आर.एल.फ्रांसिस
दो साल पहले उड़ीसा के कंधमाल में हुए दंगों के कारण ईसाइयों एवं कुई आदिवासियों को जान-माल का भारी नुकसान उठाना पड़ा है। हजारो लोग विस्थापित हो गये है जिंदगीं की गाड़ी धीरे धीरे दोबारा रफतार पकड़ रही है। उड़ीसा ही क्यों, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, गुजरात, बिहार, झारखंड, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, उतर प्रदेश, पूर्वी राज्य या यो कहे कि पूरे भारत में ईसाइयों के रिश्ते दूसरे धर्मो से सहज नही रहे है। धर्मांतरण को लेकर अधिकतर राज्यों में दोनों वर्गो के बीच तनाव पनप रहा है। और चर्च का एक वर्ग इन झंझवटों को समाप्त करने के स्थान पर विदेशों में हवा देकर अपने हित्ता साध रहा है। शांति के पर्व क्रिसमस पर ईसाइयों को अब इस बात पर आत्म मंथन की जरुरत है कि उनके रि”ते दूसरे धर्मो से सहज कैसे बने रह सकते है और भारत में वह अपने अनुयायियों के जीवन स्तर को कैसे सुधार सकते है।
भारत के करोड़ों दलितों, आदिवासियों और समाजिक हािशए पर खड़े लोगों ने चर्च को चुना है लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि चर्च उनके जीवन स्तर को सुधारने की जगह अपने साम्राज्यवाद के विस्तार में व्यस्त है। विशाल संसाधनों से लैस चर्च अपने अनुयायियों की स्थिति से पल्ला झाड़ते हुए उन्हें सरकार की दया पर छोड़ना चाहता है। रंगनाथ मिश्र आयोग इसकी एक झलक मात्र है। दरअसल चर्च का इरादा एक तीर से दो शिकार करने का है। कुल ईसाइयों की आबादी का आधे से ज्यादा अपने अनुयायियों को वह अनुसूचित जातियों की श्रेणी में रखवा कर वह इनके विकास की जिम्मेदारी सरकार पर डालते हुए देश की कुल आबादी के पाचवें हिस्से हिन्दू दलितों को ईसाइयत का जाम पिलाने का तना-बाना बुनने में लगा है।
पश्चिमी देशो के मुकाबले एशिया में ईसाइयत को बड़ी सफलता नही मिली है जहां एशिया में ईसाइयत में दीक्षित होने वालो की संख्या कम है वही यूरोप, अमेरिका एवं अफ्रीकी देशों में ईसाइयत का बोलबाला है। राजसत्ता के विस्तार के साथ-साथ ही ईसाइयत का भी विस्तार हुआ है। हमारे अपने देश भारत में ईसा मसीह के शिष्य संत थोमस ईसा की मृत्यु के दो दशक बाद ही प्रचार के लिए आ गए थे लेकिन डेड हजार सालों में भी ईसाइयत यहां अपनी जड़े जमाने में कामयाब नही हो पायी। पुर्तगीज एवं आंग्रेजों के आगमन के साथ ही भारत में ईसाइयत का विस्तार होने लगा। हजारों शिक्षण संस्थानों, अस्पतालों, सामाजिक सेवा केन्द्रों का विस्तार पूरे भारत में किया गया। उसी का नतीजा है कि आज देश की तीस प्रतिशत शिक्षा एवं बाईस प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर चर्च का अधिकार हैं। भारत सरकार के बाद चर्च के पास भूमि है और वह भी देश के पाश इलकों में। सरकार के बाद चर्च रोजगार उपल्बध करवाने वाला सबसे बड़ा संस्थान है इसके बावजूद उसके अनुयायियों की स्थिति दयनीय बनी हुई है।
आजादी के बाद से भारतीय ईसाई एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के नागरिक रहे है। धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था चाहे कितनी ही दोषपूर्ण हो, लोकतांत्रिक व्यवस्था चाहे कितनी ही गैर प्रतिनिधिक हो, यहां के ईसाइयों (चर्च) को जो खास सहूलियतें हासिल है, वे बहूत से ईसाइयों को यूरोप व अमेरिका में भी हासिल नही है। जैसे विशेष अधिकार से शिक्षण संस्थान चलाना, सरकार से अनुदान पाना आदि। इसके बावजूद वह अपनी छोटी छोटी समास्याओं के लिए पि”चमी देशों का मुँह ताकते रहते है। भारतीय राजनीतिक एवं न्याययिक व्यवस्था से ज्यादा उन्हें पि”चमी देशों द्वारा सरकार पर डाले जाने उचित-अनुचित प्रभाव पर भरोसा रहता है।
