-पंडित सुरेश नीरव
जी हां जनाब बात ही है ये रोने की। कि ऐसी लागी नजर कुटिल जादू-टोने की। कि हमारा देश जो कभी चिड़या थी सोने की,उसे डकार गया उल्लू राजनीति का और अब दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ती, उस सुनहरी चिड़िया की निशानी। अब तो गांव,शहर, प्रदेश में,संपूर्ण देश के परिवेश में भाजपा,सपा,बसपा या कांग्रेस में यत्र-तत्र-सर्वत्र सब जगह उल्लुओं का ही गुनगान है क्योंकि सत्ता की लक्ष्मी आजकल इन्हीं पर मेहरबान है। इसलिए ही इनकी एक जेब में जनमत और दूसरी जेब में संविधान है। उल्लू ही आज पार्टी सुप्रीमो है,पार्टी हाईकमान है। चिड़िया को भूल जाओ, उल्लू की खिदमत में खड़ा आज पूरा हिंदुस्तान है। उसकी नजर ज़रा टेढ़ी हुई कि रौनक अफरोज़ गुलिस्तान भी हो जाता वीरान है। इस उल्लू के तुफैल से ही आबाद हिंदुस्तान का हर श्मशान है। आजादी से पहले,गुलामी के दरख्त में बनी कायरता की कोटर में ये उल्लू चुपचाप दुबके बैठे रहे क्योंकि उल्लू होकर भी ये वाकई उल्लू नहीं थे। देशभक्तों को इन उल्लुओं ने हमेशा उल्लू माना जो कि राष्ट्राभिमान के कारण अंग्रेज सरकार के आगे टेढ़े हो जाने के कारण अपना उल्लू सीधा नहीं कर पाए। जो दर-दर जान लेकर भटकते रहे और वंदेमातरम कहकर फांसी के फंदों पर लटकते रहे। और जो आजादी के बाद बचे रहे गए, तो वे सपरिवार अपमान और उपेक्षा का जहर गटकते रहे। उल्लू समझदार थे,उन्हें मालुम था कि उलुल अल्बाब,वतनपरस्त,आजादी के ये परवाने उल्क की उल्फत में मुल्क को आजाद कराने के बाद भी उसूलों और उलूलों के कारण बेचारे उल्लू ही बने रहेंगे। इसलिए यह तो तय हो गया कि आदमी,अच्छा-खासा आदमी होने के बावजूद उल्लू ही बनना चाहता है। अब इसमें भी आदमी की दो नस्लें हैं- एक जो उल्लू बनाती है और दूसरी जो उल्लू बनती है। अब जो पहले से ही उल्लू है उसे कौन उल्लू बना सकता है। वह तो पैदाइशी उल्लू है। हां दूसरों को उल्लू बनाने का महत्वपूर्ण काम उसे करना था,इसलिए आजादी के बाद उल्लू अपने विश्वस्त उलूकों के साथ अपने घोंसलों से बाहर आए। वातावरण भी उनके अनुकूल था। आदर्श और त्याग के बियाबान सन्नाटे में,बस भ्रष्टाचार के ही उल्लू बोल रहे थे। और भविष्य का नया अध्याय खोल रहे थे। इस उल्लासी परिवेश में,उल्लापी उल्कुंठ से उल्लीड़,अपने उल्लेखनीय उल्लुत्व के साथ, भारतीय जनमानस में विराट उल्लाप करते हुए,अपना समुदाय बढ़ाने के लिए उल्लू चहुं ओर सक्रिय हो गए। काठ के उल्लुओं ने उन्हें अपना मसीहा,नेता और मार्गदर्शक बनाया। कृतज्ञ उल्लुओं ने महत्वपूर्ण पदों पर अपने पट्ठे तैनात कर दिए। इन पट्ठों ने भी धुंआधार प्रचार कर के अपने अग्रज उल्लुओं को आफताबे हिंद बना दिया। कंकड़ का ऐसा भैरंट प्रचार हुआ कि इसके आगे हिमालय राई नज़र आने लगा। अमर शहीदों के बलिदानों को इनके दिव्य और भव्य कारनामों के आगे ऐसे प्रस्तुत किया गया जैसे सूरज के आगे सिगरेट लाइटर। जैसे-जैसे उल्लू-संस्कृति का वर्चस्व बढ़ा, रोशनी को देशद्रोही सिद्ध करने की मशक्कत तेज़ होती गई। तमसोमाज्योतिर्गमय को पलटकर ज्योतिर्मातमासोगमय कर दिया गया। यानी कि उजाले से अंधेरे की ओर। अँधेरा जिसके साए में आज राष्ट्रीय महत्व के सारे काम होते हैं। मसलन-घोटाला,स्केंडल,स्कैम। अफसर,स्टेनो और मैम।सभी प्रकार का काला चिंतन,सांवले अँधेरे और सलौने बदन की रेशमी गुनगुनाई में ही अब संपन्न होता है। संस्कृति के अब मूल्य बदल रहे हैं। शर्मो-हया की ऋषिकन्याएं मल्टीनेशनल ग्लेमर से लैस कालगर्लों के आगे वैसी ही हैं, जैसे डालर के आगे हमारी चवन्नी। अब ब्रा और बिकनी में ही जवानी इठलाती है। और कस्बाई मर्यादा को थम्सअपवाली स्टाइल में अंगूठा दिखाती है। फैशन फरोश उल्लुओं ने सामाजिक मूल्यों की परिभआषा बदल डाली हैं। आज जिस कन्या की सैंडिल की जितनी ऊंची हील है,वह उतनी ही सुशील है। दफ्तर में आफीशियल ब्रेक के बाद,महत्वपूर्ण संदर्भों में बास के साथ हैप्पी मोमेंट्स बिताती है,वह