हास्य-व्यंग्य: भवन निर्माण का कच्चामाल

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भारत देश ऋषि और कृषि प्रधान देश है। जब ऋषियों की फसल कृषि से भी अधिक होने लगी तो मजबूरी में ऋषियों ने भी कृषि कार्य शुरू कर दिया। इस खेती-बाड़ी के चक्कर में न जाने आजतक कितने ऋषि खेत रहे यह शोध का एक पक्ष है, हमारे ऋषियों का। मगर एक दूसरा पक्ष भी अभी सामने आया है यो यह कि हमारे देश के भूगोल निर्माण में ऋषियों के अंग-प्रत्यंग बहुतायत से प्रयोग में लाए जाते थे। हमारे ऋषि-मुनि भवन निर्माण का बहुत ही लोकप्रिय कच्चा माल हुआ करते थे। संपूर्ण देश के भूगोल निर्माण में ऋषियों के शरीर को चूने-गारे की तरह इस्तेमाल में लाए जाने का व्यापक प्रचलन था। इसीलिए तो किसी शायर ने कहा है कि कुछ बात है ऐसी कि मिटती नहीं हस्ती हमारी। शायर ने इसी विशेष बात की ओर इशारा किया है। जिसकी व्याख्या करते हुए वह कहता है कि- ऋषियों के सिर को कच्चे माल की तरह उपयोग करके जो शहर बनाए गए वो आज भी हमारे ऋषियों के बलिदान की गौरव गाता हैं। सिरपुर, सिरसा,शीशगंज, सरगुजा,सरधनाऔर सरकंडा-जैसे विकसित शहरों के अदभुत सभी माडल सिर से ही बने हैं। ये वो दौर था जब ऋषियों के सिर में जूंएं और लीखों के अलावा नदियां भी छिपी रहती थीं। ऋषि का ज़रा भी सिर फिरा कि तड़ से उसने एक नदी बाहर फेंकी। कहा जाता है कि भारतवर्ष के एक ऐसे ही ऋषि के सिर की जटाओं से कोई बहुत बड़ी नदी उचककर बाहर निकली थी। जिसे अंधविश्वासी लोग अपनी मदर की तरह ट्रीट करते शे। मरते समय भी उन्हें इसी नदी का जल चाहिए होता था,चाहे कहीं भी रहते हों। पहले लोग मरने से पहले इसका जल पीने की इच्छा रखते थे। अब इसका जल पीते ही मर जाते हैं। भले ही मरने का कोई इरादा न हो। नदी मदर जो ठहरी। अपनी संतान की इच्छा वो हर तरह से पूरी करती है। कहते हैं कि बड़े-बूढ़े इस नदी को कुछ ज्यादा ही सिर पर चढ़ाए हुए थे। क्योंकि यह निकली भी एक ऋषि के सिर से ही थी। मगर ये बात आज के समझदार बच्चों को बड़ी नागवार गुज़री। और इस नदी का जल कभी सड़ता नहीं है। अंधविश्वासी पुरखों के इस डायलाग ने समझदार बच्चों में एक जुनून भर दिया कि देखें इस नदी का जल कैसे और कब तक नहीं सड़ता है। बच्चों को नदी का यह सितम हजम नहीं हुआ। नदी की इस अकड़ को मिट्टी में मिलाने के लिए वे जी-जान से जुट गए। सारे शहर का और कारखानों का कचरा वे पूरे उत्साह के साथ उसमें फेंकने लगे। कहते हैं एक-ना-एक दिन मेहनत रंग लाती है। समझदार बच्चों की मेहनत भी रंग लाई। नदी का पानी सड़ने की बात छोड़िए पूरी नदी ही इन्होंने सड़ा दी। कड़ी मेहनत और पक्के इरादे ने नदी का घमंड तोड़ दिया। घमंड तो अपने रावण का भी नहीं रहा। फिर ये नदी कहां लगती थी। पानी नहीं सड़ता। अरे अखिर नदी का ही तो पानी था,कोई बिसलेरी वाटर थोड़े ही था। खुशी में वीर नौनिहालों ने हजारों बोतल पेप्सी और कोक पीकर नदी के अभिमान-भंजन का जश्न मनाया। जो आज भी अखंड जारी है। अरे हम भी क्या नदियों की बात ले बैठे। बात तो ऋषि-मुनियों की हो रही थी। हां तो साहब ऋषियों के सिर ही चमत्कारी नहीं थे, उनके बाल भी तिलस्मी हुआ करते थे। इनके केश से ही ऋषिकेश-जैसा शहर प्रकाश में आया। बालटाल शहर का भी बाल से बनने का प्रकरण इतिहास में आता है। हां ये बाल सिर्फ सिर के ही हों ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता है। खैर ऋषियों के सिर और बाल ही नगर बसाने में उपयोग किये जाते हों यह जरूरी नहीं था। उस वक्त की कंस्ट्रक्शन कंपनियां ऋषियों के शरीर के अन्य अंग-प्रत्यंगों का भी कच्चेमाल की तरह खुल कर प्रयोग किया करती थीं। ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि दुकान और मकान बनाने में ही नहीं पूरा शहर बसाने में कान का उपयोग बहुतायत में होता था। पूरा कानपुर शहर ही कानों से बिल्डरों ने बना डाला था। कानपुर शहर के निर्माण के समय में कानों की खपत इतनी बढ़ गई थी कि कान की तस्करी शुरू हो गई थी। डाकू कान काटते और ऊंची रेट पर भवननिर्माताओं को बेच देते। पता चला है कि उन दिनों कंस्ट्रक्शन कंपनियों को शोर्टफार्म में कंस कहते थे। और मथुरा की एक कंपनी तो तब बड़ी ही मशहूर थी। उस कंस का आतंक इतना था कि बड़े-बड़े कानवाले तो घर से निकलते ही नहीं थे,निकलते भी थे तो कानों को बड़ी तरकीब से छुपा-छुपाकर। कान के उपयोग के अलावा कुछ कंस्ट्रक्शन कंपनियां नाक और नाक के अलावा आंख,दांत और हाथों को भी सीमेंट-गारे की जगह निर्माण के लिए कच्चे माल की तरह उपयोग किया करती थीं। कहते हैं कि नाकों की बदौलत-नागपुर, हाथों के मिर्माण-उपयोग से हस्तिनापुर,चारभुजाजी और भुज जैसे शहर बसाए गए। कहा तो यह भी जाता हैं कि शाहजहां के मन में भी हाथों के कच्चेमाल से एक शहर बनाने का फितूर सवार हो गया था और उसने ताजमहल बनानेवाले कारीगरों के हाथ कटवा-कटवाकर अपने महत्वाकांक्षी विचार को अमली जामा पहनाना शुरू कर दिया था। मगर उसके दुष्ट बेटे ने इससे पहले कि वो कोई हाथनगर या दस्तानाबाद बसा पाता, उसे पकड़ कर जेल में डाल दिया। सोचिए अगर शाहजहां को कैद में नहीं डाला जाता तो ताजमहल की तरह एक इमारत नहीं, पूरा एक खूबसूरत शहर भी हमारे देश को मिल जाता। औरंगजेब की मूर्खता से कितनी बड़ी राष्ट्रीय क्षति हुई। जरा सोचिए. अब चाहे करनाल शहर बसा लो या पूरा करनाटक प्रांत मगर क्या ये सब मिलकर भी उस हाथपुर या दस्तानाबाद का मुकाबला कर सकते हैं जो शाहजहां बनवाने जा रहा था। खैर जो नहीं बना उस पर क्या आंसू बहाना। हमारे कंस्ट्रक्शनशाहों ने जहां नैन से नैनवा और नैनीताल बनवाए, वहीं दांत से दंतेवाड़ा बसाया जो आज भी पूरे आन-बान-शान से सरकार को नक्सली दांत दिखा रहा है। इतना ही नहीं भवन निर्माण कला उस समय इतनी विकसित हो चुकी थी कि भौंह-जैसी सूक्ष्म वस्तु का भवननिर्माण में उपयोगकर बिल्डरों ने भौंगांव और भौंपुरा बसा के विश्व को चकित कर दिया। एक कंस्ट्रक्शन कंपनी ने तो नाभियों से ही एक शहर बसा दिया जो नाभा कहलाया। भवन निर्माण की इस गलाकाट प्रतियोगिता में एक क्स्ट्रक्शन कंपनी ने अंग-प्रत्यंगों के प्रचलन को दौर में खाल का कच्चेमाल की तरह उपयोग कर कद्दूखाल और चंग्यूखाल-जैसे नगर बसाकर सबको चमत्कृत कर डाला था। एक कंस्ट्रक्शन कंपनी ने कच्चेमाल की तरह घुटनों का इस्तेमाल कर-घुटमलपुर और बगलों का इस्तेमाल कर बंगलौर शहर बसा दिए। मानवों के अंग भवननिर्माण के कच्चेमाल के अलावा भवन निर्माण में प्रयुक्त औजारों के रूप में उपयोग होने का भी उल्लेख मिलता है। पैर को फांवड़े की जगह इस्तेमाल करके एक कंपनी ने पटना में कुंआ खोद कर दिखाया था। जो कदम कुआं के नाम से मशहूर हुआ। जयप्रकाश नारायण नामक किसी एक नेता को यह कुआं इतना पसंद आया कि वो कदम कुएं में ही जीवन पर्यंत रहते रहे। कदम यानी पैर की हड्डी के अलावा शरीर की और भी हड्डियों से बहुमूल्य चीजें बनाई जाती थीं। आदमी की हड्डियों से बने खिलौने हाथीदांत के खिलौनों से ज्यादा मजबूत माने जाते थे। देवराज इंद्र को जब वृत्तासुर दैत्य ने हराकर भगा दिया तो उन्होंने दधीचि ऋषि की हड्डियों से वज्र बनाकर उसकी युद्ध में ऐसी-तैसी कर दी थी। वज्र नामक हथियार एक प्रकार की गदा थी। गदा की उन दिनों बड़ी फैशन थी। हनुमानजी और विष्णु भगवान से लेकर भीम और दुर्योधन तक को गदा का बड़ा क्रेज था। जिसके