पानी से पैसा कमाने की कवायद

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गोपाल अग्रवाल

जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं में से जल एक है। इसका निजी स्वामित्व में जाना न तो मानवता के हित में है और न ही देशहित में। बात जब सिद्धांत की होती है तो अदालतों व सरकार सहित सभी लोग ऐसा ही मानते हैं, लेकिन लागू करने के स्तर पर सभी की सोच में काफी भिन्नता है।

आज हालात ऐसे बन गए हैं कि जल संसाधन के संरक्षण के नाम पर सरकार इसका एक वस्तु के तौर पर व्यावसायीकरण करने के लिए कमर कस चुकी है। इसे वितरण एवं रख-रखाव के माध्यम से सार्वजनिक निजी साझीदारी (पीपीपी माडल) के रूप में किए जाने की योजना है। राष्ट्रीय जल नीति- 2012 के मसौदे से यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है। नीति निर्माताओं द्वारा सिद्धांत और व्यवहार के बीच का यह अंतर चिंताजनक है। इस दोगलेपन का आम आदमी के बीच खुलासा करना और उस पर लगाम लगाना बहुत जरूरी है।

हवा की तरह जल भी प्रकृति द्वारा निःशुल्क उपलब्ध कराया जाता है और मानव इसका लाखों वर्षों से इस्तेमाल करता आ रहा है। उच्चतम न्यायालय ने एमसी मेहता बनाम कमलनाथ, 1997 के मामले में अपने निर्णय में कहा था, ‘सरकार सभी प्राकृतिक संसाधनों की एक न्यासी है। न्यास इस सिद्धांत पर निर्भर है कि हवा, समुद्र, जल और वन जैसे निश्चित संसाधनों का संपूर्ण मानव के लिए इतना अधिक महत्व है कि इन्हें निजी स्वामित्व का विषय बनाना पूरी तरह से अनुचित होगा। ये संसाधन प्रकृति के उपहार हैं, इन्हें हर किसी को निःशुल्क उपलब्ध कराया जाना चाहिए। इस सिद्धांत को लागू करने के लिए सरकार आम लोगों के उपयोग के वास्ते इन संसाधनों की रक्षा करे, न कि निजी स्वामित्व या व्यावसायिक उद्देश्य के लिए इनके इस्तेमाल की अनुमति दे। 16 दिसंबर, 2003 को आए कोका कोला मामले में केरल उच्च न्यायालय ने कहा कि सरकार के पास प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन का अधिकार है, लेकिन वह लोगों से जल का या किसी अन्य प्राकृतिक संसाधन का स्वामित्व नहीं छीन सकती।

हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि पर्याप्त मात्रा में नागरिकों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने में सरकार की विफलता, भारत के संविधान की धारा 21 में दिए गए जीवन जीने के मौलिक अधिकार का हनन और मानवाधिकारों का हनन है। इसलिए हर सरकार के लिए स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराना उसकी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए, भले ही इसके लिए उसे दूसरे विकास कार्यक्रमों की बलि ही क्यों न देनी पड़े। इस रास्ते में चाहे धन की कमी हो या ढांचागत सुविधाओं की कमी, कोई भी बाधा बहानेबाजी का माध्यम नहीं बन सकती। इस संबंध में महज चर्चा करने की बजाय तेजी के साथ हर कीमत पर रास्ते निकालने होंगे। जीने के अधिकार के तहत जल तक लोगों की पहुंच का घोषणा पत्र अर्थहीन हो जाएगा, अगर इसकी सुलभता केवल उन्हीं लोगों के लिए हो जो इसकी कीमत अदा कर सकते हैं। यह बात उतनी ही बेतुकी है, अगर यह कहा जाए कि सरकार केवल उन्हीं लोगों को जीवन जीने के अधिकार की गारंटी देगी जो इसके लिए भुगतान कर सकते हैं। सरकार के अस्तित्व का संपूर्ण उद्देश्य अपने सभी नागरिकों के लिए आधारभूत जरूरतों की पूर्ति सुनिश्चित करना है, चाहे उनकी आर्थिक स्थिति कैसी भी हो। यही नियम भारत सरकार पर भी लागू होता है।