उतना ही ज्यादा इंक्रीमेंट पाती है। बास स्टेनो को उल्लू बनाता है, स्टेनो बास को उल्लू बनाती है। घर की किसे परवाह है,माडर्न लड़की घर नहीं, आजकल दफ्तर बसाती है। बास भी भाई कमाल है,बुढ़ापे में भी टमाटर की तरह लाल है। समाज में उसी की इज्जत हाई है,जिसके पास जितनी काली कमाई है। प्रशासनिक मुहल्लों में आज उसी का जलबो-जलाल है,जो राजनीति का जितना ज्यादा घुटा हुआ दलाल है। जो राजनीति में नहीं घुस पाया, उसे इसी बात का गहरा मलाल है। नेता के सामने जो अच्छी तरह दुम हिसा सके, वही दमदार अधिकारी है। जिसकी रीढ़ की हड्डी नेता के सामने ऐसी हो जाए,जैसे धूप में कुल्फी, उतनी ही खासियत होती है एक अधिकारी के कुल की। वाओ..शक्ल कौए की, और कंपनी बलबुल की। आज राजनीति में उलूकत्व और कौअत्व की क्वालिटी में एक साझा समझ कायम हो जाती है तो सरकार बड़े आराम से चलती है,वरना फिर सारी जनता की ही गलती है। ज़रा सोचिए। आखिर दिन-रात उल्लू और कौए लाल बत्तियों की गाड़ी में किसके भले के लिए दौड़ रहे हैं। ये वी.आई.पी. गाड़ियां,नाना प्रकार की दाढ़ियां और विदेशी पर्फ्यूम से महकती साड़ियां सभी चिंतित हैं कि कैसे भी बेचारी जमता का भला हो। अभी-अभी एक कागनाथ जरूरी फाइल और फाइलवाली के साथ उल्लूप्रसाद की दरबार में हाजिरी लगाने पहुंचे हैं। फाइळ झपटकर उल्लूप्रसादजी ने गोपनीय विमर्श के लिए फाइलवाली को कैबिन में बुला लिया है। दोनों स्पर्श और विमर्श में डूब रहे हैं। बाहर बैठे कागनाथजी रफ्ता-रफ्ता ऊब रहे हैं। अचानक उनके दिमाग में घुसपैठ की एक बात ने, कि उल्लू प्रसाद क्यों सक्रिय होते हैं सिर्फ रात में। दिन में तो बेचारे उल्लू प्रसाद सिर्फ चुनाव के दिनों में ही जगाए जाते हैं और इसके लिए इनके चमचे क्षेत्रियाता की ढोलक पर जातिवाद का कोरस गाते हैं। आजकल उलूकराज उर्फ उल्लू प्रसाद का ही कद ग्रेट है क्योंकि राजनैतिक जीव-जंतुओं में सबसे बड़ा इनका ही पेट है। पेट क्या है पूरा इंडिया गेट है। सामान्य दिनों में (चुनाव को छोड़कर) उल्लू प्रसाद दिन का समय उदघाटन में गुजारते हैं। दिन में पाषाण प्रतिमाओं के और रात में जीवंत प्रतिमाओं के आवरण उतारते हैं। इस समय भी वे जन सेवा की भावना से लबालब ओत-प्रोत होकर ,एक अत्यंत परम प्राइवेट प्रक्रिया द्वारा,सार्वजविक समस्या को सुलझाने के लिए,शराब और शबाब के बीच गठबंधन कायम करने में जुटे हैं। उलूकराज का दृढ़ मत है कि भारत कभी सोने की चिड़िया हुआ करता था, आज उसकी ये दुर्दशा इसलिए हुई है क्योंकि अतीत में इसने उल्लुओं को कभी गंभीरता से नहीं लिया। आज की बात और है। वेद-पुराण गवाह हैं कि पारसमणि सिर्फ उल्लुओं के ही घोंसलों में ही हुआ करती थी। उल्लू अपनी पारसमणि से जिस चिड़िया को छू देते वही चिड़िया सोने की हो जाती थी। इसलिए तब यह देश सोने की चिड़िया नहीं सोने की चिड़ियाओंवाला देश हुआ करता था। आज जिन सोणी-सोणी चिड़ियाओं को ये बात समझ में आ गई है वह सोने की होने के लिए निःसंकोच उल्लुओं के पास पहुंच रही हैं।
आखिर लक्ष्मी का वाहन है- उल्लू। लक्ष्मी तक पहुचने के लिए उल्लू को सिद्ध करना आवश्यक रूप से जरूरी है। हम सभी की ये परंपरागत मजबूरी है। तंत्र साधना में उल्लू का बड़ा महत्व है और प्रजातंत्र में तो और भी ज्यादा। अरे इन उल्लुओं को मक्खन लगाए बिना,लक्ष्मी तक पहुंच जाने की अवैज्ञानिक सोच रखनेवालों को क्या कहें-काठ का उल्लू। भौंदू. या झक्की। ये जिंदगी में कैसे कर पाएंगे तरक्की। अरे चाहे खेत हो या खदान, मजदूर हो या किसान,गरीब हो या धनवान, सरकार हो या संस्थान सभी कर रहे हैं उलूकराज का सम्मान। आज प्रतिभाएं बिकती नहीं हैं हाफ रेट में। सब गईं उल्लू के पेट में। इसलिए आज यदि आप होना चाहते हैं कामयाब तो पूरे ज़ोर से कहिए- उल्लुं शरणं गच्छामि…।
हास्य-व्यंग्य/उल्लुं शरणं गच्छामि – by – पंडित सुरेश नीरव
अपने नाम से पहले “पंडित” क्यों लिखा, उल्लुं शरणं गच्छामि – ज्योतिर्मातमासोगमय
– अनिल सहगल –