आम आदमी की सुरक्षा पर हावी वीआईपी सुरक्षा

देश इस वक़्त आतंरिक तौर पर कड़े अनुभवों से दो-चार हो रहा है| नक्सलवाद की समस्या तो मुंह बाए खड़ी ही है, महानगरों एवं छोटे शहरों में बढ़ती आपराधिक घटनाओं ने भी सुरक्षा व्यवस्था की पोल खोलकर रख दी है| चाकूबाजी, ज़रा-जरा सी बात पर झगडा, किसी को कहीं कहीं भी; कभी भी जान से मार देना, क्या शहर; क्या गाँव; गुंडागर्दी व अपराध चरम पर है, अपराधियों के हौसले बुलंद हैं और पुलिस बल की कमी है| यानी जिस तेज़ी से अपराध हो रहे हैं, उस अनुपात में पुलिस बल में या तो वृद्धि नहीं हो रही या पुलिस दिखाई नहीं देती| कुल मिलाकर आम आदमी की जान हमेशा सांसत में रहने लगी है| सुरक्षा व्यवस्था में चूक पर अमूमन सभी राज्य सरकारें पुलिस बल की कमी का रोना रोते देखी जा सकती है| आम आदमी की सुरक्षा बाबत पुलिस का कहना है कि जिस अनुपात में जनसंख्या वृद्धि हो रही है तथा जिस तेज़ी से अपराध बढ़ रहे हैं, पुलिस हर एक नागरिक की सुरक्षा नहीं कर सकती| हो सकता है कि अपराध घटित होने के अनुपात में पुलिस बल न हो किन्तु क्या इस तथ्य को झुठलाया जा सकता है कि कुछ अति विशिष्ट एवं विशिष्ट पदों पर आसीन नेता, राजनेता और अधिकारी ज़रूरत से ज्यादा सुरक्षा का लाभ उठा रहे हैं| वैसे भी, वर्तमान राजनीतिक परिपेक्ष्य में आम आदमी की हैसियत ही क्या है?

ऐसे वक़्त में जब पुलिस-आबादी का अनुपात पहले से ही कम है; देश भर के १६,७८८ अति-विशिष्ट एवं विशिष्ट लोगों की हिफाजत के लिए ५०,०५९ पुलिस जवान-अधिकारी; सुरक्षा अधिकारी के रूप में तैनात हैं| यह हम नहीं यह रहे बल्कि गृह मंत्रालय खुद इस तथ्य को स्वीकार कर रहा है| गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष २०१० में २५ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के १६,७८८ विशिष्ट व्यक्तियों की हिफाजत में ५०,०५९ पुलिसकर्मी छह माह से अधिक समय तक तैनात थे, जबकि मंजूरी महज २८,२९८ पुलिसकर्मियों के लिए ही थी। यह आंकड़े चौंकाने वाले हैं, जिसके अनुसार तैनात पुलिसकर्मियों की संख्या आवंटित सुरक्षाकर्मियों की संख्या से दोगुनी है। केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम की ओर से जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि सुरक्षित लोगों की हिफाजत का अमला अमूमन उपलब्ध संसाधनों से हासिल किया जाता है। ऐसा इस मकसद के लिए मंजूरी क्षमता में इजाफे के बगैर ही होता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि आवंटन से अधिक पुलिसकर्मियों की तैनाती ने मानव संसाधन की कमी से जूझ रहे राज्य पुलिस बलों के लिए मुश्किलें बढ़ा दी हैं।

रिपोर्ट में सुझाव के तौर पर कहा गया है कि वीआइपी सुरक्षा में पुलिसकर्मियों की तैनाती की नियमित समीक्षा की आवश्यकता है। ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट की ओर से तैयार इस रिपोर्ट के अनुसार, १ जनवरी २०११ तक प्रति एक लाख आबादी पर पुलिसकर्मियों की मंजूर संख्या १७३.५१ थी, जबकि एक लाख जनसंख्या की सुरक्षा के लिए असल में औसतन तैनात पुलिसकर्मी १३१.३९ थे। वहीं साल २००९ में १७,४५१ वीआइपी के लिए ४७,३५५ सुरक्षाकर्मी तैनात थे, जबकि मंजूरी लगभग इसके आधे के करीब २३,६३७ जवानों की ही दी गई थी। २०१० में बिहार में ३०३०, पंजाब में १६८५ व प. बंगाल में १६४० विशिष्ट लोगों को सुरक्षा दी गई। स्थिति यह रही कि २०१० में विशिष्ट लोगों को सुरक्षा देने के लिए पंजाब से ५४१० पुलिस के जवान व ५००१ सुरक्षाकर्मी राजधानी दिल्ली से और ३९५८ पुलिसकर्मी आंध्र प्रदेश से मांगने पड़े थे। रिपोर्ट के अनुसार गृह मंत्रालय ने विशिष्ट लोगों की सुरक्षा में जरूरत के हिसाब से ही सुरक्षाकर्मियों के तैनात किए जाने पर बल दिया है।

