आओ, अंधेरे से हम लड़ें

mutthiरात

कितनी भी

अंधेरी – घनी क्यों न हो

रात

कोख में

छिपी होती है

उजाले की किरण।

कितना भी तुम क्यों न सताओ

किसी को-

अपने

बच्चे को देख

उभरती है

तुम्हारे चेहरे पर अब भी मुस्कान।

अंधेरा-

नहीं पहचानने

देता है खुद की शक्ल

और

अंधेरे की उपज

तमाम अनबुझी कामनाएं

सुरसा की तरह

फैलाती हैं

अपना मुख।

झांको, देखो

कैसे समायी है

इसमें पीढ़ियां

हम-तुम।

अंधेरे से बचने को

जलायी हमने

तमाम कंदीलें

तमाम

ईसा, बुद्ध, महावीर, मुहम्मद, नानक, गांधी

अब भी दिखा रहे

अंधेरे में भी राह।

सच

अंधेरा बड़ा ही झीना है

थोड़े में ही कट जायेगा

बस

तुम

बच्चों सी प्यारी मुस्कान बांटो

थोड़ी हंसी- थोड़ी खुशी

थोड़ी बातें – थोडे शब्द बांटो।

वाकई

चुप रहना

अंधेरे से भी भयावह होता है।

कहो

कि

बातों से झरते हैं फूल

झरती है रोशनी

बातें उजाला हैं

बातें हैं दिन

आओ

अंधेरे से हम लड़ें

थोड़ी- थोड़ी भी बात करें।

-०-

कमलेश पांडेय

3 COMMENTS

  1. ऎक दिल कॊ छू लॆनॆ वाली रचना जिसमॆ सामाजिक् सरॊकारॊं कॊ दार्शनिक भावॊं मॆ लिपॆटा गया है. बधाई.

  2. बहुत सुन्दर रचना है बधाई।

    रात

    कितनी भी

    अंधेरी – घनी क्यों न हो

    रात

    कोख में

    छिपी होती है

    उजाले की किरण।

  3. एक बेहद खुब्सूरत रचना जिसमे भावनाये बच्चो से कोमल है ……..अतिसुन्दर

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