शारली एब्दोः क्या अभिव्यक्ति की आज़ादी असीमित है ?

 

         –इक़बाल हिंदुस्तानी

0हमलावरों की निंदा न कर उनको पुरस्कृत करना चिंता की बात।

   पैरिस की पत्रिका शारली एब्दो के ऑफिस पर हमला कर जो हत्यायें की गयीं उनकी निंदा पूरी दुनिया कर रही है। हालांकि यह हमला उन मुस्लिम आतंकवादियों की हरकत माना जा रहा है जिनको पत्रिका द्वारा मुसलमानों के पैगंबर की तस्वीर छापने पर नाराज़गी थी लेकिन सवाल यह है कि क्या किसी को किसी की किसी बात पर एतराज़ या नाराज़गी होने से हमला करने आग लगाने या जान से मारने का अधिकार मिल जाता है? सवाल यह भी है कि दुनिया के किसी भी देश में किसी के द्वारा कानून हाथ में लेने पर ऐसे दुस्साहसी लोग भी हैं जो घटना की निंदा करने से ही परहेज़ नहीं करते बल्कि खुलेआम उनका समर्थन और उनको पुरस्कृत करने की दुस्साहपूर्ण ओछी हरकत तक करते हैं।

   वोटबैंक के लालच में इन आतंक समर्थकों के खिलाफ जितनी सख़्त और शीघ्र कानूनी कार्यवाही होनी चाहिये थी वो नहीं होती। आपको याद होगा जब पाकिस्तान के पेशावर स्थित आर्मी स्कूल पर आतंकवादियों ने हमला करके बेकसूर मासूम बच्चो को बेदर्दी से मार डाला तो वहां की चर्चित लाल मस्जिद के मौलाना अब्दुल अज़ीज़ ने न केवल इस कायर हमले की निंदा नहीं की बल्कि नागरिकों द्वारा जब उनके खिलाफ दहशतगर्दी को बढ़ावा देने के विरोध में प्रदर्शन हुआ तो विरोध दर्ज करा रहे आंदोलनकारियोें के खिलाफ लाल मस्जिद से पथराव किया गया। ये वही लाल मस्जिद है जिसमें परवेज़ मुशर्रफ के राज में तालिबान राज कायम करने के लिये मुशर्रफ का तख़्तापलट करने की साज़िश रची गयी थी लेकिन मामला खुल जाने पर जब इस के मौलाना के खिलाफ सैन्य कार्यवाही शुरू की गयी तो वहां से भारी गोला बारूद गोल्डन टैंपल की तरह बरामद हुआ था।

   इसके बाद भी जब सरकार हरकत में नहीं आई तो लोग मौलाना के खिलाफ वहां की अदालत में शिकायत करने चले गये। मौलाना के खिलाफ वारंट जारी हुआ लेकिन आज तक पुलिस की हिम्मत उस वारंट को तामील कराने की नहीं हो सकी है। वजह सबको पता है कि पाकिस्तान सरकार एक तरफ उग्रवादियों को गीदड़ भभकी देती रहती है और दूसरी तरफ आतंकवाद को पालने पोसने वाले लाल मस्जिद के मौलाना जैसे कट्टरपंथियों को वोटबैंक के चक्कर मे छूने से डरती है। यही हालत हमारे यहां है। बसपा के एक मुस्लिम नेता ने शारली एब्दो के संपादक मंडल के एक दर्जन सदस्यों के आतंकवादी हमले में मारे जाने पर न केवल इस आतंकी हमले की निंदा तक नहीं की बल्कि उसका एक प्रकार से समर्थन करते हुए हमलावरों को 51 करोड़ रू0 के इनाम से पुरस्कृत करने का खुलेआम ऐलान भी कर दिया है।

     इस बसपा नेता की यह हरकत नई नहीं है। जब यह जनाब सपा सरकार में मंत्री पद पर आसीन थे तब भी इन्होंने पैगम्बर का कार्टून बनाने वाले को मारने की एक तरह से सुपारी देते हुए 51 करोड़ के इनाम से नवाज़ने की बात कही थी। इतना ही नहीं जब इन मंत्री महोदय से इस संपादक ने एक प्रैस वार्ता के दौरान यह सवाल किया कि वह संविधान की शपथ लेने के बावजूद इस तरह का गैर कानूनी ऐलान कैसे कर सकते हैं तो ये आग बबूला हो गये थे और इनके अंधसमर्थक इस संपादक से बेहद ख़फा होकर हमला करना चाहते थे।इस सवाल के कारण इस संपादक को बीजेपी का एजेंट बताया गया और बाद में बदले की भावना से इस संपादक के खिलाफ बेबुनियाद आरोप लगाकर दुष्प्रचार और चरित्रहनन करने को झूठे पोस्टर छापे गये लेकिन बेशर्म नेता ने अपने पद से इस्तीफा नहीं दिया।

   दरअसल यह सवाल अपनी जगह है कि क्या एक ऐसे समाज ऐसे वर्ग और ऐसी दुनिया में जहां आस्था, श्रध््दा और धार्मिक अंध्विश्वास से प्रेरित भावनायें संविधान कानून और हर नियम से उूपर माने जाते हों वहां लोगों का सोचने का तरीका तार्किक बनाये बिना कैसे अभिव्यक्ति के नाम पर असीमित आज़ादी दी जा सकती है? जिस धर्म के लोग अपने पैगंबर की तस्वीर तक बनाना नाजायज़ और गुनाह मानते हों उनको चिढ़ाने के लिये पैगंबर का कार्टून वह भी हास्यास्पद और अपमानजनक बनाना और विरोध होने पर उसकी पूरी सिरीज़ छापना क्या ठीक माना जाये? वहां की सरकार और कोर्ट इस मामले में कोई कार्यवाही करने से दो टूक मना करती हों तो आतंकियों को अपनी करतूत सही दिखाने का मौका तो मिल ही जाता है। हम यह बात पहले ही साफ कह चुके हैं कि अगर जान ईश्वर ने दी है तो ले भी वही सकता है।