सबसे हास्यास्पद बात तो यह है कि अति-विशिष्ट व्यक्तियों की सूची में कुछ ऐसे भी लोग हैं जो न तो नेता हैं, न अधिकारी फिर भी सरकार का मानना है कि उनकी जान को खतरा है जिसकी वजह से उन्हें सुरक्षा मुहैया करवाई जानी चाहिए| खासकर मौजूदा संप्रग सरकार का तो यह शौक रहा है कि अपने खासम-ख़ास व्यक्ति को वह अति-विशिष्ट की श्रेणी में शामिल करती है| वहीं कई नेता-अधिकारी तो सुरक्षा के नाम पर पुलिसकर्मियों की भारी-भरकम फौज रखना पसंद करते हैं| उदाहरण के लिए उत्तरप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के सुरक्षा काफिले में तो ४०० से अधिक सुरक्षाकर्मी थे| अब यह तो मायावती ही बता सकती हैं कि इतने सुरक्षाकर्मियों की उनको क्या आवश्यकता है? हालांकि सत्ता प्रदेश में सत्ता परिवर्तन के चलते उनकी सुरक्षा में कटौती की गई है किन्तु जब मायावती की जान को कोई खतरा नहीं है तो इतनी भारी-भरकम सुरक्षा मुहैया कराना कहाँ की बुद्धिमता है? दरअसल, पुलिस सुरक्षा का मामला दिखावेपन से भी जुड़ा हुआ है| कई नेता-अधिकारी तो सुरक्षा रखना इसलिए पसंद करते हैं ताकि अपने समकक्ष के लोगों पर रौब झाड़ा जा सके| पुलिस सुरक्षा प्राप्त व्यक्ति एक तरह से सामंती मानसिकता का प्रदर्शन करना चाहता है| फिर कई बार पुलिस सुरक्षा भी विशिष्ट व्यक्ति को आने वाले खतरे से बचाने की गारंटी नहीं दे सकती| हाल ही में ओडिशा में सत्तारूढ़ बीजद सरकार के विधायक झीना हिकाका को माओवादियों ने बंधक बना लिया| उनके साथ सुरक्षाकर्मी भी थे किन्तु माओवादियों की संख्या अधिक होने की वजह से वे निरीह होकर विधायक को बंधक बनता देखते रहे| इससे तो यह साबित होता है कि मात्र पुलिस अभिरक्षा में रहना ही पूर्ण सुरक्षा की गारंटी नहीं हो सकता| कहा जाए तो विशिष्ट लोगों के लिए पुलिस सुरक्षा वर्तमान में उतनी कारगर सिद्ध नहीं हो पा रही जितनी उससे अपेक्षा थी| फिर विशिष्टों को इतनी बड़ी संख्या में सुरक्षा कर्मी क्यों मुहैया करवाए जा रहे हैं?

 

जहां तक अति-विशिष्ट एवं विशिष्ट व्यक्तियों की सुरक्षा का सवाल है; अव्वल तो उनकी सुरक्षा हेतु गृह मंत्रालय को राज्यों के पुलिस जवानों की अपेक्षा पुलिस या विशेष कार्यबल की एक ऐसी टुकड़ी तैयार करनी चाहिए जो हर संभावित खतरे से निपटने में सक्षम हो| उसके पास अत्याधुनिक हथियार हो, सुरक्षा में तैनात जवान चुस्त एवं फुर्तीले हों एवं हर तरह की परिस्थिति से पार पाने में सक्षम हों| दूसरा, कि अतिविशिष्ट एवं विशिष्ट व्यक्तियों की सूची को पुनः संशोधित किया जाए ताकि जो भी सरकार के कृपा पात्र बन पुलिस सुरक्षा प्राप्त कर रहे हों उन्हें सूची से निकाला जा सके| अतिविशिष्ट एवं विशिष्ट व्यक्तियों की सूची में सिर्फ उन्हीं को शामिल किया जाए जिन पर सच में खतरा मंडरा रहा हो| राज्यों की पुलिस को राज्य की कानून व्यवस्था दुरुस्त करने का जिम्मा ही दिया जाए ताकि नित बढ़ रहे अपराधों पर कुछ हद तक अंकुश लगाया जा सके|

 

सबसे बड़ी बात; सुरक्षा व्यवस्था को लेकर राजनीति नहीं होनी चाहिए| अतिविशिष्ट एवं विशिष्ट व्यक्तियों की जान की कीमत भी वही है जो एक आम आदमी की जान की कीमत है| एक आम आदमी ही किसी व्यक्ति को अतिविशिष्ट एवं विशिष्ट व्यक्तियों की कतार में शामिल करता है| यदि उसकी स्वयं की सुरक्षा नहीं हो पा रही है तो यह सारा आडम्बर औचित्यहीन है| फिर अति-विशिष्ट एवं विशिष्ट व्यक्ति खुद ही अपने ऊपर मंडरा रहे खतरे को भांप अपने सुरक्षा अमले को कम कर सकता है| ऐसा कर वह व्यक्ति दूसरों के लिए भी एक उदाहरण पेश करेगा| अति-विशिष्ट एवं विशिष्ट व्यक्ति यक़ीनन हमारी आवाज होते हैं किन्तु जहां बात थोथे दिखावे की हो तो उसपर अंकुश लगना अवश्यंभावी है| अतः अति-विशिष्ट एवं विशिष्ट व्यक्तियों की सुरक्षा की समीक्षा पुनः की जाए तथा राज्य सरकारों को आबादी के अनुपात से पुलिस बल मुहैया कराया जाए ताकि अपराधों पर अंकुश लगाया जा सके|

 

 

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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

1 COMMENT

  1. यदि ये वास्तव में जन नेता हैं ,तो इन्हें क्या खतरा है?क्यों इन्हें सुरक्षा की जरूरत पड़ती है.यदि है तो उन्हें खुद अपने खर्च से यह वव्यास्था करनी चाहिए.पर इस देश में सब जनता के लिए,जनता के नाम पर किया जाता है.

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