चुनावी चक्कलस पर भारी मिडियाई बतरस

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चुनाव आयोग की कृपा से पाँच राज्यो के चुनाव निर्धारित समय सीमा और निर्धारित व्यय सीमा में समाप्त हो चुके है और इसी के साथ लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व के एक और सीजन का समापन हुआ। ये पर्व, बड़ा कर्व (Curve) लिए हुए होता है। लोकतंत्र का ये सीजन, आमजन के लिए बड़ा ही पशोपेश और परेशानी भरा होता है क्योंकि सबकुछ जानने वाली पब्लिक पहले ही इतना परेशान और कन्फ्यूज़ रहती है और उस पर दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हर पाँच साल बाद अपना नेता और सरकार चुनने की ज़िम्मेदारी उस पर थोप देता है। जनता ये सोच कर दुखी है की गैस पर सब्सिडी छोड़े या ना छोड़े और नेता आपसे गुहार लगा रहा होता है की इस चुनाव में आप उसका दामन ना छोड़े, आप हिसाब लगा रहे है कि महीने में अपने बैंक खाते से कितनी बार फ्री में पैसा निकाल सकते है और नेता आपके टीवी, लैपटॉप और मोबाइल में घुसकर फ्री बिजली- पानी का वादा कर रहा होता है। आप चिंतन कर रहे है होते है की पेट्रोल/डीज़ल का भाव आधी रात से बढ़ तो नहीं जाएगा इसलिए आधा लीटर ज़्यादा भरवा ले क्या और चुनावी विश्लेषक आपको समझा रहे होते है की इस चुनाव में आपको हाथी की सवारी करनी चाहिए या फिर साईकल की।

पहले ही इतनी सारी परेशानियो से घिरा भारत का मतदाता चुनाव में किसकी नैया पार लगाएगा ये उसका विवेक तय करे उसके पहले ही मिडीया उसके लिए अपने सर्वे और ओपिनियन पोल से यह तय कर देता है की ऊंट किस करवट बैठगा और मतदाता अपने ड्रॉइंग रूम में बैठा ये “रेडीमेड -ओपिनियन”अपने “अंडरयूज़्ड विवेक” को परोस सकता है। अब विवेक के ऊपर निर्भर करता है कि वो इसे ग्रहण करे या फिर मिड-डे मिल की भांति इसका पोस्टमार्टम करे।

“चुनावी- चक्कलस”, “मिडियाई-बतरस” के बिना अधूरी है। मिडिया, लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है और लोकतंत्र का ढांचा मज़बूत बनाए रखने के लिए आवश्यक है की ये बाकि तीन स्तम्भो को पूरी ताकत से पकडे रखे ताकि सभी कह सके, “सही पकड़े है”। लोकतंत्र की छत को मज़बूती से टिकाए रखने के लिए और उसे फांसीवाद की सीलन और तानाशाही की लीकेज से बचाए रखने के लिए लोकतंत्र का  ये “चौथा पाया” हर मुद्दे का “तिया-पांचा” करने का लाइसेंस लिए बैठा है। इस लाइसेस को अच्छे से “फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन” द्वारा लेमीनेट करके रखा जाता है ताकि लोकतंत्र के बाकि तीन स्तम्भो (व्यस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका) के साथ होने वाले “गेट-टूगेदर”  मीटिंगों में ज़रूरत पड़ने पर इसे रेड कार्ड/येलो कार्ड की तरह दिखा कर हमेशा रेफरी की भूमिका ली जा सके।

चुनावो की घोषणा होते ही सारे पत्रकार और एंकर्स इतने जोश से भर जाते है मानो चुनाव आयोग ने चुनाव की अधिसूचना जारी करते समय प्रेस कांफ्रेंस में मिडिया को ऑडियो-वीडियो बाईट के साथ साथ “रिवाइटल” की बाईट भी दे दी हो और ये बाईट मिलते ही  जोशीले एंकर्स की बॉडी लैंग्वेज ऐसी हो जाती है मानो अगर दर्शको ने उन्हे नोटिस नहीं किया तो वो काली की हुई स्क्रीन तोड़ कर कहीं दर्शको को ही बाईट (Bite) ना कर ले। मिडिया में “नोटिस” ना होने की टीस सब पर भारी पड़ती है।

