पंडित सुरेश नीरव
नृत्य हमारी परंपरा है। यक्ष,किन्नर,मरुत,देवी-देवता और-तो और भूत-पिशाच तक की नाचना एक प्रबल-प्रचंड हॉबी है। देवराज इंद्र के दरबार में तो नृत्य के अलवा भी कोई काम होता हो इसकी पुख्ता जानकारी कहीं नहीं मिलती। चौबीस घंटे बस नृत्य का अखंड आयोजन होता रहता है। मेनका,तिलोत्तमा,रंभा,संभा और उर्वशी-जैसी तमाम नर्तकियों की शिफ्टें बदलती रहती हैं। एक थके तो दूसरी मौजूद। नच वलिए का 24 घंटे का लाइव टेलीकास्ट इंद्रलोक से होता रहता है। इंद्र का डांस डिपार्टमेंट बड़ा तगड़ा है। पल-पल की खबर रहती है,इसे। इधऱ किसी ऋषि ने कठोर तपस्या की उधर तपस्या भंग करने तड़ से एक अदद अप्सरा इंद्र ने उसके पास पहुंचाई। थोड़े देर में ही अप्सरा आकर सुखद समाचार सुनाती है कि- मारा गया ब्रह्मचारी। देवताओं द्वारा अप्सरा पर पुष्पवर्षा होने लगती है। सफलता पूर्वक इतना बड़ा पुण्य कार्य करने के बाद जो वो लौटी है। और नाच का कार्यक्रम फिर जोर-शोर से शुरू हो जाता है। देवतागण भी बस नाचने का मौका ही ढूंढ़ते रहते हैं। यदि विष्णु मोहनी का रूप धर के नाचते हैं तो महादेवजी मस्ती में भरतनाट्यम और गुस्से में तांडव नामक नृत्य करते हैं। कृष्ण छछियाभर छाछ पर नाच जाते हैं,तो कही कालिया के फन पर डांस करते हैं। रास रचाने से पहले भी अगले को डांस की जरूरत पड़ती रही है। यानी हर देवी-देवता को फड़कता नृत्य होना मांगता। नृत्य के प्रति जब इन प्रजातियों में इतना क्रेज है तो आदमी भला कैसे बच सकरता है। इसलिए अगर आदिवासी है तो जंगल में नाच रहा है। पढ़ा-लिखा है तो क्लब में नाच रहा है। हीरो है तो फिल्मों में नाच रहा है। बसंती है तो जबर गब्बर के सामने नाच रही है। बाराती है तो बीच चौराहे पर नाच रहे हैं। बेचारा-बेसहारा पति है तो पत्नी के इशारे पर घर में नाच रहा है। कहीं पद घुंघरू बांध मीरा नाच रही है। तो कहीं मधुवन में राधिका नाच रही है। और-तो-और अकेले बैठे-बिठाए भी मन- नाचे मन मोरा मगन तिक-धा धिक-धिक हो जाता है। यह हमारा ही देश है जहां देवता और आदमी की बात छोड़िए पशु-पक्षी तक नृत्य-प्रिय हैं। जंगल में मोर नाचा किसने देखा। भले ही न देखा हो किसी ने मोर को नाचते हुए मगर यह तय है कि अगर मोर सचमुच का मोर है तो वह किसी के बिना वंसमोर कहे भी जरूर नाचा होगा। अपुन के देश में मदारी के इशारे पर भालू और बंदर तथा सपेरे की बीन पर बिना पांव के सांप तक नाचता है। कुछ हुनरमंद तो उंगलियों पर भी नृत्य कर लेते हैं। तब ऐसे नृत्य-प्रधान देश में कब किसके पांव कहां और कितने थिरक जाएं कौन कह सकता है। पांव कहां फर्क करते हैं ब्रजघाट में और राजघाट में। अब देखिए ना हमारी सुषमा बहन गईं थी राजघाट पर कालेधन के खिलाफ आयोजित एक धरने में। मगर अशन के सुहाने,दिलकश और मनोरंजक मंज़र को देखकर बरबस ही उनके पांव थिरक उठे। नाचने में काहे की शर्म। नृत्य तो हमारी परंपरा है। बहनजी ने ऐसे ठुमके लगाए कि तीसरी कसम की हीराबाई पानी भरे। उस पर नाच का जादू ऐसा कि दो ठुमकों में ही कालेधन का मन सफेद हो गया। और भ्रष्टाचार देश से ऐसे गायब हो गया जैसे मुंबई से मोस्टवांटेड दाउद। इसे कहते हैं इच्छा शक्ति। जिस इच्छा शक्ति के अभाव में यह निकम्मी सरकार इतने सालों से देश को भ्रष्टाचार और कालाधन से निजात नहीं दिला सकी उसे मैडम ने चंद ठुमकों में ही जिलावतन कर दिया। सच तो है-.नाच को आंच कहां।
भाजपा के नेतृत्व को ऐसी ऊल-जलूल हरकतें करते देख कर कोफ्त होती है कि आखिर ये लोग अपनी इन करतूतों को जन-मानस पर पड़ने वाले व्यापक प्रभाव का आकलन करने में इतना असमर्थ क्यों हैं? सच तो ये है कि सुषमा स्वराज को कुछ बातें सोनिया गांधी से सीखनी चाहियें – खासकर ये कि अपने आचरण एवं पब्लिक इमेज में गरिमा का प्रदर्शन कैसे किया जाता है। मैं ये नहीं कहता कि सुषमा स्वराज गरिमामयी महिला नहीं हैं – पर एक सर्व स्वीकार्य नेता बनने के लिये उनको अपने आचरण को लेकर और विचार-मंथन करना होगा। निरीह बच्चों, महिलाओं, बुज़ुर्गों पर हुए लाठीचार्ज के विरोध में राजघाट पर आयोजित सत्याग्रह में नाचना फुहड़पने का परिचायक था, इससे अधिक कुछ भी नहीं । फिर अपने आप को सही सिद्ध करने का प्रयास करना घोर निराशाजनक है।
जहां तक इस प्रस्तुति का प्रश्न है, बहुत मनोरंजक व नोलेज-वर्द्धक है। विद्वान लेखक-कवि का हार्दिक अभिनन्दन ।
प्रवक्ता बहुत ही अच्छा साइड है इसमे समस्त जानकारी है आईएस स्टुडेंट के लिए भी सहयोगी है
बहुत ही उम्दा प्रस्तुति के लिए आपको और प्रवक्ता को धन्यवाद…….