एक मजबूत अर्थव्यस्था के स्तंभ – कुछ अनछूए पहलू (व्यंग्य)

economyकुंज बिहारी जोशी
सामान्य शब्दों में अर्थव्यवस्था आजीविका कमाने का एक महत्वपूर्ण साधन/व्यवस्था है. किसी देश की अर्थव्यवस्था के निर्माण में उत्पादन, उपभोग, निवेश, विनिमय एवं वितरण सम्बन्धी विभिन्न आर्थिक क्रियाओं का समावेश होता है जिनसे व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु धनोपार्जन करता है. किन्तु किसी देश की अर्थव्यवस्था का दायरा उपरोक्त आर्थिक क्रियाओं तक ही सिमित नहीं होता बल्कि इसे सुदृड बनाये रखने में ऐसे कई छिपे हुए पहलू भी हो सकते हैं जिनका सामान्यतः अर्थशास्त्र में पूर्ण वर्णन नहीं पाया जाता है तथापि ऐसे पहलुओं का ठीक प्रकार से आकलन नहीं हो पाने के कारण कई बार किसी देश में आर्थिक सुधारों के लिए सरकारों द्वारा आवश्यक कड़े कदम उठाये जाने के बावज़ूद वांछित परिणामों की प्राप्ति नहीं हो पाती है. इसके विपरीत कई बार ऐसा भी पाया जाता है कि गंभीर वैश्विक आर्थिक संकट की परिस्थिति में भी किसी देश की अर्थव्यवस्था को सुदृड बनाये रखने के उद्देश्य से सरकारों द्वारा वांछित सुधारों हेतु समय रहते आवश्यक एवं पर्याप्त कदम नहीं उठा पाने के बावज़ूद देशों की अर्थव्यवस्था दीर्घकाल में “भगवान भरोसे” ही ठीक-ठाक चलती रहती है जिसका श्रेय उन सभी सम्बंधित स्तंभों(पक्षों) को जाना चाहिए है जिनका वर्णन निम्नलिखित पहलुओं में समावेश करने का प्रयास किया गया है:
1. अशिक्षित जनता: किसी देश की अधिकांश जनता अशिक्षित होने के कारण वह पारंपरिक आजीविका कमाने के साधनों जैसे खेती, मजदूरी के अतिरिक्त अन्य साधनों से अनभिज्ञ एवं अक्षम होती है एवं इस वजह से देश में मजदूरी की दरें अत्यधिक कम होती है; तत्परिणामस्वरूप उद्योगों को निम्न दरों पर पर्याप्त मजदूर उपलब्ध हो जाते हैं; अंततः उत्पादन की लागत कम होती है. इस प्रकार उद्योगों को अधिक लाभ होता है और वे तेज़ी से फलते-फूलते हैं और दीर्घकाल में देश की सकल उत्पाद दर ऊँची होती है जो कि एक मज़बूत अर्थव्यवस्था की द्योतक है.

2. विस्फोटक जनसँख्या: यह स्थिति अशिक्षा के कारण ही उत्पन्न होती है. किसी देश की जनसँख्या अत्यधिक होने से अर्थव्यवस्था का आकार काफ़ी वृहद होता है एवं इस कारण उस पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव बौने साबित होते हैं. विस्फोटक जनसँख्या के कारण उपभोग अत्यधिक होता है जिससे बाज़ार में उत्पादों की अच्छी मांग बनी रहती है; व्यापार फलता-फूलता है जो कि दीर्घकाल में किसी देश की अर्थव्यवस्था के मज़बूत होने का कारण हो सकता है.

3. गरीबी, भूखमरी एवं बेरोज़गारी: यह स्थिति अशिक्षा एवं विस्फोटक जनसँख्या के कारण उत्पन्न होती है एवं इस पहलू के भी दीर्घकाल में उपरोक्त क्रम सं. 1. एवं 2. के तहत वर्णित मिश्रित परिणाम प्राप्त होते हैं.

