काल के प्रवाह में आचार संहिता

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मेरी माँ के पहनावे में सिलेसिलाए वस्त्र शामिल नहीं थे। कमर से साड़ी के नीचे कपड़े का एक टुकड़ा लपेटा रहा करता था। कमर का ऊपरी भाग साड़ी के आँचल में लिपटा एवम् ढका रहा करता था। हमारी दीदी साड़ी के साथ साया और ब्लाउज पहना करती थी। हमारी छोटी बहन दीदी से बीस साल छोटी थी। उसका विवाह चौदह साल की उम्र में हुआ था। विवाह के पहले वह चड्ढी और फ्रॉक और बाद में दीदी की ही तरह साड़ी, साया और ब्लाउज पहनती रही। मेरी बेटी का विवाह तेइस साल की उम्र में हुआ। वह शादी के पहले चड्ढी-फ्रॉक और किशोरावस्था में शलवार सूट पहना करती थी। विवाह के पश्चात् उसके पहनावे में साड़ी, साया और ब्लाउज शामिल हुए, लेकिन शलवार सूट का पहनना भी चलता रहा। मेरी पोती के पहनावे में स्कर्ट के साथ जिन्स, टॉप इत्यादि नवीनतम पोशाक शामिल हैं। ये सबकी सब अपने अपने समय के परिवेश में औसत व्यक्ति हैं, हालाँकि एक दूसरे के परिवेश में अजूबे और अस्वीकार्य । एक औसत परिवार की चार पीढ़ियों की इस सामान्य इतिहास की व्याख्या कैसे की जा सकती है ? इस कालखण्ड में समानान्तर रूप से समाज में परिवर्तन होते रहे। प्रौद्योगिकी, परिवहन राजनीति एवम् शिक्षा के क्षेत्रों में प्रगति ने विभिन्न समाजों के बीच सम्पर्क सूत्रों को जन्म दिया और इन्हें क्रमशः शक्तिशाली बनाया। तस्वीरों की यह श्रृंखला बतलाती है कि समाज के मूल्य-बोध एवम् स्वरूप का निर्द्धारण तत्कालीन उपलब्ध संसाधनों के द्वारा हुआ करता है। जैसे सिलाई मशीन के आविष्कार ने वस्त्रों के स्वरूप में परिवर्तन एवम् विविधता की शुरुआत की। बीसवीं सदी के प्रारम्भिक कालखण्ड से भारतीय समाज में हलचल,अस्थिरता एवम् आलोड़न की शुरुआत हुई। अब तक अलग थलग रहते आए विभिन्न समुदायों की एक दूसरे के साथ अन्तर्क्रिया क्रमशः तीव्रतर होने लग गई। परम्परा में आधुनिकता की रिसावट होने लगी। नए के प्रति भय के साथ नए के प्रति आकर्षण का संघात तीव्रतर होता रहा। विभिन्न समुदायों के मूल्य-बोध मॉडेल के रूप में प्रतिष्ठित होने के लिए एक दूसरे को उपलब्ध होते रहे। विविधता बढ़ने लगी। चार्ल्स डार्विन के प्राकृतिक वरण के सिद्धान्त से हम जानते हैं कि विविधता की उपलब्धता प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया को प्रश्रय देती है और नए का प्रादुर्भाव एवम् प्रतिष्ठा होती है। उपलब्ध विविध विकल्पों में से, जो परिवेश से सर्वाधिक अनुकूलित होते हैं, उन्हें प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया अपनाती है। प्राकृतिक चयन की यह प्रक्रिया समाज के विकास को भी समानान्तर रूप से संचालित करती है। प्रकृति की तरह सामाजिक आचार संहिता में भी अपरिवर्तनीय, स्थिर और शाश्वस्त कुछ भी नहीं हुआ करता। हमारी माँ उस कालखण्ड का प्रतिनिधित्व करती थी जब सिलाई आ तो गई थी,पर प्रतिष्ठित नहीं हुई थी। सिला हुआ कपड़ा पहनाना परम्परा को नकारना जैसा था। दीदी के परिधान में ब्लाउज साया का शामिल होना सहज स्वीकार्य नहीं हुआ था। लोग इसे चरित्र का स्खलन कहते थे। परम्परा से निर्देशित एवम् संचालित समाज नए को सन्देह की दृष्टि से देखता था। उससे डरता था कि समाज के स्थायित्व में दरार पड़ेगी। पहनावे की भूमिका में आवरण के साथ आभरण की भी जुट गया। कालक्रम में पोशाक की व्यक्तित्व की प्रस्तुति में सौन्दर्य संसाधन के रुप में प्रमुख होती गई। बदन को ढकने के साथ उघाड़े जाने का समीकरण पोशाक के स्वरुप का निर्द्धारण करने लग गया। भारत भ्रमण पर आए एक विदेशी पर्यटक ने हैरानी जाहिर करते हुए कहा था, “अजीब है इनका पहनावा, औरतों की टाँगे पूरी तरह ढकी होती हैं, और पुरुषों की उघरी।“ यहाँ एक घटना की चर्चा प्रासंगिक होगी। महात्मा गाँधी के आह्वान पर समाज के विभिन्न तबकों में जिन प्रतिष्ठित लोगों ने असहयोग आन्दोलन में योगदान किया था उनमें पश्चिमी सभ्यता में रंगे पण्डित मोतीलाल नेहरू के थे तो परम्परागत ग्रामीण परिवेश से आए बाबू राजेन्द्र प्रसाद भी थे। चम्पारण में निलहे किसानों के मुकदमे की वकालत में ये दोनो ही एक साथ शामिल थे। फुरसत के एक दिन पँडित मोतीलाल नेहरू ने बाबू राजन्द्र प्रसाद से पूछा, “आप कपड़े क्यों पहनते हैं?” राजेन्द्र बाबू इस अप्रत्याशित सवाल के लिए प्रस्तुत नहीं थे। उन्होंने कहा, “बदन ढकने के लिए।“ मोती लाल जी ने कहा,. “क्या इसे आप सुन्दर तरीके से नहीं पहन सकते ?” व्यक्तित्व को निखारने में आभऱण की की ही तरह पोशाक की भूमिका का संकेत है यह कथोपकथन। व्यवस्था के सुचारू रूप से प्रभावी होने के लिए स्थायित्व की जरूरत होती है। इसलिए व्यवस्था अपने में बदलाव का प्रतिरोध करती है। परिवेश एवम् संसाधनों की उपलब्धता में परिवर्तन के साथ बदलाव के दबाव उत्पन्न होते रहे हैं, इन दबावों का प्रतिरोध भी होता रहा है। अपने परिवेश से आनेवाली नई संवेदनाओं के दबाव से व्यवस्था की प्रतिरोध की प्रवृत्ति तनाव उत्पन्न करती है। तनाव की प्रक्रिया के द्वारा नई संवेदनाएँ अपनी प्रासंगिकता एवम् औचित्य स्थापित करने की चुनौती से जूझती हैं। अन्ततोगत्वा व्यवस्था अपने लचीलेपन के गुण से संवेदित होती है और नए मूल्य-बोध कायम होते हैं। और अन्त में व्यवस्था के मूल्यों में बदलाव प्रतिष्ठित ही नहीं, सम्मानित एवम् सहज भी होते रहे हैं।

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