चिराग पासवान : राजनीति में नई संभावनाओं की खनक

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-ललित गर्ग-

देश की राजनीति में युवाओं का समुचित प्रतिनिधित्व न होना दर्शाता है कि क्रांति और बदलाव का जज्बा रखने वाला युवा इसे लेकर उदासीन है या उसकी संभावनाओं को लगातार नजरअंदाज किया जा रहा है। यह वक्त की मांग हो चली है कि युवाओं को उचित प्रतिनिधित्व मिले। इस दृष्टि से केंद्रीय मंत्री, दलितों के बड़े नेता एवं लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के अध्यक्ष रामविलास पासवान ने पिछले दिनों लोजपा की केंद्रीय कमान अपने 36 वर्षीय पुत्र चिराग पासवान को सौंपने का निर्णय लेकर न केवल बिहार की राजनीति में बल्कि समूची देश की राजनीति में युवा संभावनाओं को उजागर करने की खनक पैदा की है। यह वह आहट है जो भारत की राजनीति को एक नयी दिशा एवं दृष्टि प्रदत्त करेंगी। क्योंकि चिराग वोट की राजनीति के साथ-साथ सामाजिक उत्थान की नीति के चाणक्य है।
भारतीय राजनीति में युवाओं की भागीदारी को लेकर अक्सर बड़ी-बड़ी बातें हर किसी मंच से होती रहती हैं लेकिन कोई दल उन्हें प्रतिनिधित्व का मौका नहीं देता क्योंकि उनकी नजर में युवा वोट भर हैं। राजनीतिक दल उनका इस्तेमाल भीड़ और ट्रौलिंग के लिए करते रहते हैं। हालांकि इस मिथक को चिराग ने तोड़ा, 2014 के लोकसभा चुनाव में जमुई सीट पर 80 हजार से ज्यादा मतों से विजयी हुए थे तो एक ही संसदीय दौर में उन्होंने जनता का विश्वास इस कद्र जीता कि 2019 के चुनाव में चिराग ने 5 लाख से ज्यादा वोट हासिल करते हुए लगातार दूसरी बार जीत दर्ज की। बिहार के युवा सांसद चिराग पासवान सक्षम जनप्रतिनिधि के साथ-साथ मौलिक सोच एवं संवेदनाओं के प्रतीक हंै। उन्हें सूक्ष्मदर्शी और दूरदर्शी होकर प्रासंगिक एवं अप्रासंगिक के बीच भेदरेखा बनाने एवं अपनी उपस्थिति का अहसास कराने का छोटी उम्र में बड़ा अनुभव है जो भारतीय राजनीति के लिये शुभता का सूचक है। लोकतंत्र का सच्चा जन-प्रतिनिधि वही है जो अपनी जाति, वर्ग और समाज को मजबूत न करके देश को मजबूत करें।
चिराग पासवाल भारत की राजनीति में एक मौलिक सोच के प्रतीक नेता के रूप में उभर रहे हैं और मौलिकता अपने आप में एक शक्ति होती है जो व्यक्ति की अपनी रचना होती है एवं उसी का सम्मान होता है। संसार उसी को प्रणाम करता है जो भीड़ में से अपना सिर ऊंचा उठाने की हिम्मत करता है, जो अपने अस्तित्व का भान कराता है। मौलिकता की आज जितनी कीमत है, उतनी ही सदैव रही है। जिस व्यक्ति के पास अपना कोई मौलिक विचार या कार्यक्रम है तो संसार उसके लिए रास्ता छोड़कर एक तरफ हट जाता है और उसे आगे बढ़ने देता है। मौलिक विचार तथा काम के नये तरीके खोज निकालने वाला व्यक्ति ही समाज एवं राष्ट्र की बड़ी रचनात्मक शक्ति होता है अन्यथा ऐसे लोगों से दुनिया भरी पड़ी है जो पीछे-पीछे चलना चाहते हैं और चाहते हैं कि सोचने का काम कोई और ही करे। चिराग ने भारत की राजनीति में युवा पीढ़ी के लिए कुछ नया सोचा है, कुछ मौलिक सोचा है, तो सफलता निश्चित है। वे इसी सोच से प्रदेश की राजनीति से केन्द्र की राजनीति की ओर अग्रसर होकर सफल नेतृत्व देने में सक्षम साबित होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है।
