वर्ग-दंभियों के दायरे


-हरिकृष्ण निगम

हाल में एक अमेरिकी लेखक ने आज की सभ्यता के संकटों से उपजे स्वरों में एक नितांत वैयक्तिक तत्व को अत्यंत महत्वपूर्ण माना है और कहा है कि आज के युग में प्रतिष्ठित, समृध्द और बड़े कहे जाने वाले लोगों में संवेदनशीलता, निर्बोधता और निश्छल आचरण का युग जैसे समाप्त होता जा रहा है। यह उनकी अपनी उपस्थिति जताने की विवशता है अथवा समाज पर छवि निर्माण उद्योग की नई गहरी पैंठ, यह सच है कि कड़ी प्रतिद्वंदिता के दौर में हम सब नए प्रपंचों की दहलीज पर खड़े हैं। आज चारों ओर ऐसे लोगों का बोलबाला है, लोग जैसा दिखते हैं, वैसे नहीं हैं। वे जो कुछ बोलते हैं उनका कृत्रिमता, रहस्य या आशय कदाचित उन लोगों पर अधिक अच्छी तरह प्रकट होता है जो इस योजनाबध्द नम्रता का दृश्य देखते हैं। आज अनेक क्षेत्रों के प्रबुध्द व्यक्ति इतने आत्मकेंद्रित या आत्ममुग्ध हैं कि वे सार्वजनिक रूप से विश्व संस्कृति या विरासत पर अपना दावा करते नहीं थकते-यद्यपि यथार्थ में वे अपने सीमित दायरे में ही मस्त रहते हैं। आज हमारा समाज वर्ग-दंभियों से भरा है जो उच्चवर्गीय रोब-दाब से सिर्फ अपना प्रभाव जताने के लिए ही नहीं बल्कि अपनी कथित ताकत, सामर्थ्य, पहचान और जिसे जुगाड़ूपन भी कहते हैं उसके माध्यम से दूसरों पर असर डालने का खेल अभ्यास ही अपनी दिनचर्या में खेलते रहते हैं। वर्ग-दंभ किस तरह से प्रदर्शित किया जाता है, कैसे फलता-फू लता है, ऐसे लोगों के संपर्क में आने पर स्वतः मालूम हो जाता है। अंतर्संबंधों में अपव्यक्त प्रतिद्वंदिता या बराबरी या एक-दूसरे पर तुरूप का पता चलने का खेल हमारे चारों ओर चलता है, यद्यपि इसे शायद ही किसी ने परिभाषित करने की कोशिश की हो। जो इस दिखावे या विशिष्ट वर्ग का संभ्रांत किंतु दंभी खिलाड़ी होता है उसके लिए सामान्य प्रचलित शब्द है – ‘स्नॉब’! वह हिंदी जानने पर भी सिर्फ अंग्रेजी में, वह भी चालू ‘स्लैंग’-युक्त हिंगलिस में वार्तालाप करता है। सामाजिक स्तर पर अपने को अलग प्रदर्शित करने की ललक उसे असामान्य बना देती है जो वह समझना नहीं चाहता हैं। ऐसे व्यक्ति आदर के भूखे होते हैं और जैसे हैं उससे कुछ अधिक ही प्रदर्शित करना चाहते हैं। ऐसे व्यक्ति के जीवन की सत्यता वही नहीं है जो वह कहता है अपितु सच्चाई वह छवि है जो वह चतुराई से अपने चारों ओर बुनता है। यद्यपि अब ऐसे लोग कम मिलते हैं जो अपने खानदान का जिक्र कर अपने रिश्तेदारों के पद, ओहदों या संपत्ति की अंतहीन बातों से प्रभावित करना चाहते हैं पर ऐसे लोगों की कमी नहीं हैं जो चाहे राजनीतिज्ञ हो या नौकरशाह या मीडिया अथवा मनोरंजन की दुनिया से जुड़ा चर्चित व्यक्तित्व, उससे अपनी निकटता दिखाकर अपनी ढपली बजाते हैं। ऐसे गर्व-दंभ से भरे लोग बड़े लोगों के नाम को भी उनके प्रचलित आधा अक्षर या बुलाने के नाम को ऐसे लेते हैं जैसे वे उनके लंगोटिया यार हों। यह सिर्फ इसलिए कि सामने वाले अभिभूत हो जाए कि आप सत्ता के नजदीक अथवा महत्वपूर्ण बड़े लोगों के कितने निकट हैं। झूठे अभिमान से ग्रस्त ऐसे कुछ लोग दूसरों को नीचा दिखाने में भी स्वर्गिक आनंद पाते हैं। अधिकांश का गुप्त मंतव्य यह होता है कि वे अपने वर्तमान स्तर से कैसे एक ऊंची