चौकीदार की लड़ाई

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अनिल अनूप

करीब 90 करोड़ मतदाताओं के देश में सिर्फ ‘चौकीदार’ ही लोकसभा चुनाव का मुद्दा नहीं हो सकता। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी बीते कुछ महीनों से नारे लगवा रहे हैं-‘चौकीदार चोर है।’ बेशक कांग्रेस कार्यकर्ता और नेता ही पार्टी की सभाओं, बैठकों, संबोधनों आदि में यह नारा बोलते रहे हैं, लेकिन यह चुनाव का राष्ट्रीय मुद्दा नहीं हो सकता। इसी तरह 2014 के चुनाव-प्रचार के दौरान जिन संदर्भों में मोदी ने अपने लिए ‘चौकीदार’ का किरदार और विशेषण चुना था, वह भ्रष्टाचार और घोटालों में सनी कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार का दौर था। तल्खी और नाराजगी उसके प्रति थी और ‘चौकीदार’ के रूप में देश ने एक ईमानदार, पारदर्शी और संसाधनों के रक्षक प्रधानमंत्री का चुनाव किया था। अब 2019 में चुनावी मंजर बदल चुका है। अब जवाबदेही प्रधानमंत्री मोदी की है। बेशक भ्रष्टाचार का कोई साबित दाग प्रधानमंत्री पर नहीं है, लेकिन उन्हें देश को खुद बताना है कि उनकी सरकार के हासिल क्या हैं और कौन से वादे, किन कारणों से अधूरे रह गए? उन सरोकारों में बेरोजगारी, किसान संकट, आत्महत्याएं, आमदनी अहम सरोकार है। महिला सुरक्षा, गरीबी, महंगाई के साथ-साथ औद्योगिक उत्पादन, पेयजल, पर्यावरण और सेहत भी अन्य महत्त्वपूर्ण मुद्दे हैं। बेशक मोदी सरकार इन मुद्दों के परिप्रेक्ष्य में बहुत कम काम कर पाई हो, लेकिन उस पर भ्रष्टाचार और दलाली के जरा-सा भी दाग नहीं हैं। यानी इन मुद्दों पर मोदी सरकार या खुद प्रधानमंत्री ‘चोर’ के किरदार में बिलकुल भी नहीं हैं। यह सार्वजनिक रूप से जनता की आम प्रतिक्रिया में देखा-महसूसा जा सकता है। बेशक राहुल गांधी और कांग्रेस प्रवक्ताओं ने इसे राग की तरह अलापना जारी रखा है। उनका राजनीतिक विश्वास है कि लगातार आरोपिया झूठ बोलते रहने से देश के लोग इसे ‘सच’ मानने लगेंगे, यह उनका ‘मतिभ्रम’ है। पूरा सच तो 23 मई को सार्वजनिक होगा, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने भी इसका पलटनारा दिया है-‘मैं भी चौकीदार हूं।’ भाजपा ने एक संगीतमय वीडियो जारी किया है, जिसमें बूढ़े, युवा, महिला, किशोर, बाल चेहरों के साथ-साथ देश की सरहदों पर तैनात और युद्ध के धुएं में लिपटे सैनिक, जवान, सिपाहियों के चेहरे भी हैं। वीडियो का निष्कर्ष यह है कि देश का हर नागरिक ‘चौकीदार’ है, भ्रष्टाचार, गंदगी, सामाजिक बुराइयों से लड़ने वाला हर शख्स ‘चौकीदार’ है। प्रधानमंत्री मोदी आश्वस्त करते नजर आते हैं कि देश का ‘चौकीदार’ चौकन्ना है और देश-सेवा में मजबूती से खड़ा है। प्रधानमंत्री मोदी 31 मार्च को इसी नारे के संदर्भ में देश को संबोधित करेंगे। यानी साफ है कि चुनाव में ‘चौकीदार’ बनाम ‘चौकीदार चोर’ का मुद्दा आपसी टकराव की स्थिति में रहेगा। मोदी की एक पुरानी कविता है, जिसका निष्कर्ष यह है कि जो उन्हें पत्थर मारता है, उसे वह सीढ़ी बना लेते हैं और ऊपर चढ़ जाते हैं। इसी प्रचार में राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे भी निहित हैं। ये मुद्दे जनसंघ के दिनों से प्रिय रहे हैं और इस चुनाव में भी भाजपा इन्हें छोड़ना नहीं चाहती है, लिहाजा पुलवामा, एयरस्ट्राइक, पाकिस्तान, आतंकवाद, म्यांमार की सीमा पर आतंकियों के अड्डे तबाह करने की खबर और तिरंगे को सलामी देते सैनिक का चेहरा आदि को भाजपा ने छोड़ा नहीं है। राहुल गांधी और कांग्रेस राफेल के अलावा आर्थिक भगोड़ों का संदर्भ देने में चूकते नहीं हैं। इसी प्रवाह में राहुल सभी ‘मोदी’ जातीय उपनामों को ‘चोर’ करार दे देते हैं। यह गाली कांग्रेस पर भारी पड़ सकती है। दरअसल प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को देश के सामने यह खुलासा करना चाहिए कि नीरव मोदी, मेहुल चोकसी, विजय माल्या आदि ‘भगोड़ों’ को अनाप-शनाप कर्ज किस सरकार के दौरान दिए गए? बैंक कब और किस तरह ‘दलाली के अड्डे’ बने? नीरव मोदी का महलनुमा बंगला डायनामाइट लगाकर कब उड़ाया गया? करोड़ों-अरबों की बेनामी और दूसरी संपत्तियों को कब जब्त करने का सिलसिला शुरू हुआ? और राफेल सौदे के ब्यौरे क्या हैं? हालांकि यह केस अभी सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है। जब राजनीतिक जीवन में ‘चोर’ करार दिए जाने का कम शुरू हो ही गया है, तो देश के सामने सचाइयां बेनकाब होनी चाहिए। सिर्फ नारों के आधार पर यह देश किसी को ‘चोर’ मानने को तैयार नहीं है, लेकिन विडंबना है कि आज भी सकारात्मक और रचनात्मक मुद्दे महज प्रसंगवश हैं।

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