चुनावी अधिसूचना जारी होते ही पार्टिया, नेता और कार्यकर्ता “व्यस्त” और मिडिया-हाउसेस, पत्रकार और एंकर्स “अस्त-व्यस्त” हो जाते है। चूना लगाने वाले राजनैतिक दल,मिडिया को अपने विरोधियो की “सुपारी” देते है ताकि व्यस्त नेता ,अस्त-व्यस्त पत्रकार  के साथ मिलकर कई उगते सूर्य अस्त कर सके । ये न केवल “सबका साथ-सबका विकास”का अप्रितम उदाहरण है बल्कि “ग्लोबल वार्मिंग” के खिलाफ लड़ने की एक सार्थक पहल भी है।

मीडिया पर आए दिन चुनावो में पेड सर्वे/ओपिनियन पोल दिखाने के आरोप भी लगते रहते है। मेरी राय में (जो  कि मायने नहीं रखती है) ये आरोप मिथ्या और दुर्भावना से प्रेरित है क्योंकि अगर ऐसे सर्वे और पोल दिखाकर मिडिया किसी के पक्ष में हवा बना रहा तो साथ-साथ ही वो किसी पक्ष की हवा टाइट भी कर रहा होता है । ऐसे “बैलेंसिंग एक्ट” ही तो पत्रकारिता की निष्पक्षता की नींव को मज़बूत करते है। जैसे अगर राजनीती कीचड है तो उसे साफ़ करने के लिए उसमे उतरना ज़रूरी है वैसे ही किसी भी मुद्दे के पक्ष-विपक्ष को गहराई से समझने के लिए पत्रकार का पक्षकार बनना ज़रूरी है। सूचना की आपाधापी के इस युग में अगर मिडिया “न्यूज़” के साथ-साथ “व्यूज” नहीं दिखाएगा तो नंगा होकर भी टीआरपी की हवस में पिछड़ जाएगा।

चुनावी विश्लेषण करते समय समय कुछ न्यूज़ चैनल तो इतने लोगो का पैनल बिठा लेते है मानो चुनावी विश्लेषण के लिए नहीं बल्कि होली-दीवाली स्नेह मिलन समारोह के लिए लोगो को बुलाया हो। अपनी पार्टी का प्रतिनिधित्व कर रहे प्रवक्ताओ को बोलते हुए सुनकर लगता है कि आजकल प्रवक्ता होने के लिए अच्छा वक्ता होने की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई है। चुनावी चर्चा में भाग ले कर चुनावी गणित का गुणा-भाग करने वाले एक्सपर्ट्स की निष्पक्ष छवि पर उनकी विचारधारा का दाग ना लगे इसलिए उनके नाम के आगे स्वतंत्र राजनैतिक विचारक या विश्लेषक की तख्ती टांग दी जाती है और इस तमगे की पहुँच, न्यूज़ रूम के वाई-फाई नेटवर्क जितनी ही होती है।

“आपको (जनता) को आगे रखने” के लिए” सबसे तेज़” होना ही काफी नहीं है बल्कि इसके लिए क्रांतिकारी चैनल बनते हुए,हर खबर पर सबसे पहले अधिकृत या अनाधिकृत तौर पर कब्ज़ा करना भी ज़रूरी हो जाता है और जब बात चुनावो की हो तो ये क्रांति ओबी कार (वैन) में बैठकर “हाहाकार” का स्वरूप धारण कर लेती है।

