लापरवाह नागरिक बनाना चाहते हैं आदर्श राष्ट्र

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एक से अधिक व्यक्तियों के जुड़ने से एक परिवार बनता है, परिवारों के मिलने से मोहल्ला, नगर और समाज का निर्माण का होता है। इसी क्रम में कुछ गांवों को मिला कर एक विकास खंड बना है, कुछ विकास क्षेत्रों को मिला कर एक तहसील और कई तहसीलों को मिला कर एक जनपद बना है। उसके बाद कुछ जिलों के समूह को एक मंडल और कई मंडलों को मिला कर एक राज्य का गठन किया गया है और राज्यों को मिला कर राष्ट्र का निर्माण हुआ है। इसी तरह सभी राष्ट्रों को जोड़ कर पूरी दुनिया बनी है। परिवार से लेकर राष्ट्र तक का आधार एक व्यक्ति ही है। अगर व्यक्ति हटा दिया जाये, तो सभी संस्थाओं का अस्तित्व स्वत: ही समाप्त हो जायेगा, इसके बावजूद आज यह धारणा आम हो चुकी है कि समाज का वातावरण दूषित हो गया है, लोकतंत्र के सभी अंग भ्रष्ट और लापरवाह हो गये हैं, देश और समाज की किसी को चिंता नहीं है, सब व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति में लगे हुए हैं, कर्तव्य पालन किसी की प्राथमिकता में नहीं है। इस तरह के अन्य तमाम दु:खद वाक्य किसी न किसी तिराहे-चौराहे, गांव की चौपालों के साथ बस, ट्रेन की यात्रा के दौरान अथवा किसी भी चर्चा के स्थान पर सुनने को आम तौर पर मिल ही जाते हैं। ऐसे दु:खद वाक्यों को सुनने के बाद यही सवाल उठता है कि समाज, विभाग, मंत्रालय, सरकार या राष्ट्र कोई व्यक्ति तो है नहीं, जो उनकी अपनी कोई सोच हो, तो फिर यह सब दूषित क्यूं नजर आ रहे हैं?

जवाब भी एक दम सीधा है कि इन सबका आधार व्यक्ति है और व्यक्ति भी किसी और देश के नहीं, बल्कि इसी देश के हैं, जो परिवार और समाज से लेकर व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और पत्रकारिता को संभाल रहे हैं। मतलब साफ है कि यदि अधिकांश जगह एक ही जैसा दूषित वातावरण नजर आ रहा है, व्यवस्था संभाल रहे अधिकांश जिम्मेदार भ्रष्ट और लापरवाह नज़र आ रहे हैं, तो कहीं न कहीं व्यक्ति ही खराब है। अर्थात, व्यक्ति की सोच में ही गिरावट आई है, तभी चारों ओर का वातावरण दूषित दिखाई दे रहा है। किसी एक के करने से न सब कुछ सही हो सकता है और न ही सब गलत।

देश भर में आजकल सरकार और बाक़ी सभी अंगों को पारदर्शी, कर्तव्यपरायण और पूर्ण रूप से ईमानदार बनाने की बात कही जा रही है। लोकतंत्र में ऐसा होना भी चाहिए, पर सवाल फिर वही है कि सरकार और बाक़ी सभी अंगों में कार्य करने वाले व्यक्ति जब इसी समाज और इसी देश से लिए जा सकते हैं, तो सरकार चलाने के लिए ईमानदार और कर्तव्यपरायण व्यक्ति कहां से लाये जायें? इस प्रश्र का कोई उत्तर नहीं है, क्योंकि हम सब को ही सब कुछ करना और संभालना है। यह हमारी बनाई हुई व्यवस्था है, जो हम से ही अच्छी या बुरी बनती है, तभी व्यक्ति की सोच में हुए परिवर्तन के घातक परिणाम सामने आ रहे हैं। केवल सरकार और उसके अंगों में कार्य करने वाले लोगों में सेवा भाव जगाने से ही कुछ नहीं बदलेगा। व्यक्ति की सोच बदलेगी, तो परिवार, समाज, जिला और राष्ट्र की सोच स्वतः बदल जायेगी। व्यक्ति की सोच गुणवत्तापरक शिक्षा व अच्छे टीवी कार्यक्रमों के माध्यम से बदली जा सकती है, लेकिन गंभीर होना तो दूर की बात, इस ओर किसी का ध्यान तक नहीं है। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि किसी पेड़ की जड़ में कीड़े लगे हों और उसकी टहनियों पर कीटनाशकों का छिडक़ाव करने से बीमारी का उपचार कैसे संभव हो पायेगा?

परंपरा और संस्कृति की बात करते ही कुछ लोग धर्म और पाखंड में उलझाकर विषय की गंभीरता को ही समाप्त कर देते हैं, जबकि परंपरा और संस्कृति से आशय इंसान के मूल्यों की बात करना ही है। उन मूल्यों से दूर जाने के कारण ही व्यक्ति का व्यवहार जानवर जैसा हो गया है। आज वह सिर्फ अपने लिए ही जी रहा है। इस बदली हुई सोच के चलते ही व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के साथ पत्रकारिता के दामन पर बड़े-बड़े दाग नजर आ रहे हैं, लेकिन दाग स्वभाविक हैं, क्योंकि इन चारों स्तंभों में काम करने वाले व्यक्ति इसी समाज का हिस्सा हैं। असल में आन्दोलन, सरकारी तंत्र को ठीक करने की बजाये नैतिक शिक्षा और अच्छे टीवी कार्यक्रमों के लिए होने चाहिए। उत्तम शिक्षा से बच्चों में आदर्श नागरिक का अंकुर पैदा किया जा सकता है। टीवी आज अधिकाँश परिवारों का प्रमुख अंग बन गया है, जिससे टीवी का असर बच्चों पर माता-पिता और शिक्षक से कहीं अधिक होता दिख रहा है, इसलिए टीवी के माध्यम से घर-परिवार में मूल्यपरक वातावरण देकर आदर्श नागरिक के उस अंकुर को विशाल वृक्ष बनाया जा सकता है। सब कुछ करने का दायित्व सिर्फ सरकार का ही नहीं है, अभिवावकों को भी अपने बच्चों में राष्ट्रप्रेम और कर्तव्यपरायणता की भावना जागृत करने की आवश्यकता है। आदर्श नागरिक बनाने की दिशा में बरती जा लापरवाही यहीं नहीं रुकी, तो आने वाला समय और अधिक भयावह हो सकता है, क्योंकि लापरवाह नागरिकों से आदर्श राष्ट्र नहीं बनते।

 

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