   किसी को भी पूरी दुनिया का ठेका अपने हाथ में लेने की छूट नहीं दी जा सकती लेकिन यह भी सच है कि दुनिया में तर्क प्रमाण और गवाही के अलावा कई बड़े निर्णय भावानाओं से भी होते रहे हैं जिससे जब तक हमारा समाज इस मानसिक हालत में नहीं आ जाता जहां हम दूसरों को अपने तरीके से लिखने बोलन और करने की आज़ादी को अपने विश्वास से तोलना छोड़कर उसको उसके हाल पर छोड़ दें तब तक हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर लोगों को पूरी तरह सुरक्षित भी नहीं रख सकते। यही वजह है कि जहां पूरी दुनिया के अख़बारों ने शारली एब्दो के वे कार्टून फिर से छापे जिनकी वजह से उस पर आतंकी हमला हुआ वहीं डेनमार्क का वह अख़बार इस बार डर गया जिसने इस तरह के कार्टून छापने की शुरूआत की थी।

   आज का सबसे बड़ा सवाल यह है कि आतंक को किसी धर्म विशेष से न जोड़कर पूरी दुनिया के उदार और कट्टर लोगों को एक निर्णायक जंग कैसे लड़नी है जिसमें उस हमलावर को अपने ख़तरनाक मकसद को पूरा करने से पहले ही रोका जा सके जिसको अपनी जान की चिंता तो है ही नहीं साथ ही वह सामने वाले की जान लेने के बाद खुद को शहीद समझता है और अपनी जगह जन्नत में पक्की मानकर खुशफहमी का शिकार है। हमारा मानना है कि ताकत के बल पर तो इस आतंकवाद से निबटा जा ही नहीं सकता क्योंकि अमेरिका जैसा दुनिया का सबसे ताकतवर देश इस तरह के जवाबी हमलों से तौबा कर रहा है। सैन्य कार्यवाही तत्काल इलाज तो हो सकता है लेकिन शिक्षा और सम्पन्नता से ही प्रगतिशील सोच पैदा हो सकती है जो आतंकवाद का जड़ से खात्मा कर सकती है लेकिन इसमें लंबा समय और कीमत चुकानी होगी। क्या दुनिया और हम इसके लिये तैयार हैं\\\

0खूं बहाकर दंगों में जन्नतें नहीं मिलतीं]

जिं़दगी ख़ज़ाना है यूं ही मत लुटा देना

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इक़बाल हिंदुस्तानी
लेखक 13 वर्षों से हिंदी पाक्षिक पब्लिक ऑब्ज़र्वर का संपादन और प्रकाशन कर रहे हैं। दैनिक बिजनौर टाइम्स ग्रुप में तीन साल संपादन कर चुके हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अब तक 1000 से अधिक रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है। आकाशवाणी नजीबाबाद पर एक दशक से अधिक अस्थायी कम्पेयर और एनाउंसर रह चुके हैं। रेडियो जर्मनी की हिंदी सेवा में इराक युद्ध पर भारत के युवा पत्रकार के रूप में 15 मिनट के विशेष कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं। प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ लेखक के रूप में जानेमाने हिंदी साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार जी द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिंदी ग़ज़लकार के रूप में दुष्यंत त्यागी एवार्ड से सम्मानित किये जा चुके हैं। स्थानीय नगरपालिका और विधानसभा चुनाव में 1991 से मतगणना पूर्व चुनावी सर्वे और संभावित परिणाम सटीक साबित होते रहे हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता के लिये होली मिलन और ईद मिलन का 1992 से संयोजन और सफल संचालन कर रहे हैं। मोबाइल न. 09412117990

1 COMMENT

  1. इक़बाल जी का लेख एकदम सत्य को उधघाटीत करता है.patrika कार्यालय पर हमला कर लोगो की जान लेना निंदनीय है, मानवता के लिए खतरा है किन्तु किसी महान पैगम्बर जिन्हे दुनिआ की एक बड़े आबादी सम्मान से स्मरण करती है,इतना ही नहीं विशव के बड़े लेखकों ने जिनके जीवन को मानवता के लिए एक अनुकरणीय कर्मबताया है ऐसे महानतम पैगम्बर की हास्यास्पद तस्वीरें बनाना और उन्हें पुनः पुनः छपना कहाँ तक न्यायोचित है. केवल आतंकवादियों की निंदा करना। उन्हें कानून के हत्यारे बताना और कार्टूनिस्ट के बारे मैं एक शब्द भी कहना एक पक्षीय है, जब उस देश का कानून ऐसे प्रकाशंकों के खिलाफ कुछ कदम नहीं उठाता , बार बार यह पत्रिका ऐसे कृत्य करे तो इन होने वाली घटनाओं के लिया कौन जवाबदार होगा?ऐसी आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने वाले के खिलाफ यदि कानून है तो उस पत्रिका के खिलाफ भी कार्यवाही कानूनन होनी चाहिए। और पेरिस मैं ही क्यों पुरे विशव मैं एक ऐसा कानून बने जो किसी की धार्मिक भावनाओं का हनन होने से रोकने मैं सहायक हो,

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