4. अनुचित एवं अपर्याप्त नियोजन: किन्हीं देशों की सरकारों द्वारा देश की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए समय रहते उचित एवं पर्याप्त योजनाएं नहीं बना पाने या योजनाओं को ठीक से लागू नहीं कर पाने के कारण देश की अनियंत्रित एवं अशिक्षित जनसँख्या में गरीबी, भूखमरी एवं बेरोज़गारी बढ़ती जाती है जिससे उस देश में मजदूरी की दरें अत्यधिक कम होती हैं, उत्पादन सस्ता होता है एवं जनसँख्या अत्यधिक होने के कारण बाज़ार में वस्तुओं की मांग भी अधिक बनी रहती है. अंततः मांग एवं आपूर्ति की दरें ऊँची होने से देश में उद्योगों एवं व्यापार का तीव्र गति से विकास होता है जिससे दीर्घकाल में किसी देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती हासिल करने में मदद मिलती है.

5. कमज़ोर प्रशासन: किसी देश का प्रशासन यदि कमजोर हो तो उत्पादन में उद्योगों द्वारा सरकारी नियमों की पालना में लापरवाही बरतना आसान हो जाता है जिससे कई उद्योगों के लिए सरकारी नियमों सम्बन्धी बाधाएं समाप्त सी हो जाती हैं और उत्पादन सहज हो जाता है. इस कारण पर्यावरण को काफ़ी नुकसान तो उठाना पड़ता है किन्तु देश में उत्पादन एवं निर्माण क्षेत्र प्रगति के पथ पर तीव्र गति से अनवरत बढ़ते चले जाते हैं और दीर्घकाल में एक मज़बूत अर्थव्यवस्था की स्थापना हो जाती है.

6. सरकारी नियमों में कमियां/खामियां: इस पहलू के भी दीर्घकाल में उपरोक्त क्रम सं. 5. के तहत वर्णित के सामान ही परिणाम प्राप्त होते हैं.

7. वैधानिक शुल्कों एवं करों की चोरी (उत्पादकों/व्यवसायियों द्वारा): इसके बावज़ूद कि किसी देश में सभी जरूरी सरकारी नियम/कानून विद्यमान हों एवं प्रशासन भी सख्त हो, अर्थव्यवस्था अपने तेज़ गति के विकास-मार्ग को खोज ही लेती है. ऐसा उत्पादन एवं बिक्री पर लागू वैधानिक शुल्कों एवं करों की चोरी से संभव हो जाता है! यह एक ऐसा मार्ग है जिस पर विकास (development) रूकने का नाम ही नहीं लेता. किसी भी उत्पादन इकाई की स्थापना/निर्माण की प्रक्रियाओं सम्बंधित आवश्यक नियमों से लेकर निर्मित उत्पाद के विपणन, विक्रय एवं उसके उपभोग की अवस्था तक की सभी क्रियाओं के लिए कुछ सरकारी नियम अवश्य लागू होते हैं एवं ऐसे नियमों की पालना में उद्योगों एवं व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को कुछ खर्चे तथा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोई शुल्क (Fee) या कर (Tax) के रूप में भारी राशि सरकारों को चुकानी होती है जो अंततः उत्पाद की लागत में जुड़ती है जिससे उत्पादन लागत बढ़ जाती है. जब उद्योगपति या व्यवसायी बाज़ार की इस गला-काट प्रतियोगिता में अपने अस्तित्व को बनाये रखने एवं अपने उत्पाद से अधिक लाभ कमाने की मंशा रखते हैं तो उन्हें उत्पादन लागत कम करने की भारी चुनौती का सामना करना पड़ता है. ऐसी परिस्थिति में कुछ उद्योगपतियों या व्यवसायियों के लिए करों की चोरी काफ़ी मददगार साबित हो सकती है. ऐसे उद्यमी कच्चे माल की खरीद से लेकर निर्मित माल के विपणन एवं विक्रय सम्बन्धी विभिन्न प्रक्रियाओं में सरकारी नियमों की अवहेलना तथा उन पर लागू शुल्क एवं करों (Taxes) की चोरी करने के मार्ग ढूंढ कर उत्पादन की लागत को नियंत्रित कर लेते हैं एवं इस प्रकार कर(Tax) की बचत लाभों (Profits) का स्थान ले लेती है; परिणामस्वरूप देश की सरकारों को राजस्व की भारी हानि तो होती है किन्तु चीज़ें सस्ती होती हैं जिससे विक्रय एवं उपभोग बढ़ता है और अंततः थोक एवं खुदरा सूचकांकों में सुधार दृष्टिगत होता है जिससे दीर्घकाल में देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलती है.

