दंगे तो साम्प्रदायिकता नाम के रोग का लक्षण मात्र हैं ?

communal-riotsइक़बाल हिंदुस्तानी

0सरकार की नज़र वोटबैंक पर रहेगी तो कानून निष्पक्ष नहीं रहेगा!

मुज़फ्फ़रनगर में हाल ही में हुए दंगे को लेकर भले ही यह दावा किया जाये कि इसकी शुरूआत एक साइकिल वाले और बाइक वाले की मामूली टक्कर से हुयी लेकिन सच यही है कि यह दंगे का एकमात्र कारण नहीं है। एक और हक़ीक़त यह है कि किसी भी दंगे का चाहे वह देश के किसी भी राज्य में हुआ हो कोई एक कारण कभी नहीं होता है। जो लोग इस बात पर जोर दे रहे हैं कि अगर साइकिल और बाइक वाले विवाद में पहले मुस्लिम युवक की और बाद में बदले की भावना से क्षेत्र के लोगों द्वारा इस हत्या के आरोपी दोनों हिंदू युवकों की हत्या नहीं की जाती तो दंगा नहीं होता वे या तो वास्तविकता जानते नहीं या फिर जानबूझकर इस तथ्य को छिपाना चाहते हैं कि अगर ये दोनों एक ही धर्म या एक ही जाति के होते तो घटना यही होने के बावजूद दोनों वर्गां की प्रतिक्रिया कुछ और होती यानी दंगा नहीं होता।

इसका मतलब घटना चाहे जो हो जैसी हो लेकिन दंगा इस बात से तय होता है कि दोनों पक्ष अलग अलग धर्म के हैं या नहीं? इससे एक बात और सामने आती है कि धर्म अलग अलग होने से एक दूसरे के प्रति साम्प्रदायिकता और पूर्वाग्रह लोगों के दिमाग में पहले से मौजूद हैं।

हालांकि इस मामले में बाद में यह प्रचार किया गया कि मामला छेड़छाड़ का था। इसी बहाने बहू बेटियों की आबरू बचाओ का नारा देकर महापंचायत भी आयोजित की गयी थी, जिसके बाद हालात पुलिस प्रशासन के काबू से बाहर चले गये। कुछ लोग पंचायत पर रोक ना लगाने का सपा सरकार की सबसे बड़ी भूल और दंगा शुरू होने का कारण भी बार बार बता रहे हैं लेकिन उनसे पूछा जाना चाहिये कि जब एक पक्ष की तरफ से मीनाक्षी चौक पर पहले ही पंचायत हो चुकी थी और उसमें एक वर्ग विशेष के सभी नेताओं ने दलगत राजनीति से ऊपर उठकर केवल धर्म के आधार पर जमकर भड़ास निकाली तो ऐसा कैसे हो सकता था कि दूसरे वर्ग को ऐसी पंचायत करने से रोका जाता।

हालांकि सपा की यह मुसलमानों के प्रति वोटबैंक की राजनीति का ही नमूना था कि पहले तीन मर्डर होने पर पुलिस के हाथ बांध दिये गये जिससे वह ईमानदारी और इंसाफ के साथ सख़्त और निष्पक्ष कानूनी कार्यवाही नहीं कर सकी। और तो और जिन लड़कों की हत्या हुयी उनके परिवार के लोगों को भी पहली हत्या का आरोपी बना दिया गया, बाद में हालात बिगड़ने पर उनका नाम केस से निकाला गया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। यह भी दावा किया जा रहा है कि सरकारी मशीनरी खनन माफिया के दबाव में दुर्गा नागपाल के साथ किये गये पक्षपातपूर्ण सरकारी व्यवहार से नाराज़ थी जिससे उसने जानबूझकर लापरवाही और काहिली से काम लेकर हालात पहले तो बिगड़ने दिये और जब दंगा शुरू हो गया तो हाथ खड़े कर दिये कि इतनी कम पुलिस और अधर्सैनिक बल से वह दंगा नहीं रोक सकती।

