चलो, कुछ समाजसेवा ही हो जाए

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विजय कुमार

हर दिन मिलने वाले शर्मा जी पिछले एक सप्ताह से नहीं मिले, तो मैंने फोन मिलाया। पता लगा कि वे हैं तो नगर में ही; पर जरा व्यस्त हैं। खैर, दो दिन बाद उनके दर्शन हो ही गये।

– क्या बात है शर्मा जी, इतनी व्यस्तता ठीक नहीं है कि मित्रों को ही भूल जाओ ?

– बात तो तुम्हारी ठीक है वर्मा; बस कुछ दिन की बात है। जरा अखाड़ा जम जाए और काम चालू हो जाए, तो फिर फुरसत हो जाएगी।

– पर शर्मा जी, कैसा अखाड़ा, कैसा काम; कोई दंगल कराने का विचार है क्या ?

– अरे नहीं, वो अपने बचपन का साथी है न आर.पी ?

– कौन आर.पी.. ?

– आर.पी यानि रघुवीर प्रसाद, जिसे हम लोग रग्घू कहते थे।

– हां, हां; सेठ मनोहर प्रसाद के लड़के को भला कैसे भूल सकते हैं; सुना है इन दिनों वह बड़ा आदमी हो गया है ?

– हां, उसकी फैक्ट्री अच्छी चल रही है। रियल प्रापर्टी में भी उसकी किस्मत अच्छी रही, और अब तो वह एक बहुमंजिला कालोनी बना रहा है। लखपति तो वह पहले से ही था; पर शादी के बाद करोड़पति और अब अरबपति हो चुका है। उंगलियांे सहित पूरा हाथ घी में हैं और सिर कड़ाही में।

– पर उसका तुम्हारी व्यस्तता से क्या मतलब है ?

– हुआ यह कि पिछले दिनों वह एक कार्यक्रम में मिल गया। बोला कि पैसा तो भगवान और सरकारी अफसरों की कृपा से खूब कमा लिया है। अब इच्छा कुछ समाजसेवा करने की है।

– अच्छा फिर.. ?

– इसके लिए हम लोगों ने एक एन.जी.ओ बनाया है। इसके माध्यम से अब समाजसेवा करेंगे।

– तो शर्मा जी, आप भी उसमें हैं ?

– हां, मैं तो हूं ही। असल में आर.पी ने कहा कि पैसा तो मैं लगा दूंगा; पर कोई समय देने वाला व्यक्ति चाहिए।

– तो अंधे और लंगड़े की तरह उसके पास पैसा था और आपके पास समय। इसलिए बात बन गयी ?

– बिल्कुल ठीक समझे तुम वर्मा। आर.पी उस संस्था का अध्यक्ष है और मैं सचिव। कुछ अवकाश प्राप्त बुद्धिजीवी, शोध छात्र और पत्रकार जैसे लोग भी जोड़ लिये हैं। उसी के पंजीकरण के लिए भागदौड़ कर रहा था।

– तो ये समाजसेवा का अखाड़ा है या खोमचा ?

– तुम कुछ भी कहो; पर आर.पी का पेट पैसे से लगभग भर ही गया है। इसलिए अब उसकी प्रसिद्धि की भूख जाग गयी है। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलन के बाद मीडिया वाले भी इन आंदोलनों को काफी महत्व देने लगे हैं। असल में यह भी एक नया फैशन जैसा ही है। इसलिए…

– तो तुम भी इसमें लगे हो ?

– हां, उसने मुझे चालक सहित एक कार, लैपटॉप और मोबाइल दे दिया है। उसके कहे अनुसार मैं करता रहता हूं। संस्था का पंजीकरण होते ही हम एक गोष्ठी करेंगे। इस तरह काम चालू हो जाएगा।

– पर शर्मा जी, विचार गोष्ठियों या सेमिनारों में आयेगा कौन ?

– देखो वर्मा, ये दिल्ली है। यहां न वक्ताओं की कमी है, न श्रोताओं की। ऐसे कार्यक्रमों के समाचार छापने और दूरदर्शन पर दिखाने के लिए पत्रकार भी सब तरफ घूमते फिरते हैं। आपकी जेब में तो पैसा होना चाहिए। कार्यक्रम सड़क पर करना हो या वातानुकूलित सभागार में, उसे सफल बनाने का पूरा प्रबंध दिल्ली में हो जाता है। यहां तक कि यदि शासन के विरोध में प्रदर्शन करना हो, तो नारे लगाने से लेकर डंडे खाने वाले तक मिल जाते हैं।

– अच्छा.. ?

– जी हां। कुछ वर्तमान और कुछ पूर्व अधिकारियों से बात हो गयी है। एक-दो मंत्री भी संपर्क में हैं। ये आएंगे, तो मीडिया आयेगा ही। इसलिए हमारे कार्यक्रम तो सफल होने ही हैं। जब सफल होंगे, तो समाचार पत्रों और दूरदर्शन पर हमारे चेहरे भी दिखाई देंगे।

– यानि कुछ भला समाज का, और बाकी तुम्हारा ?

– तुम कुछ भी कहो; पर समाजसेवा का अर्थ जान देना थोड़े ही है। हम अन्ना हजारे या रामदेव बाबा की तरह नहीं हैं, जो अनशन पर बैठ जाएं। हम तो पांच दिन अपना काम करेंगे और शनिवार-रविवार की छुट्टी में समाजसेवा।

– यानि आप ‘वीकेंड समाजसेवी’ हैं ?

– पहली बार तुम बात को बिल्कुल ठीक समझे हो वर्मा। हम न खुद कष्ट उठाएंगे और न किसी को कष्ट देंगे। हमारा काम तो थिंक टैंक जैसा है। जब मौका मिलेगा, थोड़ा सा थिंक लेंगे।

– तो आपकी अगली गोष्ठी किस विषय पर है ?

– विषय तो कोई भी रख लेंगे। सूचना का अधिकार, जल का व्यापार, चुनाव में सुधार, शिक्षा का प्रसार, आतंक का विस्तार, युवाओं का बदलता व्यवहार, सरकार में भ्रष्टाचार..जैसे सैकड़ों विषय हैं। पिछले 50 साल से बुद्धिजीवी इन पर सिर मार रहे हैं और अगले 50 साल तक मारते रहेंगे।

– तो शर्मा जी, यह मानसिक व्यायाम आप भी करेंगे ?

– और क्या ? थोड़ा बोलेंगे, थोड़ा सुनेंगे, खूब सारी ताली बजाएंगे। बढ़िया खाना-पीना करेंगे और धूल झाड़कर घर आ जाएंगे। महीने-दो महीने बाद फिर एक गोष्ठी या सेमिनार।

– शर्मा जी, आपकी ये ‘कोस्मैटिक समाजसेवा’ मेरी समझ से परे है। सेवा करनी है तो उनकी करो, जो रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझ रहे हैं। ठंडे सभागारों में मानसिक जुगाली करने से किसी का भला नहीं होगा।

– वर्मा जी, हम तो ऐसे ही करेंगे। मेरी मानो, तो तुम भी हमारे साथ आ जाओ। दाम और नाम दोनों ही मिलेंगे।

मेरे क्रोध का ठिकाना न था। मैं शर्मा जी को खरी-खरी सुनाना ही चाहता था कि तभी उनका मोबाइल बजा। उन्हें संस्था के अध्यक्ष आर.पी सर ने याद किया था। इसलिए वे चल दिये। मुझे अकबर इलाहबादी की पंक्तियां याद आईं।

कौम के गम में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ

रंज लीडर को बहुत है, मगर आराम के साथ।।

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