पास गदा होती थी वह उसके सही प्रयोग के लिए शत्रु ढूंढने में जुट जाता था। एक बार तो ऐसा हुआ कि इंद्र ने जब वज्र नामक गदा प्राप्त कर ली तो उसके प्रयोग के लिए वह इतना बेताब हो गया कि वृत्तासुर के मिलने में देरी हो जाने पर उसने इसका उपयोग हनुमानजी पर ही कर डाला और उनकी थोड़ी यानी कि चिन तोड़ डाली। चिन के टूटने से हड्डियों का इतना जखीरा निकल पड़ा कि चिन की इन हड्डियों से एक कंस्ट्रक्शन कंपनी ने चिन्नई शहर ही बसा डाला। जो बिगड़कर या सुधर कर चैन्नई हो गया। इतने बड़े चिन के मलबे से कंस्ट्रक्शन कंपनियों की तो चांदी हो गई। इन्होंने धड़ाधड़ कोचिन, सियाचिन से लेकर फार्मोसा चीन और कम्युनिस्ट चीन तक बना डाले। लोकप्रचलन में मजदूर बगैरा चिन को चीन कहने लगे। वैसे शुद्ध चिन ही है। खैर हमें भाषा के मुद्दे पर जाकर क्या करना है। आजकल इंडिया में हनुमानजी की खूब पूजा होती है,पहले भी होती थी। वो ौर चीन भी हनुमानजी की चिन की हड्डी से बना है,इसलिए हम भारतीयों ने हिंदी-चीनी भआई-भाई का उद्घोष करके सारे जहां को बता दिया कि इंडिया-चीन भाई हैं। और वो भआई क्या जो अपने भाई की जायदाद न हड़प ले। चीन ने अपने भआई होने का फ्रज पूरी तरह अदा किया और समय-समय पर करता भी रहता है ताति सनद रहे कि ये दो भाईयों का मामला है,इसमें किसी तीसरे को टांग अड़ाने की जरूरत वहीं है। फेमिली डिस्प्यूट किस परिवार में नहीं होते। हर बड़ी फेमिली में इसका रिवाज है। और इंडिया में तो पहले भी कौरव-पांडवों का बड़ा तगड़ा फेमिली डिस्प्यूट हो चुका है। उनकी तो आपस में झगड़ने की पुरानी आदत है। खैर जिन हनुमानजी की चिन से चीन नामक देश का कंस्ट्रक्शन हमारी कंपनियों ने कर दिया था वो हनुमानजी को भी अपनी गदा यूज करने का बहुत ज्यादा शौक था। जहां मौका मिला वहीं हाथ रमा कर लेते थे। एक बार तो इसका यूज करने के लिए वे लंका तक फ्लाई कर गए थे। और वहां के किंग रावण को ललकार आए थे। ये पंगा उन दिनों बड़ी सुर्खियों में रहा था। जब हड्डियों का क्स्ट्रक्शन में यूज करना आउटडेटेड हो गया तो इन बिल्डरों ने गणेश नामक एक सुविल इंजीनियर को कुछ नयी डिजायन बनाने का आफर दिया। इन गणेशजी का पेट बहुत बड़ा था,इसलिए फ्रैंड सर्किल में लोग इन्हें लंबोदर भी कहते थे। बड़े उदर के इस इंजीनियर के प्रताप से ही बड़ोदरा नामक एक शहर प्रकाश में आय़ा। ये बड़ोदरा शहर आज भी गुजरात में कहीं है,ऐसा इतिहासकार दावा करते हैं। इस कुशल इंजीनियर ने भवन निर्माण की दुनिया में कूल्हे से कूल्हापुर (जो बिगड़कर आगे कोल्हापुर कहलाया) और कटि से कालिकट बनाकर तहलका मचा दिया। इस इंजीनियर की आज भी इंडिया में बड़ी रिसपैक्ट है। लोग फोटो और मूर्तियां लगाकर गाना गाते और डांस करते हुए उसकी बड़ी जोर से पूजा करते हैं। गणेश टाइप ऐसे इक्का-दुक्का ही बिल्डर थे जो देवता कास्ट के थे वर्ना कंस्ट्रक्शन के इस कारोबार में दैत्यों की ही मोनोपोली थी जो कुछ प्रतिवादों को छोड़कर आज भी बरकरार है। देवता वंचित क्लास के लोग हुआ करते थे जो आश्रमें में जिन्हें आजकी डेट में झुग्गी-झौंपड़ी कहते हैं,निवास करते थे। आज भी कर रहे हैं। शहर बसाने के लिए इनका आश्रम तब भी तोड़े जाते थे आज भी तोड़े जाते हैं। कंस्ट्रक्शन की ये शाश्वत सनातन परंपरा है। जो आज भी जारी है।

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  1. हास्य-व्यंग्य: भवन निर्माण का कच्चामाल – by – पंडित सुरेश नीरव

    पंडितपुर इंडिया के किस प्रान्त में पडता है ? इस पुर का नामकरण पोंगा सुरेश के नाम पर किया गया है ?

    – अनिल सहगल –

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