यही वजह थी कि मुलायम सिंह ने केंद्र सरकार को सपा का समर्थन होने की वजह से बिना देरी किये एक दिन बाद ही रात दो बजे सेना को वहां तैनात कर दिया जिससे दंगाइयों की बड़े विनाश की योजना को रोकने में कामयाबी मिली। यहां मुसलमानों को यह बात देर से ही सही लेकिन समझ में आ रही है कि सपा उनकी नादान दोस्त है जो पहले उनको मनमानी करने की छूट देती है, निष्पक्ष कानूनी कार्यवाही ना करके उनका दुस्साहस बढ़ाती है और जब हालात काबू से बाहर चले जाते हैं तो उनको दंगाइयों के रहमो करम पर छोड़ देती है। इसके रिएक्शन में जब हिंदू साम्प्रदायिकता मोर्चा संभाल लेती है तो सपा सरकार को सांप सूंघ जाता है और उसकी सिट्टी पिट्टी गुम हो जाती है। कुछ लोग सवाल पूछते हैं कि सपा के राज में ही अचानक दंगे क्यों बढ़ जाते हैं तो उनसे यह भी पूछा जाना चाहिये कि सपा के राज में ही भाजपा इतनी एक्टिव क्यों हो जाती है?

सपा सरकार ने जिस तरह से सारे मामले को लिया उससे शुरू में यह संदेश गया कि मुसलमानों को इस सरकार में विशेष अधिकार मिला हुआ है और कानूनी कार्यवाही उनको नाराज़ करके नहीं की जायेगी, उल्टे वे जिस तरह से संतुष्ट होंगे उस तरह से मामले की रपट दर्ज कर दूसरे पक्ष के खिलाफ कार्यवाही की जायेगी। इससे दूसरे वर्ग में गुस्सा बढ़ना स्वाभाविक ही था। सच तो यह है कि लोगों के दिल दिमाग में साम्प्रदायिकता और कट्टरवाद पहले से ही कूट कूट कर भरा है और कई घटनाओं का बारूद धीरे धीरे एकत्र होता रहता है, उसके बाद नेता किसी दिन उसमें किसी खास मौके पर दंगे की चिंगारी लगा देते हैं। पहले ऐसा लगता था कि मंदिर मस्जिद विवाद का दशक गुज़र जाने के बाद अब दंगे भी पुराने ज़माने की बात हो चुके हैं और लोग समझ गये हैं कि दंगे किसी समस्या का समाधान नहीं बल्कि दंगे तो खुद एक बड़ी समस्या हैं जिससे कम अधिक दोनों ही सम्प्रदायों का नुकसान होता है।

शिक्षा और आर्थिक विकास होने से भी यह माना जा रहा था कि भविष्य में दंगे नहीं होंगे लेकिन अब एक बार फिर ऐसा लगता है कि जब तक जनता के दिल दिमाग़ में दूसरे वर्ग के लोगों के लिये ज़ेहर भरा है तब तक नेता लोगों को भड़काने से बाज़ नहीं आयेंगे। और आम आदमी जो बार यह बात दोहराता है कि नेता वोटबैंक की राजनीति के तहत जनता को भड़काते हैं उसी से यह पूछा जाना चाहिये कि जब वह यह बात जानता है तो फिर बार बार भड़कता क्यों है? दरअसल हम लोगों के दो चेहरे हैं एक हम सार्वजनिक जीवन के मंच पर इस्तेमाल करते हैं जिसमें दिखावे के लिये दावा करते हैं कि सबका मालिक एक है, रास्ते अलग अलग हैं मंज़िल सबकी एक है। सभी धर्म प्रेम, भाईचारे और एकता संदेश देते हैं लेकिन जब यही लोग अपने धर्म के लोगों के बीच बंद कमरों मंे बात करते हैं तो वे और हम कहकर एक दूसरे के खिलाफ जमकर जे़हर उगलते हैं।

एक दूसरे के धर्म और लोगों को झूठा और शैतानी बताते हैं। यही वजह है कि मौका मिलते ही लोग दंगे पर उतर आते हैं। हमें तो लगता है कि जब तक सभी धर्मों के लोग ईमानदारी और सच्चाई के साथ एक दूसरे का आदर, सहयोग और प्यार नहीं करने लगेंगे तब तक कट्टरपंथी सोच के मुट्ठीभर लोग किसी ना किसी घटना को साम्प्रदायिक रंग देकर अभी कम से सौ या दो सौ साल तक इसी तरह हिंदू मुसलमान के नाम पर इंसानी खून की होली खेलते रहेंगे। आतंकवाद, खूनी जेहाद, हिंदू राष्ट्र, हिंदुत्व और संकीर्णता व साम्प्रदायिकता को विदा किये बिना दंगों को नहीं रोका जा सकता , क्योंकि ईमानदार सरकार की निष्पक्ष और त्वरित कानूनी कार्यवाही भी तात्कालिक तौर पर दंगों को दबा ही सकती है, सदा के लिये दंगों से बचने का रास्ता तो समाज के बीच से ही होकर भारतीयता से ही बन सकता है।