छलांग लगा सकें। यह आत्मकेंद्रित रुख भी एक आस्था या धर्म की तरह है जो भावी आशा की या भय की तरंगे फैलाने से पनपता है। ऐसा दंभी व्यक्ति स्वयं के लिए अपने चारों ओर आगे बढ़ने के लिए एक सुरक्षा कवच तो बनाता ही है, जब वह दूसरे बड़े लोगों के नाम के व्यूह के भीतर से अपने नीचे व बराबरी के लोगों को इस प्रक्रिया में और नीचे धकेलने की कोशिश में जुट जाता है। आज ताकत के अनेक रूप हैं जो भिन्न-भिन्न प्रकार से दिखाई जाती है पर उसका लक्ष्य पुराने जमाने जैसा ही होता है, स्वीकृति ये आदर कैसे बटोरा जाए। वैसे तो सभी समाज किसी न किसी रूप में इस तरह संगठित होते हैं जहां स्वीकृति पाने की लकीरें स्पष्ट खिंची होती हैं पर धन, प्रतिष्ठा या समृध्दि व्यक्ति को जो महत्व देते है उसके संदर्भ अनेक अयोग्य पिछलग्गुओं को भी कुछ मात्रा में समाज में आदर वितरित करते हैं। पर कोई वर्गदंभी अपने को पिछलग्गू नहीं कहलाना चाहेगा इसलिए वह अभिजात्य वर्ग में शामिल होने के लिए एक नई जीवन शैली और अलग दुनिया बनाना चाहता है। बच्चों के लिए स्कू ल हो तो चुना हुआ जिसमें विशिष्ट और संभ्रांत वर्ग, इलीट का लेबल लगा हुआ, घर का पता हो तो वह भी दक्षिण मुंबई जैसा महंगा स्थान, नहीं तो सब व्यर्थ है। यदि आपका घर ऊपरी उपनगरों में नालासोपारा या नायगांव जैसी जगह हुआ तो कथित परिकृष्ट सभ्य समाज में आप किस वर्ग के हैं इसकी कलई खुल जाएगी। समृध्द वर्ग का हिस्सा होने की इस अंधी दौड़ ने अनेक दिखावटी लोगों को आज एक गहरी त्रासदी की ओर ढकेल दिया है जिसे वे मान भी नहीं सकते हैं। मारे और रोने भी न दे। पर यह विकल्प तो उन्होंने स्वयं अपनी झूठी शान के कारण चुना है। जिन्हें हम बड़ा मानते हैं वे इसलिए बड़े हैं कि हम अपने सामने घुटने टेके हुए हैं – जानते हुए भी कि उनका बड़प्पन उनके दंभ और अहंकार पर टिका हुआ है। विश्वविद्यालय, कार्यालय, बड़े-बड़े क्लब, आवासीय परिसर, बाजार ये सब स्वयं शुरू से स्टेट्स प्रणाली के आधार पर वर्गीकृत होते हैं। इस ढांचे को कोई अनदेखा नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए आज भी मुंबई के उपनगरों में रहने वाले करोड़ों लोग जब चर्चगेट, नरीमन प्वाइंट, मलाबार हिल आदि प्रतिष्ठित दक्षिणी मुंबई की ओर जाते हैं तब वे यही कहते हैं-वे मुंबई जा रहे हैं। कला, साहित्य, शिक्षा, वाणिज्य, मनोरंजन, व लोकप्रिय संस्कृति के गढ़ के रूप में दशकों से जाने-माने स्थान इसी छोर पर हैं जो समृध्द वर्ग के अभिमान व अहंकार का तुष्टीकरण करते हैं और हर कोई इन स्थानों से अपने को जोड़ना चाहता हैं जिससे दूसरों को प्रभावित कर सके। ऐसे भी लोग हैं जो अपनी विशिष्टता की धाक जमाने के लिए मध्य वर्ग के सरोकारों को हेय दृष्टि से देखते हैं। महंगाई या बढ़ती कीमतों की बात भी उनके लिए फैशन के बाहर हैं और इसकी चर्चा करने वाला अभिजात्य वर्ग के बीच कहीं अपनी वर्ग प्रकृति न खोल दे। विचारों के लेबिलों का दंभ भी इस वर्ग की पहचान है। यदि हम हिंदी या भारतीय भाषाओं के पत्र पढ़ते हैं तब छिपा जाइए क्योंकि परिष्कृत अभिजात्य वर्ग इसे आज भी ‘वर्नाक्यूलर’ स्थानिक या देसी बोली मानता है। यदि अंग्रेजी सेक्युलर व वैश्विक है, हिंदी थमे पानी के क्षेत्र और गोबर