वर्तमान परिस्थितियों में स्वाल यह भी है कि ईसाइयों को क्या करना चाहिए? अधिकतर ईसाई बुद्विजीवियों का मानना है कि ईसाई भारतीय समाज और उसकी समास्याओं से अपने को जुड़ा नहीं महसूस करते है। वे अभी तक यह नही सीख पाए हैं कि लोकतंत्र में अपने अधिकारों की लड़ाई कैसे लड़ी जाती है। बृहत्तार समाज से कटे हुए वे रेगीस्तान में शुतरमुर्ग की तरह हो गए है, जो रेत में गर्दन छिपाकर यह समझता है कि वह सुराक्षित हो गया है। ईसाइयों को चर्च राजनीति की दड़बाई (घंटो) रेत से अपना सिर निकालना होगा और अपने ही नही देश और समाज के सामने जो खतरे है, उनसे दो चार होना पड़ेगा। जब तक ईसाई देश में चलने वाली लोकतांत्रिक शक्तियों से अपने को नहीं जोड़ेगे तथा उसमें उनकी सक्रिय भागीदारी नही होगी, तब तक उनका अस्तित्व खतरे में रहेगा। ईसाइयों को धर्म और सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति एक स्पष्ट समझ बनाने की आव”यकता है। रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट लागू होने से ‘चर्च एवं धर्मांतरित ईसाइयों’ में और दूरी बढ़ेगी। इसी के साथ चर्च पर ‘धर्मातरण’ के आरोपों की बाढ़ भी आएगी। आज स्थिति यह है कि चर्च ने धर्म और सामाजिक कार्य को एक दूसरे में गडमड कर दिया है। नतीजन, धर्मांतरित ईसाई हािशए पर अटक गए है।
ईसाई समाज में सामाजिक आदोंलन नहीं के बराबर है। पता नही क्यों ईसाई राष्ट्रीय स्तर पर चलाए जाने वाले विकास कार्यक्रमों से बहूत दूर है। ब्लॉक स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक चलने वाली आर्थिक सामाजिक परियोजनाओं में शामिल होने की आव”यकता है। लोंकतांत्रिक व्यवस्थाओं में धार्मिक परिसरों और अपने धर्मवलम्बियों तक ही अपनी चिंताओं को सीमित रखने वाले प्राय: मुख्यधारा से कट जाते है, जिसका उन्हें बहुत नुकसान उठाना पड़ता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि भारत में लोकतंत्र किसी अल्पसंख्यक समुदाय के कारण ही नही है। बहुसंख्यक समुदाय को यह लगना चाहिए कि लोकतंत्र को बचाने, बढ़ाने में उसके जो प्रयास है, उसमें ईसाई पूरी तरह उनके साथ है।
दरअसल भारतीय ईसाई समाज इस समय नेतृत्वहीन है। जो नेता है भी तो वे धर्म के नाम पर रोंटियां सेंकते है। उन्हें आम ईसाइयों के जीवन और भविष्य से कुछ लेना देना नही है। चर्च को भारत में अपने मिशन को पुन: परिभाषित करना होगा क्योंकि इसाई समुदाय के प्रति बढ़ते तनाव की मुख्य वजह ‘धर्मांतरण’ ही है और हम उसे कब तक झुठलाते रहेगे। पिछले दो दशकों के दौरान विभिन्न राज्यों में दोनों वर्गो में पनपे तनाव के पीछे के कारणों की गहराई में जाने की जरुरत है। क्या धर्मांतरण ही ईसाइयत का मूल उदे्”य रह गया है? यही समय है जब ईसाई समुदाय को स्वयं का सामाजिक लेखा-परीक्षण करना चाहिए, तांकि पता चले कि ईसाई समुदाय अपनी मुक्ति से वंचित क्यों हैं?
संसाधनों के बल पर चर्च ने भले ही सफलता पा ली हो लेकिन ईसा के सिद्धांतों से वह दूर हो गया है। आज चर्च की सफलता और ईसा के सिद्धांत दोनों अलग-अलग कैसे हो गए है यह ठीक उसी प्रकार से जैसे कि ‘’भले समारितान की कथा’’ में प्राथमिकता में आए पुरोहित (पादरी) ने डाकुओं से लूटे-पीटे गए घायल व्यक्ति (यहूदी भाई) को नजरअंदाज कर दिया था। (Luke 10: 25-37) यीशु ने मनुष्य को जगत की ज्योति बताया है। उन्होंने कहा कि कोई दीया जलाकर पैमाने के नीचे नहीं बल्कि दीवार पर रखते हैं ताकि सबको प्रकाश मिले। इसका अर्थ है कि हम अपनों को नजरअंदाज न करे, आज चर्च ने भले ही विश्वव्यापी सफलता पा ली हो पर वह अपने ही घर में वंचितों की सुध लेने में असफल रहा है क्योंकि वह अपने व्यापार में व्यस्त है।