देर-सबेर जल के निजीकरण के बारे में बहुत कुछ सुना जा रहा है। जब सरकार अन्य नीतियों की तरह अंततः जल के निजीकरण करने का निर्णय करेगी तो यही कहेगी कि इसे भी सार्वजनिक हित में किया जा रहा है। लेकिन लोगों की ओर से जल के निजीकरण के लिए मांग कभी नहीं सुनी गई। ऐसा क्यों है कि सरकार जो हमेशा लोक हित में काम करने की कसम खाती है, अंत में लोगों को चोट पहुंचाती है? वर्तमान में हमारे पास दो वर्ग हैं, जिसमें पहला वर्ग प्रभावशाली और शक्तिशाली है जो नीति निर्धारण और उसे लागू करने के हर पहलू पर प्रभाव डालता है। वह सब कुछ खरीदने में सक्षम है। उसके लिए कीमत से ज्यादा उपलब्धता मायने रखती है। वहां किसी चीज की कमी और उसका व्यावसायीकरण धन बनाने का एक माध्यम है।

यद्यपि हम मानते हैं कि उद्यमिता एवं धन सृजन के लिए निजी स्वामित्व एक प्रमुख प्रेरक है, लेकिन इसके लिए आम आदमी को बलि का बकरा नहीं बनाया जा सकता। हमारी प्राथमिक चिंता आम आदमी को लेकर होनी चाहिए, जो विनाश एवं शोषण की ऐतिहासिक परिस्थितियों के बोझ तले दबे रहते हुए विकास की दौड़ में पीछे छूट गया है। जल के निजीकरण के लिए सबसे बड़ा दबाव निजी क्षेत्र की ओर से है। निजीकरण की सक्षमता को त्रिकाल सत्य मान का प्रचारित किया जाता है, लेकिन इसका निष्पक्ष विश्लेषण किया जाए तो पता चलता है कि कौशल का स्वामित्व के साथ कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां सार्वजनिक क्षेत्र उतना ही सक्षम रहा है, जितना की निजी क्षेत्र। इसके लिए जरूरी होता है कि सार्वजनिक क्षेत्र को पर्याप्त स्वायत्ता मिले।

जल की उपलब्धता और मांग के सरकारी आंकड़ों (वास्तविक एवं अनुमानित) को देखें तो पता चलता है कि कुल मिलाकर इसकी कोई कमी नहीं है। वास्तव में जल की उपलब्धता में भारी स्थानिक विषमताएं हैं, जो पूरी तस्वीर को एक तरह से भ्रामक बनाती हैं। लेकिन संतोष की बात है कि कुल मिलाकर देश में जल की किल्लत नहीं है। केंद्रीय जल आयोग के मुताबिक, जल संसाधनों का अनुमानित उपयोग 1,123 अरब घन मीटर है। अगर हम वर्ष 2025 के लिए अनुमानित मांग को देखें तो जल संसाधन मंत्रालय की एक स्थायी उप समिति ने इसे 1,093 अरब घन मीटर बताया है। एकीकृत जल संसाधन विकास पर राष्ट्रीय आयोग ने वर्ष 2050 के लिए कम मांग के परिदृश्य में जल की कुल मांग 973 अरब घन मीटर और ऊंची मांग के परिदृश्य में 1,180 अरब घन मीटर रहने का अनुमान व्यक्त किया है।

पूर्ण लागत की वसूली का तर्क एक मृगतृष्णा के समान है। इसके बारे में इतना परमपावन क्या है कि जल के निजीकरण की वकालत करने वाले इसी को अपना उद्देश्य बना लेते हैं। आज एक सार्वजनिक जल कंपनी को सरकार से किसी खास बजटीय सहायता की जरूरत नहीं पड़ती। अगर सरकार इस मद पर कुछ अतिरिक्त खर्च करती है, तो क्या इससे जरूरी और कोई चीज हो सकती है? पूर्ण लागत वसूली को परिभाषित नहीं किया जा सकता। एक निजी जल वितरण कंपनी अपने कर्मचारियों को मारुति या मर्सिडीज कार उपलब्ध करा सकती है और इसकी लागत अपने खर्चों में जोड़ सकती है। यह मात्र एक संभावना नहीं है। निजी कंपनियां सरकारों को उनका अधिकारपूर्ण हिस्सा देने से बचने के लिए कई तरह के मार्ग अपनाती हैं। कार्य की कुशलता पर भी लागत निर्भर करती है। पूर्ण लागत वसूली की गारंटी खर्चा कम रखने के लिए प्रोत्साहन को खत्म कर देगी। जल नीति के मसौदे में ऐसी ही बात है।

