद्ध हो गये और उन्हें श्राप देने लगे पर नर ने उन्हें शान्त किया। पिफर नारायण ने उर्वशी की उत्पत्ति की जो उन अप्सराओं से अतीव सुन्दर थी, उर्वशी को उन्होंने इन्द्र की सेवा में भेंट कर दिया। यही नर व नारायण अपने पुनर्जन्म में अर्जुन व कृष्ण हुए।

प्रतिवर्ष प्रचुर व्यय की सामर्थ्य और प्राणों के संकट को लेकर देश के प्रत्येक भाग से हजारों भारतीयों ने श्री बदरी नारायण भगवान के दर्शनों का पुण्य लाभ तब भी उठाया जब इस दुर्गम हिमालय की यात्रा करना कठिनतम होने के साथ-साथ भयग्रस्त भी था लेकिन पिफर भी देश के कोने-कोने से हजारों, लाखों लोग इस तीर्थ का पुण्य लूटने हर वर्ष आते थे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि प्राचीन काल से ही इसकी कितनी मान्यता रही है। वास्तव में पहले भगवान बदरीनाथ की चरण धूलि प्राप्त करने में जीवन-मरण अनिश्चित समझा जाता था। लेकिन आवागमन की सुगमता के कारण अब यहाँ देश-विदेश के श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।

धर्मशास्त्रों के अनुसार यह देवभूमि सतयुग, द्वापर और त्रोता मे योग सिद्धि प्रदान करती थी, कलियुग होने के कारण लोगों में पहले के समान आस्था नहीं रही परन्तु पिफर भी इस युग में यह मुक्ति प्रदान करने वाली है। इस धम के विषय में ऐसी मान्यता है कि भगवान बदरीनाथ के दर्शन मात्र से ही मनुष्य मोक्ष को प्राप्त होता है। तीर्थों से सर्वश्रेष्ठ बदरीनाथ धम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान कर प्रत्येक श्रद्धालु और भक्त की हर मनोकामना पूरी करता है धर्म ग्र्रन्थों मे कहा भी गया है कि-

बहूनि सन्ति तीर्थानि दिविभूमौ रसातले ।

बदरी सदृशं तीर्थं न भूतं व भविष्यति ॥

ऐसी मान्यता है कि भगवान बदरीनाथ की जिस मूर्ति को नारद पूजते थे वह मूर्ति आज भी यहीं स्थापित है। बौद्धों द्वारा अलकनन्दा में समाहित कर दी गई मूर्ति को शंकराचार्य ने नारद कुण्ड से निकालकर ‘गरूड़कोटि’ नामक गुपफा में स्थापित किया था। इस मूर्ति को जैन धर्म के मतावलम्बी ‘पारसनाथ’ अथवा ‘ऋषभदेव’ की बताते हैं। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि यह मूर्ति बौधें से सम्बन्धित है जबकि हिन्दु इसे साक्षात्‌ ‘नारायण’ के रूप में पूजते हैं। यह मूर्ति मंदिर के गर्भ गृह में अधिष्‍ठापित है जहाँ जन सामान्य का प्रवेश वर्जित है, सिर्फ मंदिर के पुजारी रावल और उनके सहयोगी ही वहाँ प्रवेश कर मूर्ति का स्पर्श कर सकते हैं।

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  1. उत्तर भारतीय पर्यटन सूत्रों ने इन्हें चार धाम नाम दिया है . पुरातन चार धाम इस प्रकार है – श्री केदारनाथ, श्री बद्रीनाथ, श्री द्वारकाधीश और श्री रामेश्वरम

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