8. भ्रष्टाचार: किसी देश में वहाँ के लोगों द्वारा उत्पादन एवं विक्रय पर लागू करों (Taxes) की चोरी करने की बुरी नियत के साथ-साथ यदि सरकारी नुमाइंदों में भ्रष्टाचार भी व्याप्त हो तो “सोने पर सुहागा” ! ऐसी परिस्थिति में निर्माण के लिए ज़रूरी सामग्री, कल-पुर्जों एवं कच्चे माल की खरीद से लेकर उत्पादन, उपभोग, निवेश, विनिमय एवं वितरण सम्बन्धी सभी आर्थिक क्रियाओं का संचालन कम लागत पर अत्यधिक आसान हो जाता है एवं देश का निर्माण एवं व्यापार क्षेत्र अच्छी गति पकड़े रहता है. सरकारी नुमाइंदों के भ्रष्ट होने पर कई बार ऐसा भी संभव हो सकता है कि कुछ प्रतिशत घूस के लिए करोड़ों का ऐसा सामन खरीद लिया जाए जिसकी उन्हें कभी ज़रूरत ही नहीं हो ! इसके अतिरिक्त ऐसे विभागों में यदि कोई पूछने वाला भी नहीं हो कि फलां-फलां सामान किसने ? कब ?? और क्यों ??? खरीदा था तो क्या कहने !! ऐसी परिस्थितियों में उद्यमियों/व्यवसायियों एवं सरकारी नुमाइंदों की क्रय-शक्ति एवं उपभोग में स्ववाभाविक रूप से अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी देखी जा सकती है और वे अपनी सामान्य एवं विलासितापूर्ण जीवन-शैली की व्यक्तिगत ज़रूरतों के लिए बढ़-चढ़कर एवं अनावश्यक खरीददारी भी करते हैं जिससे धन को गतिमान (Mobilization of Funds) बनाये रखने में मदद मिलती है एवं इस प्रकार देश को दीर्घकाल में “व्यापारिक मंदी” का सामना नहीं करना पड़ता.

9. काला धन: यदि किसी देश में आयकर की दरें काफ़ी ऊंची हो तो किसी उद्यमी ही क्या अधिकाँश लोगों को आयकर की चोरी कर भारी बचत की मंशा हो सकती है और इस लालच से कोई भी आयकर की चोरी करने का भरसक प्रयास कर सकता है जिस कारण देश के उद्यमियों एवं आम जनता के पास प्रचुर मात्रा में काला धन जमा हो सकता है जो बड़ी करेंसी जैसे 500 एवं 1000 के नोटों के साथ और भी आसान हो जाता है.. इसके उपरांत सामान्यतः काले धन को किन्हीं ऐसे कार्यों में निवेश करने की मंशा होती है ताकि उन कार्यों से उसे आसानी से सफेद धन में परिवर्तित किया जा सके. रियल एस्टेट सहित निमार्ण क्षेत्र(Manufacturing Sector) काले धन को सफेद करने के लिए काफ़ी उपयुक्त ज़रिया साबित हो सकता है क्योंकि इस क्षेत्र में प्रत्येक मद पर किये गए खर्च के ब्योरे का ठीक से आकलन करना सामान्यतः कठिन होता है. ऐसे में देश में निर्माण क्षेत्र(Manufacturing Sector) में आश्चर्यजनक प्रगति देखी जा सकती है जो दीर्घकाल में अर्थव्यवस्था की मजबूती बनाये रखने में अत्यंत सहायक सिद्ध होती है.

