प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह और कांग्रेस, दोनों के सितारे इन दिनों गर्दिश में हैं। सरकार चौतरफा राजनैतिक-आर्थिक संकटों से घिरी हुई है। सरकार की दिशा और दशा, दोनों ही खराब हैं। मिस्टर क्लीन की छवि धूमिल पड़ती जा रही है और प्रधानमंत्री लगातार अपनी विश्वसनीयता खो रहे हैं। 2009 के लोकसभा चुनावों में मनमोहन सिंह की साख ही यूपीए की सबसे बड़ी ताकत थी। टूजी घोटाले और कॉमनवेल्थ घोटाले ने यूपीए की छवि पर बट्टा लगा दिया। इन घोटालों पर प्रधानमंत्री के रवैये से जनता में यह संदेश गया कि भ्रष्टाचार के मामलों में प्रधानमंत्री नरम रूख रखते हैं। इस बीच आर्थिक मोर्चे पर भी सरकार का प्रदर्शन निराशाजनक रहा। कैग की हालिया रिपोर्ट ने बची-खुची छवि को भी दागदार बना दिया है। कैग की रिपोर्ट के अनुसार 2005-09 के दौरान नीलामी के बगैर कोयला ब्लॉक आवंटन किए जाने से सरकारी खजाने को 1.86 लाख करोड़ रुपये का नुकसान पहुंचा।
ईमानदारी और विनम्रता डॉ मनमोहन सिंह की विशेषता रही है। अर्थशास्त्री के रूप में उनका सम्मान भारत में ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में भी है। इसी छवि के बल पर वह खूब वाहवाहियां भी बटोरते रहे। धीरे-धीरे ‘बेचारा’ और ‘लाचार’ प्रधानमंत्री की छवि उनके गुणों पर भारी पड़ने लगी। मनमोहन सिंह की पृष्ठभूमि राजनेता की नहीं रही है। शायद इस वजह से ही वह राजनीति का दांवपेंच नहीं समझते हैं। राजनीति का खेल निराला है। इस खेल में कोई शून्य से शिखर पर पहुँच जाता है, तो कोई पलक झपकते ही असाधारण से अतिसाधारण बन जाता है। आज विचार से ज्यादा सूझबूझ और त्वरित निर्णय लेने की क्षमता ही राजनीति का मूलमंत्र है। सूझबूझ की कमी और निर्णय लेने की अक्षमता ने मनमोहन सिंह को असहाय बना दिया है। मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल के अप्रभावी होने की मुख्य वजह यह है कि उन्होंने खुद को हर विवाद से अलग रखा। प्रधानमंत्री पर भ्रष्टाचारी मंत्रियों को संरक्षण देने का आरोप लगता रहा है। उनका नेतृत्व लगातार कमजोर होता दिख रहा है। रबर स्टांप, भ्रष्टाचार का पोषक, अंडरएचीवर और सबसे कमजोर प्रधानमंत्री जैसे जुमले और विशेषण उनके नाम के साथ जुड़ते चले जा रहे हैं। एक के बाद एक हुए घोटाले ने प्रधानमंत्री की कमजोरियों को उजागर किया है। कैग की नयी रिपोर्ट ने प्रधानमंत्री को ही कटघरे में ला दिया है।
कैग की रिपोर्ट के अनुसार 2004 से 2006 के बीच 142 खदानों का रिकार्ड आवंटन किया गया। इस अवधि में कोयला मंत्रालय प्रधानमंत्री के पास था। कैग के अनुसार कोयला ब्लॉक प्रतिस्पर्द्धी दर पर आवंटित करने की नीति लागू करने में हुई देरी का फायदा निजी कंपनियों को हुआ। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद बीते 2004 से 2009 तक में 342 खदानों के लाइसेंस बांटे गये। कैग की रिपोर्ट भाजपा के लिए किसी दैवी वरदान से कम नहीं है। कोयले के आवंटन के मुद्दे पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के इस्तीफे की मांग कर रही भाजपा इस मामले को किसी भी तरह अपने हाथों से निकलने नहीं देना चाह रही है। जबकि सरकार सदन की कार्रवाई टाल कर इस घोटाले पर भी पर्दा डालना चाह रही है। पूर्व में भी वह ऐसा ही करती आयी है। सरकार कोई कार्रवाई करने के बजाए घोटाले में शामिल अपने बड़े नेताओं को बचाने का प्रयास पहले भी करती रही है। सत्तापक्ष ने इस रिपोर्ट को सिरे से खारिज किया है। सरकार के अनुसार ये आंकड़े ‘भ्रामक’ और ‘गुमराह’ करने वाले हैं। सत्तापक्ष की इस दलील को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि कहीं कोई घोटाला हुआ ही नहीं है।
आज पार्टी और सरकार में ऐसा कोई चेहरा नहीं दिखाई देता है जो डूबती नैया को पार लगाने का माद्दा रखता हो। सोनिया गांधी खुद दिशाहीन हो गयी हैं और कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी का रिकार्ड संकट की स्थिति में अब तक निराशाजनक ही रहा है। प्रणव मुखर्जी के राष्ट्रपति के रूप मे चुने जाने के बाद कांग्रेस संसदीय दल की स्थिति चिंताजनक है। प्रणव मुखर्जी ने अपने बूते पर कई बार यूपीए 1 और यूपीए 2 को संकट से उबारा था। संकटमोचन के बिना सरकार इस स्थिति से कैसे निपटेगी कुछ कह नहीं सकते।
कैग द्वारा कोयला घोटाले पर से पर्दा उठाये जाने से पहले टूजी स्पेक्ट्रम आवंटन को देश का सबसे बड़ा घोटाला माना जा रहा था, जिसमें बिना नीलामी चहेतों को लाइसेंसों की बंदरबांट के जरिये देश के खजाने को एक लाख 76 हज़ार करोड़ रुपये का नुकसान पहुंचाया गया था। कोयला ब्लॉक आवंटन में अगर वास्तव में घोटाला हुआ है तो यह सबसे बड़ा घोटाला है। इस घोटाले की जिम्मेदारी और जवाबदेही से प्रधानमंत्री बच नहीं सकते है। प्रधानमंत्री के लिए निजी तौर पर आत्मनिरीक्षण का क्षण है। उम्मीद की जानी चाहिए की वह अनिर्णय की स्थिति से जल्द ही उबरेंगे। कैग के खुलासे से सरकार और उनके चेहरे पर जो कालिख पुती है, उसे जल्द ही धो लेंगे और सरकार अपना कार्यकाल बिना किसी अवरोध के पूरा कर लेगी