स्वतंत्रता के छह दशक के बाद भी भारतीय सरकारें अपने नागरिकों की मूलभूत जरूरतें पूरी नहीं कर सकी हैं। अपनी इस कमजोरी को दूर करने की बजाए सरकारों ने बाजार के पक्ष में तर्क देना शुरू कर दिया। विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश जैसे अंतरराष्ट्रीय संस्थान और डब्ल्यूटीओ जैसे समझौते भारत जैसे विकासशील देशों को बाजार प्रणाली को रामबाण के तौर पर अपनाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। वर्ष 1990 की शुरुआत में नीतिगत ढांचे में बदलाव ने इन्हें देश में पांव पसारने का मौका दिया और वे पश्चिमी देशों की कंपनियों के लिए नए बाजार तलाशने के एजेंडे के साथ नीतिगत निर्णयों को प्रभावित करने लगे। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश ऋण देने की शर्तों के तहत नियंत्रण खत्म करने और विकास के समान अवसर उपलब्ध कराने के नाम पर विदेशी निजी कंपनियों के लिए बड़ी भूमिका की मांग करते हैं। एक अध्ययन के मुताबिक, वर्ष 2000 में अंतरराष्ट्रीय वित्तीय निगमों के जरिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश द्वारा दिए गए ऋणों में से 12 में जलापूर्ति के आंशिक या पूर्ण निजीकरण, पूर्ण लागत वसूली और सब्सिडी खत्म किए जाने की जरूरत बताई गई है। इसी तरह 2001 में विश्व बैंक द्वारा जल एवं स्वच्छता के लिए मंजूर किए गए ऋणों में से 40 प्रतिशत से अधिक में जलापूर्ति करने वाली इकाइयों के निजीकरण की शर्त रखी गई है। विषय की जटिलता और इसके महत्व को ध्यान में रखते हुए सरकार ने समय-समय पर कार्यक्रम एवं कानून पेश किए। मसलन, शहरों, महानगरों और राज्य में जलापूर्ति के लिए जल बोर्ड का गठन, भूमिगत जल निकालने और इसके इस्तेमाल के नियमन के कानून, जल संसाधन के संरक्षण पर कानून, उद्योगों को जलापूर्ति के लिए कानून आदि। इसमें राष्ट्रीय जल नीति-2012 का मसौदा भी शामिल है। इनके बीच तुलना करने से स्पष्ट पता चलता है कि जल आवंटन के लिए वर्तमान जल नीति में किस तरह से बाजार की व्यवस्था का इस्तेमाल किया गया है। इससे ऐसे गरीब और कमजोर लोगों की पहुंच से जल दूर हो जाएगा, जो इसके लिए उतना मूल्य देने में सक्षम नहीं हैं जितना मूल्य धनी लोग दे सकते हैं।

समाज के ढांचे का निर्माण ऐसा होना चाहिए कि जाति, पंथ, धर्म या धन को लेकर किसी भी तरह के भेदभाव के बगैर इसके सभी अंगों या भागीदारों का ख्याल रखा जाए। सभी नागरिकों की मूलभूत जरूरतें पूरी करना सरकार का बाध्यकारी दायित्व है। इस दायित्व का उल्लेख इस संप्रभु, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष गणराज्य द्वारा अपनाए गए संविधान में किया गया है। इन सभी पहलुओं को सामने लाने और विषय पर जागरूकता अभियान चलाए जाने की जरूरत है। भारत सरकार द्वारा हाल ही में पेश की गई राष्ट्रीय जल नीति-2012 के मसौदे में उल्लिखित जल के निजीकरण को हर हालत में रोका जाना चाहिए।(भारतीय पक्ष)

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