मैं वो साफ़ ही ना कहदूं जो है फर्क तुझमें मुझमें,

तेरा गम है गम ए तन्हा मेरा गम गम ए ज़माना।।

 

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इक़बाल हिंदुस्तानी
लेखक 13 वर्षों से हिंदी पाक्षिक पब्लिक ऑब्ज़र्वर का संपादन और प्रकाशन कर रहे हैं। दैनिक बिजनौर टाइम्स ग्रुप में तीन साल संपादन कर चुके हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अब तक 1000 से अधिक रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है। आकाशवाणी नजीबाबाद पर एक दशक से अधिक अस्थायी कम्पेयर और एनाउंसर रह चुके हैं। रेडियो जर्मनी की हिंदी सेवा में इराक युद्ध पर भारत के युवा पत्रकार के रूप में 15 मिनट के विशेष कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं। प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ लेखक के रूप में जानेमाने हिंदी साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार जी द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिंदी ग़ज़लकार के रूप में दुष्यंत त्यागी एवार्ड से सम्मानित किये जा चुके हैं। स्थानीय नगरपालिका और विधानसभा चुनाव में 1991 से मतगणना पूर्व चुनावी सर्वे और संभावित परिणाम सटीक साबित होते रहे हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता के लिये होली मिलन और ईद मिलन का 1992 से संयोजन और सफल संचालन कर रहे हैं। मोबाइल न. 09412117990

5 COMMENTS

  1. हद है इकबाल जी एक स्थापित तथ्य को भी आपने नकार करके ये बता दिया की आप आज़म खान से अलग नहीं है, सभी जानते है की मामले की शुरुआत लड़की के साथ छेड़छाड़ से हुई थी लेकिन आपने कितनी आसानी से वही झूठ लिख दिया

  2. बहुत बार यह विचार मस्तिष्क को मंथन करने लगता है कि ये दंगे क्यों?आखिर कौन करता है यह सब? दंगो में इंसानियत तार तार हो जाती है,पर इसका लाभः किसको मिलता है? क्या कोई आज निश्चित रूप से बता सकता है कि मुज़फ्फर नगर में दंगा कैसे आरम्भ हुआ? इस पर जांच कमीशन भी बैठाया जाएगा,पर फिर भी हकीकत का पता नहीं लगेगा. अगर दंगे के आरम्भ में आजम खान ने कुछ आरोपियों को रिहा करने कि सिफारिश की थी,तो शायद जिंदगी भर उन्हें इसके लिए पछताना पडेगा.आज हालात यहाँ तक पहुँच गया है कि कोई भी मुसलमान अपने घरों को लौटना नहीं चाहता.आखिर ऐसा क्यों हुआ?सदियों से साथ रहते आये हुए जाट और मुस्लिम क्यों एक दूसरे से भीड़ गए? कौन हैं वे लोग ,जो इंसानों को इंसानों की तरह रहने नहीं देते?कौन हैं वे लोग जो उनको कभी हिन्दू और मुसलमान में बिभक्त कर देते हैं,तो कभी अगड़े पिछड़े और दलित में ? फिर तमाशा देखते हैं खून की होली का.
    आज पहलीं समस्या है मुसलमानों को वह विश्वास दिलाने की ,जिसके सहारे वे अपने घरों को लौट सकें.अपने खेतों में कड़ी फसल को काट सके. फिर वैसा वातावरण बनाने की,जिसमे इसकी पुनरावृति नहीं हो. क्या वर्तमान राज्य सरकार यह करने में सक्षम है?
    आज कोई भी पार्टी या राजनेता यह नहीं कह सकता कि उसने या उसकी पार्टी ने अपनी जिम्मेवारी निभाई है. सबने इस दंगे की आग को अपने ढंग से हवा दी है और उस पर सियासत की रोटियां सेकी हैं,पर बार बार ऐसा क्यों होता है?क्यों नहीं हम इससे कोई सबक ले पाते हैं? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं,जिनका उत्तर हमें यानि आम आदमी को ढूंढना पड़ेगा,नहीं तो हम इसी तरहं किसी न किसी दंगे और जातीय झगड़े के शिकार होते रहेंगे.और राजनेता और अन्य,जिनकी रोजी रोटी इसी आग को भड़काने में चलती है,इसको हवा देते रहेंगे.