लोजपा अब पूरी तरह युवाओं के हाथ में है। चिराग युवा हैं, सक्षम है, प्रखर वक्ता है, कुशल संगठनकार एवं प्रबन्धक हैं और विगत में उन्होंने अनेक अवसरों पर अपनी इन क्षमताओं के साथ-साथ निर्णायकता साबित की है। कई मौकों पर यह बात सामने आई है कि बिहार के साथ-साथ केंद्रीय राजनीति के दांव-पेच और समीकरणों को भी वह अच्छी तरह जानने-समझने लगे हैं। हालांकि उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती दलित राजनीति के अगले ध्वजवाहक बनने और अपने लक्षित मतदाता समूह में पिता जैसी स्वीकार्यता पाने की होगी। चिराग नई लकीर खींचने में पारंगत है, वे अपने पिता की प्रतिच्छाया ही न बनकर कुछ नये प्रतिमान स्थापित करेंगे, राजनीति की नई परिभाषाएं गढ़ंगे। क्योंकि वे विपरीत स्थितियों में सामंजस्य स्थापित करके भरोसा और विश्वास का वातावरण निर्मित करने में दक्ष है।
युवापीढ़ी और उनके सपनों का मूच्र्छित होना और उनमें निराशा का वातावरण निर्मित होना- एक सबल एवं सशक्त राष्ट्र के लिये एक बड़ी चुनौती है। चिराग ने यह अनुभव किया, यह उनकी सकारात्मक राजनीति एवं मानवतावादी सोच का ही परिणाम है। चिराग इस मामले में अन्य क्षत्रप या नेता पुत्रों से थोड़ा अलग इसलिए भी हैं कि उनका नजरिया और अंदाज भविष्योन्मुखी और विकासवादी प्रतीत होता है। इधर हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी चिराग की तारीफ की थी। इन सबके बावजूद यक्ष प्रश्न यह है कि क्या चिराग अपने पिता की दलित राजनीति की विरासत को कोई नया आयाम दे पाएंगे। या फिर वह इस विरासत से इतर मुख्यधारा की राजनीति में अपनी काबिलियत दिखाएंगे।
चिराग राजनीति की बारीकियों को समझने में माहिर है। राजनीति का मौसम विज्ञानी माने जाने वाले रामविलास शायद मोदी लहर का पूर्वानुमान लगाने में चूके हो लेकिन चिराग ने शायद मोदी की आंधी को भलीभांति भांप लिया था और वह किसी संशय में नहीं थे। ऐसे में अपने पिता की दुविधा दूर करते हुए उन्होंने एनडीए के पाले में जाने का दोटूक फैसला किया। चिराग का यह कदम ना सिर्फ सटीक साबित हुआ, बल्कि उसकी राजनीतिक क्षेत्र में व्यापक चर्चाएं भी होने लगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि रामविलास दलितों के एक बड़े नेता हैं और अपने मतदाता समूह में उनकी मजबूत स्वीकार्यता भी है। उनकी लोकप्रियता बिहार के बाहर अन्य प्रदेशों में भी है। इसलिए जहां तक विरासत की राजनीति का प्रश्न है तो चिराग के लिए पहली चुनौती तो अपने पिता जैसी स्वीकार्यता हासिल करने की रहेगी। उनके पास दलित सेना जैसा ताकतवर संगठन भी है। चिराग को पार्टी के सांगठनिक और प्रभाव विस्तार के काम में दलित सेना की मदद बेहद करीने से लेनी होगी। पार्टी की बागडोर थामने के बाद चिराग पर न केवल पार्टी की बल्कि विभिन्न राजनीतिक दलों की नजरें टिकी है कि वे अब कौन से सियासी रास्ते पर चलते हैं, कौनसे नये राजनीतिक प्रयोग करते हैं। सवाल यह है कि क्या वह अपने पिता की राजनीतिक छाया से इतर कोई अन्य रास्ता अपनाते हैं या फिर दलित राजनीति को एक युवा नेतृत्व देने के रास्ते पर ही आगे बढ़ेंगे। चिराग के पास फिलहाल विकल्प खुले हैं। हाल के समय में भारतीय राजनीति में नई पीढ़ी के कई नेता पुत्रों ने अभी तक कोई बहुत बड़ी उम्मीद नहीं जगाई है। चाहे राहुल गांधी हों या तेजस्वी यादव, फिलहाल इनके सियासी सितारे डूब-उतर रहे हैं। साथ ही अपने प्रभाव में निरंतरता बरकरार रखने में कहीं न कहीं चूक भी रहे हैं। हालांकि इन नामों की तुलना में चिराग के पास कोई बहुत बड़ी राजनीतिक विरासत तो नहीं है, लेकिन वे अपने होने का अहसास, कुछ अनूठा करने का एवं जनता के दिलों को जीतने का हूनर साबित किया है। बावजूद इसके उन्हें अब एक राष्ट्रीय नेता के रूप में खुद को साबित करना अभी बाकी है। फिलहाल उनके सामने झारखण्ड के चुनाव का मौका एकदम सामने है, जहां उन्हें खुद का साबित करना होगा।

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