चुनावी सर्वे ,ओपिनियन पोल और एग्जिट पोल के लिए चैनल्स जो सैंपल साइज़ लेते है उससे ज़्यादा तो डॉक्टर्स ब्लड या यूरिन टेस्ट के लिए सैंपल ले लेते है। हर चैनल अपने सर्वे और पोल को मेक इन इंडिया के उत्पाद की तरह उसे विपणनियता की कसौटी पर कसकर बेचता है। एंकर चीख चीख कर पूरे “बल” और “डेसिबल” के साथ केवल  आंकड़े ही नहीं बोलता बल्कि मानो पूरे चैनल के सेनापति की तरह विरोधियो पर धावा भी बोलता है। शायद इसी तरह से इनका “काम बोलता है”।

एंकर तो एसी न्यूज़ रूम में बैठकर एक्सपर्ट्स के साथ अपने एजेंडा और प्रोपगेंडा को पूर्वाग्रहों के साथ जोतकर हांकता रहता है लेकिन किसी सुदूर चुनावी इलाके में उसी एजेंडे और प्रोपगेंडे का “मानसपुत्र” उर्फ़ चैनल का सवांददाता सुबह- सुबह मतदाता के बिना ब्रश किये हुए मुँह में अपने माइक के साथ साथ अपने शब्द भी घुसेडेने की कोशिश करता है । विचित्र स्थिति उत्पन्न होती है जब मतदाता का मुँह और सवांददाता का दिमाग एक साथ बदबू छोड़ते है। यहाँ ये स्पष्ट करना ज़रूरी हो जाता है “पहले मतदान-फिर जलपान” नियम का पालन करने के चक्कर में ज़्यादातर मतदाता बिना ब्रश किये ही मतदान केंद्र पहुँच जाते है।

कई बार पूरे स्टूडियो को अपनी आवाज़ से सर पर उठा देने वाले एंकर की आवाज़ का संपर्क फोन पर अपने संवाददाता से ही नहीं हो पाता है। फिर एंकर निराश होकर स्टूडियो में बैठे एक्सपर्ट से सवाल पूछता है कि” आपको क्या लगता है, इस बार फलाने जी को अपने क्षेत्र की जनता के संपर्क में ना रहने का नुकसान होगा?” उधर अपने स्टूडियो से आवाज़ कैप्चर ना कर पाने से निराश सवांददाता,बूथ कैप्चर होने की खबर अपने स्टूडियो में समय से नहीं दे पाता है।

सर्वे, ओपिनियन/एग्जिट पोल से निपटने या यू कहे कि इनको निपटाने के बाद आने वाले चुनाव परिणाम राजनैतिक दलो की तरह चैनल्स की भी अग्निपरीक्षा होते है क्योंकि उन्हें अपने सेट किये हुए एजेंडे और नैरेटिव को डिफेंड करने के लिए  पक्ष-विपक्ष में दोनों तरह की स्टोरी तैयार करनी पड़ती है। चुनाव परिणाम  आने के बाद भी “टाइम” ठीक चले इसलिए “ओवरटाइम” करना पड़ता है।

काउंटिंग के दिन किसी भी सीट का रुझान या परिणाम आप किसी भी चैनल पर देखे वो आप सबसे पहले और सबसे तेज़ देख रहे होते है। चाहे चुनाव आयोग द्वारा रुझानों और परिणामों की घोषणा हो या फिर मौसम विभाग द्वारा कोई तूफान/सुनामी आने की चेतावनी, एंकर्स का उत्साह और इंतज़ार एक सा बना रहता है। इंतज़ार और उत्साह देखकर लगता है कि अगर रुझान/परिणाम आने में थोड़ी भी देरी हो जाए तो चैनल वाले इनको लाने के लिए अपनी ऑफिस की पिकअप वैन भेज दे।

चुनाव समाप्त होने के बाद हारी हुई पार्टिया EVM में गड़बड़ी का आरोप लगाती है लेकिन कोई भी पार्टी मीडिया रिपोर्टिंग या एजेंडे में गड़बड़ी या पक्षपात का आरोप  कभी नहीं लगाती है। यही बात अपने आप में लोकतंत्र के सबसे बड़े महापर्व “चुनाव”में लोकतंत्र के चौथे खंभे “मिडिया के महत्वपूर्ण योगदान की गवाही देता है।

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