पट्टी जैसे भूखंड की बोली है – हिंदी हिंटरलैंड, बैक वाटर्स, काऊबेल्ट! यदि आपका दायरा बहुत बड़ा है जहां उनके प्रांतों के लोग उठते-बैठते हैं तब यह भी छिपाना व्यावहारिक हो सकता है कि आप बिहार या उत्तर प्रदेश के हैं – आज मुंबई और अनेक भागों में बिहारी शब्द स्वयं एक अपशब्द बन चुका है और उत्तर प्रदेश का रहने वाला अरसे से ‘बीमारू’ प्रांतों में से एक का वासी। विचारों के लेबिलों का दंभ भी इस वर्ग की पहचान है जैसे सेक्युलरिज्म का अर्थ समझें या न समझें हमारे देश के बुध्दिजीवियों के लिए इसका विरुध्दार्थी शब्द सांप्रदायिक, फासीवादी या नाजीवादी है। यह खेमेबाजी भी एक ‘स्टेट्स-सिंबल’ है। आपकी अभिरुचि, आपके चुने होटल, क्लब, बैंडवाले वस्त्र, आवसीय उपनगर – सबकुछ आपके घमंड या वर्ग वैविध्य की निशानी हैं। अगर वह सामान्य है तब आप फिसड्डी हैं। आपको अलग दिखने के लिए सामान्य से हटकर संभ्रांत वर्ग के विशिष्ट चुने नामों पर जाना होगा। पहले एक जमाने में पारिवारिक प्रतिद्वंदिता का मूलाधार आपके बच्चों के स्कू ल कॉलेज भी थे। पहले सिर्फ आई. आई. टी. या आई. आई. एम. का नाम लेकर लोग गर्व से एक अव्यक्त रोब जमाते थे। अब हर जगह यही सुनने को मिलेगा कि मेरे लड़के की वार्षिक फीस 4 लाख रुपये या 5 लाख रुपये हैं। मैंने अपने बच्चों को स्टैनफोर्ड भेजा है, हावर्ड या प्रिंसटन विश्वविद्यालय में भेजा है। आप नीचे दरजे के हैं यदि आपका पुत्र आस्ट्रेलिया या पूर्व सोवियत संघ के अनामी कॉलेज में पढ़ रहा हैं। विशिष्ट श्रेणी में धमाचौकड़ी मार कर सारे पड़ोस की चर्चा का विषय बनाने में आज के उपभोक्ता उत्पादों के आधुनिकता ब्रांडों की भूमिका सबसे बड़ी है। मध्यवर्गीय महत्वाकांक्षा की मिलावट जब से बैंकों के दिए गए ॠण से जुड़ी है, सारा पारिवारिक परिदृश्य उत्तेजना से भर चुका है। कथित संभ्रांत व्यक्ति, मनोरंजन या खेल की दुनिया से जुड़े, सितारे कौन-सी कमीज, घड़ी, चश्में या पेन खरीदते हैं, वे कौन-सा समाचार-पत्र पढ़ते हैं, किस पर्यटन स्थल पर इस वर्ष जा रहे हैं-सभी समाचार-पत्र चटखारे लेकर यही व्यंजन परोस रहे हैं। खास कर अंग्रेजी भाषा को प्रयुक्त करने वाले आज की औपनिवेशिक मानसिकता वाले नए भद्र या संभ्रांत समाज के बदहोश झुंड व्यर्थ के रोबदाब की खोज में मंडी-तंत्र के सहारे अपने झूठे दिखावे के दंभ में ही आत्मसंतुष्टि की तलाश कर रहे हैं। उनका योजना-धर्मी दिमाग जैसे कह रहा हो जितना बटोरते बने, बटोर लो। जो इस नियम का पालन करते हैं, वही आगे निकलता है। आवश्यक हो तो दूसरों के कंधों को कुचलते हुए आगे बढ़ों! लोगों को यह एहसास कराना होगा कि पड़ोसी के पास जो कुछ है, उससे ज्यादा ही उनके पास होना चाहिए। आप भी चाहे छोटे हिस्से ही क्यों न बनो, पर छवि का निर्माण एवं जनसंपर्क के करोड़ों डॉलरों के अमेरिकी उद्योगों के शिकंजों से कब तक बचोगे।

* लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

1 COMMENT

  1. भाईं निगम जी आलेख की शुरुआत तो आपने ठीक ही की थी ,’लोक’ओर भद्र्लोक के बीच
    सीमा रेखा खींचने की जगह अंतिम पेराग्राफ में फिर अनावश्यक नकारात्मकता को प्रतिष्ठित
    कर बैठे

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