10. कमज़ोर आधारभूत ढांचा: ऐसा भी संभव है कि किन्ही देशों की सरकारें कई दशकों तक स्वतंत्र रूप से एक-छत्र शासन करते हुए भी देश में जरूरी आधारभूत ढांचे (Basic Infrastructure) अर्थात न्यूनतम सार्वजनिक सुविधाएँ/व्यवस्थाएं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़कें, परिवहन, पानी-बिजली की उपलब्धता एवं अन्य जन-सामान्य सुविधाएँ जैसे शौचालय इत्यादि का विकास कर पाने में असफल रहें. ऐसे में जन साधारण की जरूरतों को पूरा करने के लिए कई साहसी लोग/लोगों के समूह उन सुविधाओं का जिम्मा अपने ऊपर लेकर वे स्वयं ही अपने बलबूते पर सम्बंधित सुविधाओं का विकास कर लेते हैं और देश की जनता को मनमानी दरों पर सेवाएं प्रदान करते हैं जिससे जन-सामान्य को सुविधाएँ तो सुलभ होतीं ही हैं बल्कि स्वतः ही देश के बेरोजगारों को नित-नये रोज़गार के अवसर भी उपलब्ध हो जाते हैं; सरकारें राहत में रहतीं हैं और सेवा क्षेत्र में विकास अपने-आप होता रहता है. ऐसी व्यवस्था होने से दीर्घकाल में देश में एक स्वचालित (भगवान-भरोसे) वाली मज़बूत अर्थव्यवस्था का निर्माण होता है जिस पर स्वदेशी तो क्या वैश्विक आर्थिक संकट की परिस्थिति में भी नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है.
उपरोक्त वर्णित सभी सकारात्मक पहलूओं के बावज़ूद एक वाइरस ऐसा है जो किसी देश की अर्थव्यवस्था को चुपचाप ही घुन की तरह खाये जाता है जिसका किसी देश की जनता तो क्या सरकारों को भी पता नहीं चल पाता – वह है “चाइना बाज़ार”. इसके उत्पाद घरेलू(स्वदेशी) उत्पादों की कीमतों की तुलना में अत्यधिक सस्ते होते हैं और दिखने में सुंदर! जिससे घरेलू उत्पाद बिकना बंद हो जाते हैं. परिणाम यह होता है कि देश के निर्माता उद्यमी अपने निर्माण को बंद करके चाइना से खरीदकर विक्रय करने लगते हैं और इस प्रकार व्यापार तो ठीक चलता है किन्तु देश का वस्तु निर्माण क्षेत्र(Commodity Manufacturing Sector) ठप्प पड़ जाता है. ऐसे में स्वदेशी तकनीक के विकास की कल्पना करना एक बेमानी के अतिरिक्त कुछ नहीं क्योंकि देश पूर्ण रूप से एक उपभोक्ता बनकर ही रह जाता है.
ऐसी विषम परिस्थितियों का मुक़ाबला करने के लिए सम्बंधित देशों की सरकारों को एक क्रियाशील एवं सकारात्मक राजनीति के तहत सम्पूर्ण देश में आधारभूत ढाँचे का विकास करने के साथ-साथ अपनी शिक्षा पद्दति, सामाजिक एवं आर्थिक नीतियों तथा विदेश नीति में आवश्यक परिवर्तन करने सम्बन्धी ठोस कदम उठाने की आवश्यकता होती है. करों(Taxes) की चोरी एवं काले धन पर रोक लगाने के लिए सरकारों को कड़े कदम उठाने की ज़रूरत होती है. योजनाएं बनाकर उसे लागू करने के साथ-साथ ऐसी मुहीम चलाने की आवश्यकता होती है जिससे देश की नई पीढ़ी / नव-युवकों के कौशल/प्रतिभाओं(Talent) को पहचानकर उन्हें देश में नये-नये अविष्कार करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके ताकि आवश्यक तकनीकी(Technology) का विकास कर स्वदेश में ही अपनी जरूरतों की अच्छी गुणवत्ता वाली वस्तुओं का निर्माण संभव हो सके. तभी एक देश स्वावलंबी बन सकता है तथा एक “सच्ची मज़बूत अर्थव्यवस्था” का निर्माण संभव है अन्यथा ये “भगवान भरोसे वाली व्यवस्था” और “चाइना बाज़ार वाला वाइरस”…..???
-**: औउम् विष्णुगुप्ताय नमः :**-

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