  3. बहुत बार यह विचार मस्तिष्क को मंथन करने लगता है कि ये दंगे क्यों?आखिर कौन करता है यह सब? दंगो में इंसानियत तार तार हो जाती है,पर इसका लाभः किसको मिलता है? क्या कोई आज निश्चित रूप से बता सकता है कि मुज़फ्फर नगर में दंगा कैसे आरम्भ हुआ? इस पर जांच कमीशन भी बैठाया जाएगा,पर फिर भी हकीकत का पता नहीं लगेगा. अगर दंगे के आरम्भ में आजम खान ने कुछ आरोपियों को रिहा करने कि सिफारिश की थी,तो शायद जिंदगी भर उन्हें इसके लिए पछताना पडेगा.आज हालात यहाँ तक पहुँच गया है कि कोई भी मुसलमान अपने घरों को लौटना नहीं चाहता.आखिर ऐसा क्यों हुआ?सदियों से साथ रहते आये हुए जाट और मुस्लिम क्यों एक दूसरे से भीड़ गए? कौन हैं वे लोग ,जो इंसानों को इंसानों की तरह रहने नहीं देते?कौन हैं वे लोग जो उनको कभी हिन्दू और मुसलमान में बिभक्त कर देते हैं,तो कभी अगड़े पिछड़े और दलित में ? फिर तमाशा देखते हैं खून की होली का.
    आज पहलीं समस्या है मुसलमानों को वह विश्वास दिलाने की ,जिसके सहारे वे अपने घरों को लौट सकें.अपने खेतों में कड़ी फसल को काट सके. फिर वैसा वातावरण बनाने की,जिसमे इसकी पुनरावृति नहीं हो. क्या वर्तमान राज्य सरकार यह करने में सक्षम है?
    आज कोई भी पार्टी या राजनेता यह नहीं कह सकता कि उसने या उसकी पार्टी ने अपनी जिम्मेवारी निभाई है. सबने इस दंगे की आग को अपने ढंग से हवा दी है और उस पर सियासत की रोटियां सेकी हैं,पर बार बार ऐसा क्यों होता है?क्यों नहीं हम इससे कोई सबक ले पाते हैं? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं,जिनका उत्तर हमें यानि आम आदमी को ढूंढना पड़ेगा,नहीं तो हम इसी तरहं किसी न किसी दंगे और जातीय झगड़े के शिकार होते रहेंगे.और राजनेता और अन्य,जिनकी रोजी रोटी इसी आग को भड़काने में चलती है,इसको हवा देते रहेंगे.

  4. जो हुआ बहुत गलत हुआ…

    परन्तु नेताओं के आलावा क्या लोग बददिमाग हैं.. (जैसा की अपने कहा दो चेहरे, दूसरा चेहरा सामने आ ही जाता है..) . क्रिया की प्रतिक्रिया झेलना कभी-कभी भारी पड़ता है…सुना ही होगा .. सौ सुनार की एक लुहार की…यह धर्मनिरपेक्षता का राग अलापना बेमानी है… जब तक आप अपने धर्म को नहीं छोड़ेंगे… आप धर्मनिरपेक्ष हो ही नहीं सकते क्योंकि आपका धर्म ही सिख रहा है… की दूसरे आपके धर्म से कमतर और निंदनीय हैं… बाकि रही सपा के सहयोग की वो तो मैं पहले से कह रहा हूँ… क्या धर्म-जाती के कार्ड खलने वाली सपा-बसपा ने किसी का भला किया है… इनमे राष्ट्रीयता नाम की चीज़ ही नहीं है जो की बीजेपी में कम से कम है…

    और एक बात… जो हमारे यहाँ कही जाती है ” भय बिन प्रीत न होई” …यही कारन है की गुजरात में अल्पसंख्यक हों या बहुसंख्यक सब अच्छा कर-खा रहे हैं और शांतिप्रिय जीवन जी रहे हैं

    भारतीयता से प्यार करो और बोलो “बंदेमातरम”

  5. दलों की नीतियाँ देखने दिखने के लिए कुछ और होती हैं और क्रियान्वन की कुछ और.संप्रदाय,जाती और समाज को विभाजित करने में कोई भी दल पीछे नहीं.और वे तो बिलकुल नहीं जो दुसरे दलों को सांप्रदायिक कहकर खुद को सेक्युलर होने का तगमा पहन लेते हैं.चुनाव के आस पास उनकी सत्ता व वोटों की ललक और तीव्र हो जाती हैं और वे सब कुछ जाते हैं.भारत की राजनीती में चलने वाला यह एक निरंतर सिलसिला है व रहेगा.

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