अक्षय तृतीया पर विशेष लेख
भारतीय समाज संस्कारों का समाज है. जन्म से लेकर मृत्यु तक सिलसिले से विधान हैं. यह सारे विधान वैज्ञानिक संबद्धता एवं मनोविज्ञान पर आधारित है. जैसे-जैसे हम विकास की ओर बढ़ रहे हैं, वैसे-वैसे कामयाबी के साथ चुनौतियां हमारे समक्ष बड़ी से बड़ी होती जा रही हैं. यह एक सच है तो एक सच यह भी है कि इन संस्कारों में कई ऐसी रीति-रिवाज और परम्परा में कुछ ऐसी भी हैं जो समाज के समग्र विकास को रोकती हैं. इनमें से एक है बाल विवाह. वह एक समय था जब बाल विवाह की अनिवार्यता रही होगी लेकिन आज के समय में बाल विवाह लड़कियों के लिए जंजीर की तरह है. समय के साथ कदमताल करती लड़कियां अंतरिक्ष में जा रही हैं. सत्ता और शासन सम्हाल रही हैं. खेल और सिनेमा के मैदान में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा रही हैं. ऐसे में उन्हें बाल विवाह के बंधन में बांध देना अनुचित ही नहीं, गैर-कानूनी भी है.
बाल विवाह का सबसे बड़ा दोष अशिक्षा है. विकास के तमाम दावे-प्रतिदावे के बाद भी हर वर्ष बड़ी संख्या में बाल विवाह होने की सूचना मिलती है. यह दुर्भाग्यजनक है और यह दुर्भाग्य केवल ग्रामीण समाज के हिस्से में नहीं है बल्कि शहरी समाज भी इस दुर्भाग्य का शिकार है. अशिक्षा के साथ संकीर्ण सोच भी इस दिशा में अपना काम करती है. भारतीय ग्रामीण समाज अशिक्षा के साथ ही आर्थिक संकटों से घिरे रहने के कारण वह कम उम्र में बिटिया का ब्याह कर जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहता है लेकिन शहरी समाज के पास सभी किस्म के स्रोत होने के बावजूद स्वयं को इस अभिशाप से मुक्त रखने की इच्छाशक्ति शेष नहीं है. कुतर्क यह भी दिया जाता है कि ब्याह के पहले लड़कियां असुरक्षित रहती हैं और ब्याह हो जाने से असमाजिक तत्वों से वह सुरक्षित रहती है. अब यह बात कौन समझाए कि भारत में महिलाओं के साथ रेप के जो आंकड़े आते हैं, उनमें ब्याहता औरतों की संख्या बड़ी होती है.
बाल विवाह समाप्त करने की बड़ी चुनौतियों के बीच सरकारों द्वारा लगातार किए जा रहे प्रयासों को सफलता भी मिली है. सफलता के प्रतिशत पर ना जाएं तो संभावनाओं के द्वार जरूर खुलते दिख रहे हैं. केन्द्र से लेकर राज्यों में सरकारों द्वारा बेटियों की शिक्षा, सशक्तिकरण और उनके लिए सुनहरे भविष्य को सुनिश्चित करते अनेक योजनओं का संचालन किया जा रहा है. बिगड़ते लिंगानुपात समाज के लिए चिंता का विषय है क्योंकि बाल विवाह के पूर्व अनेक बच्चियों को जनम से पूर्व या जन्म के तत्काल बाद मार दिया जाता था. शासकीय योजनाओं का लाभ मिलने के बाद समाज की सोच में परिवर्तन दिखने लगा है. माता-पिता अब बच्चियों को लेकर निश्चिंत होने लगे हैं. अपनी बेटियों की पढ़ाई पर उन्हें आर्थिक प्रबंध नहीं करना पड़ता है और ना ही उनके शादी-ब्याह की चिंता करनी होती है. इस तरह अनेक शासकीय योजनाओं बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ की सोच ने जनमानस को बदला है.
यह सच है कि शासकीय योजनाओं से जनमानस की सोच बदली है तो यह भी एक सच है कि शासकीय योजनाएं जरूरतमंदों तक पहुंव ही नहीं रही हैं. शासकीय तंत्र की कार्यवाही इतनी जटिल है कि जानते हुए भी कई बार आम आदमी इन योजनाओं का लाभ लेने से पीछे हट जाता है. कोई एक रास्ता ऐसा निकालना होगा कि बेटियों का हक उन तक सहज रूप से पहुंच सके. बिचौलियों की प्रथा पर सरकारों को नियंत्रण पाने की जरूरत होगी. उम्मीद की जा सकती है कि यह चुनौती बड़ी नहीं है और समय आने पर इसका समाधान भी हो पाएगा. सरकारों का सामाजिक दायित्व है कि वह आगे बढक़र समाज को रूढि़मुक्त करें और इसकी पहल जारी है. उम्मीदें अभी कायम हैं.
बाल विवाह की सबसे बड़ी चुनौती है लोगों में जागरूकता का अभाव. कम उम्र में बच्चों की शादी के दुष्परिणाम से समाज को अवगत कराने की जरूरत है. यह काम समाज का है और समाज के प्रबुद्ध लोगों को आगे आकर जगाना होगा. बाल विवाह एक अभिशाप ही नहीं है बल्कि बच्चों के मानसिक एवं शारीरिक विकास के लिए बाधक है. उनका समग्र विकास नहीं हो पाता है. स्वयंसेवी संस्थाओं को चाहिए कि वे एक दिन अक्षय तृतीया पर बाल विवाह रोकने की औपचारिकता पूर्ण ना करें बल्कि पूरे वर्ष बल्कि सतत रूप से इसे अभियान बनाकर चलाते रहें. ऐसी कोई समस्या नहीं, ऐसी कोई चुनौती नहीं जो हमारे साहसिक प्रयासों और पहल के सामने टिक सकें.